महाभारतम्-02-सभापर्व-038
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आगतान्भीष्णादीन्समान्य तत्तदधिकारेषु तेषांतेषां नियमनम्।। 1।।
राजसूययागः।। 2।।
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वैशम्पायन उवाच।। | 2-38-1x |
पितामहं गुरुं चैव प्रत्युद्गम्य युधिष्ठिरः। अभिवाद्य ततो राजन्निदं वचनमब्रवीत्।। | 2-38-1a 2-38-1b |
भीष्मं द्रोणं कृपं द्रौणिं दुर्योधनविविंशती। अस्मिन्यज्ञे भवन्तो मामनुगृह्णन्तु सर्वशः।। | 2-38-2a 2-38-2b |
इदं वः सुमहच्चैव यदिहास्ति धनं मम। प्रणयन्तु भवन्तो मां यथेष्टमभिमन्त्रितः।। | 2-38-3a 2-38-3b |
एवमुक्त्वा स तान्सर्वान्दीक्षितः पाण्डवाग्रजः। युयोज स यथायोगमधिकारेष्वनन्तरम्।। | 2-38-4a 2-38-4b |
`पङ्क्त्यारोपणकार्ये च उच्छिष्टापनये पुनः। भोजनावेक्षणे चैव युयुत्सुं समयोजयत्'।। | 2-38-5a 2-38-5b |
भक्ष्यभोज्याधिकारेषु दुःशासनमयोजयत्। परिग्रहे ब्राह्मणानामश्वत्थामानमुक्तवान्। | 2-38-6a 2-38-6b |
राज्ञां तु प्रतिपूजार्थं सञ्जयं न्ययोजयत्। कृताकृतपरिज्ञाने भीष्णद्रोणौ महामती।। | 2-38-7a 2-38-7b |
हिरण्यस्य सुवर्णस्य रत्नानां चान्ववेक्षणे। दक्षिणानां च वै दाने कृपं राजा न्ययोजयत्।। | 2-38-8a 2-38-8b |
तथाऽऽन्यान्पुरुषव्याघ्रांस्तस्मिंस्तस्मिन्न्ययोजयत्। बाह्लिको धृतराष्ट्रश्च सोमदत्तो जयद्रथः। नकुलेन समानीताः स्वामिवत्तत्र रेमिरे।। | 2-38-9a 2-38-9b 2-38-9c |
क्षत्ता व्ययकरस्त्वासीद्विदुरः सर्वधर्मवित्। दुर्योधनस्त्वर्हणानि प्रतिजग्राह सर्वशः।। | 2-38-10a 2-38-10b |
`कुन्ती साध्वी च गान्धारी स्त्रीणां कुर्वन्ति चार्चनम्।। अन्याः सर्वाः स्नुषास्तासां सन्देशं यान्तु माचिरम्। तिष्ठेत्कृष्णान्तिके सोयमर्जुनः कार्यसिद्धये'।। | 2-38-11a 2-38-11b 2-38-11c |
चरणक्षालने कृष्णो ब्राह्मणानां स्वयं ह्यभूत्। सर्वलोकसमावृत्तः पिप्रीषुः फलमुत्तमम्।। | 2-38-12a 2-38-12b |
द्रष्टुकामः सभां चैव धर्मराजं यधिष्ठिरम्। न कश्चिदाहरत्तत्र सहस्रावरमर्हणम्।। | 2-38-13a 2-38-13b |
रत्नैश्च बहुभिस्तत्र धर्मराजमवर्धयत्। कथं तु मम कौरव्यो रत्नदानैः समाप्नुयात्।। | 2-38-14a 2-38-14b |
यज्ञमित्येव राजानः स्पर्धमाना ददुर्धनम्। भवनैः सविमानाग्रैः सोदर्कैर्बलसंवृतैः।। | 2-38-15a 2-38-15b |
लोकराजविमानैश्च ब्राह्मणावसथैः सह। कृतैरावसथैर्दिव्यैर्विमानप्रतिमैस्तथा।। | 2-38-16a 2-38-16b |
विचित्रै रत्ववद्भिश्च ऋद्ध्या परमया युतैः। राजभिश्च समावृत्तैरतीव श्रीसमृद्धिभिः। अशोभत सदो राजन्कौन्तेयस्य महात्मनः।। | 2-38-17a 2-38-17b 2-38-17c |
ऋद्ध्या तु वरुणं देवं स्पर्धमानो युधिष्ठिरः। षडग्निनाथ यज्ञेन सोऽयजद्दक्षिणावता।। | 2-38-18a 2-38-18b |
सर्वाञ्जनान्सर्वकामैः समृद्धैः समतर्पयत्। अन्नवान्बहुभक्ष्यश्च भुक्तवज्जनसंवृतः। रत्नोपहारसम्पन्नो बभूव स समागमः।। | 2-38-19a 2-38-19b 2-38-19c |
इडाज्यहोमाहुतिभिर्मन्त्रशिक्षाविशारदैः। तस्मिन्हि ततृपुर्देवास्तते यज्ञे महर्षिभिः।। | 2-38-20a 2-38-20b |
यथा देवास्तथा विप्रा दक्षिणान्नमहाधनैः। ततृपुः सर्ववर्णाश्च तस्मिन्यज्ञे मुदाऽन्विताः।। | 2-38-21a 2-38-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि दिग्विजयपर्वणि अष्टत्रिंशोऽध्यायः।। 38 ।। | |
।। समाप्तं च राजसूयपर्व।। |
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