महाभारतम्-02-सभापर्व-013
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मन्त्रिभिः सह संमन्त्र्य कृतराजसूयकरणनिश्चयस्य युधिष्ठिरस्य श्रीकृष्णम्प्रति दूतप्रेषणम्।। 1।। दूतेन सह इन्द्रप्रस्थमागतं श्रीकृष्णम्प्रति युधिष्ठिरोक्ति ।। 2।।
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वैशम्पायन उवाच।। | 2-13-1x |
ऋषेस्तद्वचनं श्रुत्वा निशश्वास युधिष्ठिरः। चिन्तयन्राजसूयेष्टिं न लेभे शर्म भारत।। | 2-13-1a 2-13-1b |
राजर्षीणां च तं श्रुत्वा महिमानं महात्मनाम्। यज्वनां कर्मभिः पुण्यैर्लोकप्राप्तिं समीक्ष्य च।। | 2-13-2a 2-13-2b |
हरिश्चन्द्रं च राजर्षि रोजमानं विशेषतः। यज्वानं यज्ञमाहर्तुं राजसूयमियेष सः।। | 2-13-3a 2-13-3b |
युधिष्ठिरस्ततः सर्वानर्चयित्वा सभासदः। प्रत्यर्चितश्च तैः सर्वैर्यज्ञायैव मनो दधे।। | 2-13-4a 2-13-4b |
स राजसूयं राजेन्द्र कुरूणामृषभस्तदा। आहर्तुं प्रवणं चक्रे मनः सञ्चिन्त्य चासकृत्।। | 2-13-5a 2-13-5b |
भूयश्चाद्भुतवीर्यौजा धर्ममेवानुचिन्तयन्। किं हितं सर्वलोकानां भवेदिति मनो दधे।। | 2-13-6a 2-13-6b |
अनुगृह्णन्प्रजाः सर्वाः सर्वधर्मभृतां वरः। अविशेषेण सर्वेषां हितं चक्रे युधिष्ठिरः।। | 2-13-7a 2-13-7b |
सर्वेषां दीयतां देयं मुष्णन्कोपमदावुभौ। साधु धर्मेति धर्मेति नान्यच्छ्रूयेत भाषितम्।। | 2-13-8a 2-13-8b |
एवं गते ततस्तस्मिन्पितरीवाश्वसञ्जनाः। न तस्य विद्यते द्रेष्टा ततोऽस्याजातशत्रुता।। | 2-13-9a 2-13-9b |
परिग्रहान्नरेन्द्रस्य भीमस्य परिपालनात्। शत्रूणां क्षपणाच्चैव बीभत्सोः सव्यसाचिनः।। | 2-13-10a 2-13-10b |
`बलीनां सम्यगुत्थानान्नकुलस्य यशस्विनः'। धीमतः सहदेवस्य धर्माणामनुशासनात्।। | 2-13-11a 2-13-11b |
वैनत्यात्सर्वतश्चैव नकुलस्य स्वभावतः। अविग्रहा वीतभयाः स्वकर्मनिरताः सदा।। | 2-13-12a 2-13-12b |
निकामवर्षाः स्फीताश्च आसञ्जनपदास्तथा। वार्धुषी यज्ञसत्वानि गोरक्षं कर्षणं वणिक् ।। | 2-13-13a 2-13-13b |
विशेषात्सर्वमेवैतत्सञ्जज्ञे राजकर्मणा। अनुकर्षं च निष्कर्षं व्याधिपावकमूर्छनम्।। | 2-13-14a 2-13-14b |
सर्वमेव न तत्रासीद्धर्मनित्ये युधिष्ठिरे। दस्युभ्यो वञ्चकेभ्यश्च राज्ञः प्रति परस्परम्।। | 2-13-15a 2-13-15b |
राजवल्लभतश्चैव नाश्रूयत मृषाकृतम्। प्रियं कर्तुमुपस्थातुं बलिकर्म स्वकर्मजम्।। | 2-13-16a 2-13-16b |
अभिहर्तुं नृपाः षट्सु पृथक्जात्यैश्च नैगमैः। ववृधे विषयस्तत्र धर्मनित्ये युधिष्ठिरे।। | 2-13-17a 2-13-17b |
कामतोऽप्युपयुञ्जानै राजसैर्लोभजैर्जनैः। सर्वव्यापी सर्वगुणी सर्वसाहः स सर्वराट्।। | 2-13-18a 2-13-18b |
यस्मिन्नधिकृतः सम्राड् भ्राजमानो महायशाः। यत्र राजन्दश दिशः पितृतो मातृतस्तथा। अनुरक्ताः प्रजा आसन्नागोपाला द्विजातयः ।। | 2-13-19a 2-13-19b 2-13-19c |
स मन्त्रिणः समानाय्य भ्रातृंश्च वदतां वरः। bराजसूयं प्रति तदा पुनः पुनरपृच्छत।। | 2-13-20a 43874 |
