महाभारतम्-02-सभापर्व-018
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राजानम्प्रति स्वस्वरूपमभिधाय जराया अन्तर्धानम्।। 1।।
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राक्षस्युवाच।। | 2-18-1x |
जरा नामास्मि भद्रं ते राक्षसी कामरूपिणी। तव वेश्मनि राजेन्द्र पूजिता न्यवसं सुखम्।। | 2-18-1a 2-18-1b |
गृहे गृहे मनुष्याणां नित्यं तिष्ठामि राक्षसी। गृहदेवीति नाम्ना वै पुरा सृष्टा स्वयंम्भुवा।। | 2-18-2a 2-18-2b |
दानवानां विनाशाय स्थापिता दिव्यरूपिणी। यो मां भक्त्या लिखेत्कुड्ये सपुत्रां यौवनान्विताम्।। | 2-18-3a 2-18-3b |
गृहे तस्य भवेद्वृद्धिरन्यथा क्षयमाप्नुयात्। त्वद्गृहे तिष्ठमानाऽहं पूजिताऽहं सदा विभो।। | 2-18-4a 2-18-4b |
लिखिता चैव कुड्येषु पुत्रैर्बहुभिरावृता। गन्धपुष्पैस्तथा धूपैर्भक्ष्यभोज्यैः सुपूजिता।। | 2-18-5a 2-18-5b |
साऽहं प्रत्युपकारार्थं चिन्तयन्त्यनिशं नृप। तवेमे पुत्रशकले दृष्टवत्यस्मि धार्मिका। | 2-18-6a 2-18-6b |
संश्लिषिते मया दैवात्कुमारः समपद्यत। तव भाग्यान्महाराज हेतुमात्रमहं त्विह।। | 2-18-7a 2-18-7b |
मेरुं वा खादितुं शक्ता किं पुनस्तव बालकम्। गृहसम्पूजनात्तुष्ट्या मया प्रत्यर्पितस्तव।। | 2-18-8a 2-18-8b |
मम नाम्ना च लोकेऽस्मिन्ख्यात एव भविष्यति। | 2-18-9a |
कृष्ण उवाच। | 2-18-9x |
एवमुक्त्वा तु सा राजंस्तत्रैवान्तरधीयत। स सङ्गृह्य कुमारं तं प्रविवेश गृहं नृपः।। | 2-18-9b 2-18-9c |
तस्य बालस्य यत्कृत्यं तच्चकार नृपस्तदा। आज्ञापयच्च राक्षस्या मगधेषु महोत्सवम्।। | 2-18-10a 2-18-10b |
तस्य नामाकरोच्चैव पितामहसमः पिता। जरया सन्धितो यस्माज्जरासन्धो भवत्वयम्।। | 2-18-11a 2-18-11b |
सोऽवर्धत महातेजा मागधाधिपतेः सुतः। प्रमाणबलसम्पन्नो हुताहुतिरिवानलः।। | 2-18-12a 2-18-12b |
`एवं स ववृधे राजन्कुमारः पुष्करेक्षणः। लेन महता चापि यौवनस्थो बभूव ह'।। मातापित्रोर्नन्दकरः शुक्लपक्षे यथा शशी।। | 2-18-13a 2-18-13b 2-18-13c |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि मन्त्रपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः।। 18।। |
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