महाभारतम्-02-सभापर्व-088
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सपत्नीभ्रातृकस्य युधिष्ठिरस्य शकुनिना पराजयः।। 1।।
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शकुनिरुवाच।। | 2-88-1x |
बहुवित्तं पराजैषीः पाण्डवानां युधिष्ठिर। आचक्ष्व वित्तं कौन्तेय यदि तेऽस्त्यपराजितम्।। | 2-88-1a 2-88-1b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-88-2x |
मम वित्तमसङ्ख्येयं यदहं वेद सौबल। अथ त्वं शकुने कस्माद्वित्तं समनुपृच्छसि।। | 2-88-2a 2-88-2b |
अयुतं प्रयुतं चैव शङ्कुं पद्मं तथार्बुदम्। खर्वं शङ्खं निखर्वं च महापद्मं च कोटयः।। | 2-88-3a 2-88-3b |
मध्यं चैव परार्धं च सपरं चात्र पण्यताम्। एतन्मम धनं राजंस्तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-88-4a 2-88-4b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-5x |
एतच्छुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-88-5a 2-88-5b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-88-6x |
गवाश्वं बहुधेनूकमसङ्ख्येयमजाविकम्। यत्किञ्चिदनु पर्णाशां प्राक् सिन्धोरपि सौबल। एतन्मम धनं सर्वं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-88-6a 2-88-6b 2-88-6c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-7x |
एतच्छुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-88-7a 2-88-7b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-88-8x |
पुरं जनपदो भूमिरब्राह्मणधनैः सह। अब्राह्मणाश्च पुरुषा राजञ्शिष्टं धनं मम। एतद्राजन्मम धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-88-8a 2-88-8b 2-88-8c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-9x |
एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-88-9a 2-88-9b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-88-10x |
राजपुत्रा इमे राजञ्छोमन्ते यैर्विभूषिताः। कुम्डलानि च निष्काश्च सर्वं राजविभूषणम्। एतन्मम धनं राजंस्तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-88-10a 2-88-10b 2-88-10c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-11x |
एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-88-11a 2-88-11b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-88-12x |
श्यामो युवा लोहिताक्षः सिंहस्कन्धो महाभुजः। नकुलो ग्लह एवैकी विद्ध्येतन्मम तद्धनम्।। | 2-88-12a 2-88-12b |
शकुनिरुवाच। | 2-88-13x |
प्रियस्ते नकुलो राजन्राजपुत्रो युधिष्ठिर। अस्माकं वशतां प्राप्तो भूयः केनेह दीव्यसे।। | 2-88-13a 2-88-13b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-14x |
एवमुक्त्वा तु तानक्षाञ्शकुनिः प्रत्यदीव्यत। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-88-14a 2-88-14b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-88-15x |
अयं धर्मान्सहदेवोऽनुशास्ति लोके ह्यस्मिन्पण्डिताख्यां गतश्च। अनर्हता राजपुत्रेण तेन दीव्याम्यहं चाप्रियवत्प्रियेण।। | 2-88-15a 2-88-15b 2-88-15c 2-88-15d |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-16x |
एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-88-16a 2-88-16b |
शकुनिरुवाच।। | 2-88-17x |
माद्रीपुत्रौ प्रियौ राजंस्तवेमौ विजितौ मया। गरीयांसौ तु मन्ये भीमसेनधनञ्जयौ।। | 2-88-17a 2-88-17b |
युधिष्ठिर उवाच। | 2-88-18x |
अधर्मं चरसे नूनं यो नावेक्षसि वै नयम्। यो नः सुमनसां मूढ विभेदं कर्तुमिच्छसि।। | 2-88-18a 2-88-18b |
शकुनिरुवाच।। | 2-88-19x |
गर्ते मत्तः प्रपतते प्रमत्तः स्थाणुमृच्छति। ज्येष्ठो राजन्व्ररिष्ठोऽसि नमस्ते भरतर्षभ।। | 2-88-19a 2-88-19b |
स्वप्ने तानि न दृश्यन्ते जाग्रतो वा युधिष्ठिर। कितवा यानि दीव्यन्तः प्रलपन्त्युत्कटा इव।। | 2-88-20a 2-88-20b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-88-21x |
यो नः सङ्ख्ये नौरिव पारनेता जेता रिपूणां राजपुत्रस्तरस्वी। अनर्हता लोकवीरेण तेन दीव्याम्यहं शकुने फाल्गुनेन।। | 2-88-21a 2-88-21b 2-88-21c 2-88-21d |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-22x |
एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-88-22a 2-88-22b |
शकुनिरुवाच। | 2-88-23x |
अयं मया पाण्डवानां धनिर्धरः पराजितः पाण्डवः सव्यसाची। भीमेन राजन्दयितेन दीव्य यत्कैतवं पाण्डव तेऽवशिष्टम्।। | 2-88-23a 2-88-23b 2-88-23c 2-88-23d |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-88-24x |
यो नो नेता यो युधि नः प्रणेता यथा वज्री दानवशत्रुरेकः। तिर्यक्प्रेक्षी सन्नतभ्रूर्महात्मा सिंहस्कन्धो यश्च सदाऽत्यमर्षी।। | 2-88-24a 2-88-24b 2-88-24c 2-88-24d |
बलेन तुल्यो यस्यप पुमान्न विद्यते गदाभृतामग्र्य इहारिमर्दनः। अनर्हता राजपुत्रेण तेन दीव्याम्यहं भीमसेनेन राजन्।। | 2-88-25a 2-88-25b 2-88-25c 2-88-25c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-26x |
एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-88-26a 2-88-26b |
शकुनिरुवाच। | 2-88-27x |
बहुवित्तं पराजैषीर्भ्रातॄंश्च सहयद्विपान्। आचक्ष्व वित्तं कौन्तेय यदि तेऽस्त्यपराजितम्।। | 2-88-27a 2-88-27b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-88-28x |
अहं विशिष्टः सर्वेषां भ्रातॄणां दयितस्तथा। कुर्यामहं जितः कर्म स्वयमात्मन्युपल्पुते।। | 2-88-28a 2-88-28b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-29x |
एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-88-29a 2-88-29b |
शकुनिरुवाच। | 2-88-30x |
एतत्पापिष्ठमकरोर्यदात्मानं पराजयेः। शिष्टे सति धने राजन्पाप आत्मपराजयः।। | 2-88-30a 2-88-30b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-31x |
एवमुक्त्वा मताक्षस्तान् ग्लहे सर्वानवस्थितान्। पराजयल्लोकवीरानुक्त्वा राज्ञां पृथक् पृथक्।। | 2-88-31a 2-88-31b |
शकुनिरुवाच।। | 2-88-32x |
अस्ति ते वै प्रिया राजन् ग्लह एकोऽपराजितः। पणस्व कृष्णां पाञ्चालीं तयात्मानं पुनर्जय।। | 2-88-32a 2-88-32b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-88-33x |
नैव ह्रस्वा न महती न कृशा नातिरोहिणी। नीलकुञ्चितकशी च तया दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-88-33a 2-88-33b |
शारदोत्पलपत्राक्ष्या शारदोत्पलगन्धया। शारदोत्पलसेविन्या रूपेण श्रीसमानया।। | 2-88-34a 2-88-34b |
तथैव स्यादानुशंस्यात्तथ स्याद्रूपसम्पदा। तथा स्याच्छीलसम्पत्त्या यामिच्छेत्पुरुषः स्त्रियम्।। | 2-88-35a 2-88-35b |
सर्वैर्गुणैर्हि सम्पन्नामनुकूलां प्रियंवदाम्। यादृशीं धर्मकामार्थसिद्धिमिच्छेन्नरः स्त्रियम्।। | 2-88-36a 2-88-36b |
चरमं संविशति या प्रथमं प्रतिबुध्यते। आगोपालाविपालेभ्यः सर्वं वेद कृताकृतम्।। | 2-88-37a 2-88-37b |
आभाति पद्मवद्वक्त्रं सस्वेदं मल्लिकेव च। वेदीमध्या दीर्घकेशी ताम्रास्या नातिलोमशा।। | 2-88-38a 2-88-38b |
तयैवंविधया राजन्पाञ्चाल्याहं सुमध्यमा। ग्लहं दीव्यामि चार्वङ्ग्या द्रौपद्या हन्त सौबल।। | 2-88-39a 2-88-39b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-88-40x |
एवमुक्ते तु वचने धर्मराजेन धीमता। धिग्धिगित्येव वृद्धानां सभ्यानां निः सृता गिरः।। | 2-88-40a 2-88-40b |
चुक्षुभे सा सभा राजन्राज्ञां सञ्जत्रिरे शुचः। भीष्मद्रोणकृपादीनां स्वेदश्च समजायत।। | 2-88-41a 2-88-41b |
शिरो गृहीत्वा विदुरो गतसत्व इवाभवत्। आस्ते ध्यायन्नधोवक्त्रो निः श्वसन्निव पन्नगः।। | 2-88-42a 2-88-42b |
`बाह्लीकः सोमदत्तश्च प्रातिपेयश्च सञ्जयः। द्रौणिर्भूरिश्रवाश्चैव युयुत्सुर्धृतराष्ट्रजः। आसुर्वीक्ष्य त्वधोवक्त्रा निश्वसन्त इवोरगाः'।। | 2-88-43a 2-88-43b 2-88-43c |
धृतराष्ट्रस्तु संहृष्टः पर्यपृच्छत्पुनः पुनः। किं जितं किं जितमिति ह्याकारं नाभ्यरक्षत।। | 2-88-44a 2-88-44b |
जहर्ष कर्णोऽतिभृशं सह दुःशासनादिभिः। इतरेषां तु सभ्यानां नेत्रेभ्यः प्रापतञ्जलम्।। | 2-88-45a 2-88-45b |
सौबलस्त्वभिघायैव जितकाशी मदोत्कटः। जितमित्येव तानक्षान्पुररेवान्वपद्यत।। | 2-88-46a 2-88-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि अष्टाशीतितमोऽध्यायः।।88।। |
2-88-6 पर्णाशा नदी।।
2-88-23 कैतव कितवेभ्य आहर्तव्यं धनम्।। 2-88-46 जितकाशी जयशोभी।।
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