ते पृच्छ्यमानाः सहिता वचोऽर्थ्यं मन्त्रिणस्तदा। युधिष्ठिरं महाप्राज्ञं यियक्षुमिदमब्रुवन्।। | 2-13-21a 2-13-21b |
येनाभिषिक्तो नृपतिर्वारुणं गुणमृच्छति। तेन राजाऽपि तं कुत्स्नं सम्राड्गुणमभीप्सृति।। | 2-13-22a 2-13-22b |
तस्य सम्राड्गुणार्हस्य भवतः कुरुनन्दन। राजसूयस्य समयं मन्यन्ते सुहृदस्तव।। | 2-13-23a 2-13-23b |
तस्य यज्ञस्य समयः स्वाधीनः क्षत्रसम्पदा। साम्ना षडग्नयो यस्मिंश्चीयन्ते शंसितव्रतैः।। | 2-13-24a 2-13-24b |
दर्वीहोमानुपादाय सर्वान्यः प्राप्नुते क्रतून्। अभिषेकं च यज्ञान्ते सर्वजित्तेन चोच्यते।। | 2-13-25a 2-13-25b |
समर्थोऽसि महाबाहो सर्वे ते वशगा वयम्। अचिरात्त्वं महाराज राजसूयमवाप्स्यसि।। | 2-13-26a 2-13-26b |
अविचार्य महाराज राजसूये मनः कुरु। इत्येवं सुहृदः सर्वे पृथक्च सह चाब्रुवन्।। | 2-13-27a 2-13-27b |
स धर्म्यं पाण्डवस्तेषां वचः श्रुत्वा विशाम्पते। धृष्टमिष्टं वरिष्टं च जग्राह मनसाऽरिहा।। | 2-13-28a 2-13-28b |
श्रुत्वा सुहृद्वचस्तच्च जानंश्चाप्यात्मनः क्षमम्। `स प्रशस्तक्रियारम्भः परीक्षामुपचक्रमे।। | 2-13-29a 2-13-29b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-13-30x |
चतुर्भिर्भीमसेनाद्यैर्भ्रातृभिः सहितो हितम्। एवमुक्तस्तथा पार्थो धर्म एव मनो दधे।। | 2-13-30a 2-13-30b |
स राजसूयं राजेन्द्रः कुरूणामृषभः क्रतुम्। जगाम मनसा सद्य आहरिष्यन्युधिष्ठिरः।। | 2-13-31a 2-13-31b |
भूयस्त्वद्भुतवीर्योपि धर्ममेवानुपालयन् '। पुनः पुनर्मनो दध्रे राजसूयाय भारत।। | 2-13-32a 2-13-32b |
स भ्रातृभिः पुनर्धीमानृत्विग्निश्च महात्मभिः। मन्त्रिभिश्चापि सहितो धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 2-13-33a 2-13-33b |
धौम्यद्वैपायनाद्यैश्च मन्त्रयामास मन्त्रवित्। `विराटद्रुपदाभ्यां च सात्यकेन च धीमता।। | 2-13-34a 2-13-34b |
युधामन्यूत्तमौजोभ्यां सौभद्रेण च धीमता। | 2-13-35a 2-13-35b |
युधिष्ठिर उवाच'।। | 2-13-36x |
भवन्तो राजसूयस्य सम्राडर्हस्य सुक्रतोः। | 2-13-36a 2-13-36b |
वैशम्पायन उवाच। | 2-13-37x |
एवमुक्तास्तु ते तेन राज्ञा राजीवलोचन। | 2-13-37a 2-13-37b |
अर्हस्त्वमसि धर्मज्ञ राजसूयं महाक्रतुम्। | 2-13-38a 2-13-38b |
मन्त्रिणो भ्रातरश्चास्य तद्वचः प्रत्यपूजयन्। | 2-13-39a 2-13-39b |
भूयो विममृशे पार्थो लोकानां हितकाम्यया। | 2-13-40a 2-13-40b |
विमृश्य सम्यक् च धिया कुर्वन्प्राज्ञो न सीदति। | 2-13-41a 2-13-41b |
भवतीति समाज्ञाय यत्नतः कार्यमुद्वहन्। | 2-13-42a 2-13-42b |
सर्वलोकात्परं मत्वा जगाम मनसा हरिम्। | 2-13-43a 2-13-43b |
पाण्डवस्तर्कयामास कर्मभिर्देवसंमतैः। | 2-13-44a 2-13-44b |
न स किञ्चिन्न विषहेदिति कृष्णममन्यत। | 2-13-45a 2-13-45b |
गुरुवद्भूतगुरवे प्राहिणोद्दूतमञ्जसा। | 2-13-46a 2-13-46b |
