महाभारतम्-02-सभापर्व-016
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युधिष्ठिर्जुनयोर्भाषणम्।। 1।।
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युधिष्ठिर उवाच।। | 2-16-1x |
सम्राड्गुणमभीप्सन्वै युष्मान्स्वार्थपरायणः। कथं प्रहिणुयां कृष्ण सोऽहं केवलसाहसात्।। | 2-16-1a 2-16-1b |
भीमार्जुनावुभौ नेत्रे मनो मन्ये जनार्दनम्। मनश्चक्षुर्विहीनस्य कीदृशं जीवितं भवेत्।। | 2-16-2a 2-16-2b |
जरासन्धबलं प्राप्य दुष्पारं भीमविक्रमम्। यमोपि न विजेताऽऽजौ तत्र वः किं विचेष्टितम्।। | 2-16-3a 2-16-3b |
अस्मिंस्त्वर्थान्तरे युक्तमनर्थः प्रतिपद्यते। तस्मान्न प्रतिपत्तिस्तु कार्या युक्ता मता मम।। | 2-16-4a 2-16-4b |
यथाऽहं विमृशाम्येकस्तत्तावच्छ्रूयतां मम। संन्यासं रोचये साधु कार्यस्यास्य जनार्दन। प्रतिहन्ति मनो मेऽद्य राजसूयो दूराहरः।। | 2-16-5a 2-16-5b 2-16-5c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-16-6x |
पार्थः प्राप्य धनुः श्रेष्ठमक्षय्यौ च महेषुधी। रथं ध्वजं हयांश्चैव युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-16-6a 2-16-6b |
अर्जुन उवाच। | 2-16-7x |
धनुः शस्त्रं शरा वीर्यं पक्षो भूमिर्यशो बलम्। प्राप्तमेतन्मय राजन्दुष्प्रापं यदभीप्सितम्। | 2-16-7a 2-16-7b |
कुले जन्म प्रशंसन्ति वैद्याः साधु सुनिष्ठिताः। बलेन सदृशं नास्ति वीर्यं तु मम रोचते। | 2-16-8a 2-16-8b |
कृतवीर्यकुले जातो निर्वीर्यः किं करिष्यति। निर्वीर्ये तु कुले जातो वीर्यवांस्तु विशिष्यते।। | 2-16-9a 2-16-9b |
क्षत्रियः सर्वशो राजन्यस्य वृत्तिर्द्विषज्जये। सर्वैगुणैर्विहीनोऽपि वीर्यवान्हि तरेन्द्रिपून्।। | 2-16-10a 2-16-10b |
सर्वैरपि गुणैर्युक्तो निर्वीर्यः किं करिष्यति। जयस्य हेतुः सिद्धिर्हि कर्म दैवं च संश्रितम्।। | 2-16-11a 2-16-11b |
संयुक्तो हि बलैः कश्चित्प्रमादान्नोपयुज्यते।। | 2-16-12a |
तेन द्वारेण शत्रुभ्यः क्षीयते सबलो रिपुः।। | 2-16-13a |
दैन्यं यथा बलवति तथा मोहो बलान्विते। तावुभौ नाशकौ हेतू राज्ञा त्याज्यौ जयार्थिना।। | 2-16-14a 2-16-14b |
जरासन्धिविनाशं च राज्ञां च परिरक्षणम्। यदि कुर्याम् यज्ञार्थं किं ततः परमं भवेत्।। | 2-16-15a 2-16-15b |
अनारम्भे हि नियतो भवेदगुणनिश्चयः। गुणान्निः संशयाद्राजन्नैर्गुण्यं मन्यसे कथम्।। | 2-16-16a 2-16-16b |
काषायं सुलभं पश्चान्मुनीनां शममिच्छताम्। साम्राज्यं तु भवेच्छक्यं वयं योत्स्यामहे परान्।। | 2-16-17a 2-16-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि षोडशोऽध्यायः।। 16।। |
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