द्वारकावासिनं कृष्णं द्वारवत्यां समासदत्। | 2-13-47a 2-13-47b |
दूत उवाच।। | 2-13-48x |
धर्मराजो हृषीकेश धौम्यव्यासादिभिः सह। पाञ्चालमात्स्यसहितैर्भ्रातृभिश्चैव सर्वशः।। | 2-13-48a 2-13-48b |
त्वद्दर्शनं महाबाहो काङ्क्षते स युधिष्ठिरः।। | 2-13-49a |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-13-50x |
इन्द्रसेनवचः श्रुत्वा यादवप्रवरो बली'। दर्शनाकाङ्क्षिणं पार्थं दर्शनाकाङ्क्षयाच्युतः।। | 2-13-50a 2-13-50b |
`आमन्त्र्य राजन्सुहृदो वसुदेवं च माधवः'। इन्द्रसेनेन सहित इन्द्रप्रस्थमगात्तदा। व्यतीत्य विविधान्देशांस्त्वरावान्क्षिप्रवाहनवः।। | 2-13-51a 2-13-51b 2-13-51c |
इन्द्रप्रस्थगतं पार्थमभ्यगच्छज्जनार्दनः। स गृहे पितृवद्धात्रा धर्मराजेन पूजितः।। | 2-13-52a 2-13-52b |
भीमेन च ततोऽपश्यत्स्वसारं प्रीतिमान्पितुः। प्रीतः प्रीतेन सुहृदा रेमे स सहितस्तदा।। | 2-13-53a 2-13-53b |
अर्जुनेन यमाभ्यां च गुरुवत्पर्युपासितः। तं विश्रान्तं शुभे देशे क्षणिनं कल्पमच्युतम्। धर्मराजः समागम्य ज्ञापयत्स्वप्रयोजनम्।। | 2-13-54a 2-13-54b 2-13-54c |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-13-55x |
प्रार्थितो राजसूयो मे न चासौ केवलेप्सया। प्राप्यते येन तत्ते हि विदितं कृष्ण सर्वशः।। | 2-13-55a 2-13-55b |
यस्मिन्सर्वं सम्भवति यश्च सर्वत्र पूज्यते। यश्च सर्वेश्वरो राजा राजसूयं स विन्दति।। | 2-13-56a 2-13-56b |
तं राजसूयं सुहृदः कार्यमाहुः समेत्य मे। तत्र मे निश्चिततमं तव कृष्ण गिरा भवेत्।। | 2-13-57a 2-13-57b |
केचिद्धि सौहृदा देवे न दोषं परिचक्षते। स्वार्थहेतोस्तथैवान्ये प्रियमेव वदन्त्युत।। | 2-13-58a 2-13-58b |
प्रियमेव परीप्सन्ते केचिदात्मनि यद्धितम्। एवम्प्रायाश्च दृश्यन्ते जनवादाः प्रयोजने।। | 2-13-59a 2-13-59b |
त्वं तु हेतूनतीत्यैतान्कामक्रोधौ व्युदस्य च। परमं यत्क्षमं लोके यथावद्वक्तुमर्हसि।। | 2-13-60a 2-13-60b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि मन्त्रपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः।। 13।। |
2-13-13 वार्धुषी वृद्ध्युपजीविका। यज्ञसत्वानि कतूना सामर्थ्यानि सद्यः पुष्कलफलप् रदत्वादिविषयाणि।।
2-13-14 अनुकर्ष दारिद्र्याद्राजकीयद्रव्यस्यातीतवर्षस्य ऋणत्वेन धारणम्। निष्कर्ष करार्थं प्रजापीडनम्। अवर्षणं चातिवर्षं इति क. पाठः। मूर्छनं वृद्धिः।। 2-13-17 नैगमैर्वणिग्भिः सह आसन्निति शेवः। इतरे नृपा विणिग्वद्येन करदीकृता इत्यर् थः। तत्र तस्मिन् विषयोदेशः।। 2-13-18 लोभजैर्विमोहोत्थैराजसरैर्वृत्तिविशेषैस्तृष्णादिभिस्तादृशैरपि ववृधे वृद्ध िमानभूत्।। 2-13-22 येन कारेण वारुणं गुणं वृद्धिं। तेन कारणेना।। 2-13-52 भ्रात्रा पितृष्वसृजेन।। 2-13-54 क्षणिनं सावसरम्। कल्पं समर्थम् ।।
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