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द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-050
वेदव्यासः
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श्रीविष्णोर्दशरथगृहे रामत्वेनावतारः।। 1।। विश्वामित्रेण स्वाश्रमं नीतेन सलक्ष्मणेन रामेण सुबाह्वादिहननम्।। 2।। सीतामुदूह्य निजनगरमेत्य पितृनिदेशेन सीतालक्ष्मणाभ्यां सह वनं गतेन रामेण स्वरदूषणादिहननम्।। 3।। सीतावियोगिनः सुग्रीवेण सख्यमेत्य वालिनं संहृतवतो रामस्य हनुमद्वचनेन लङ्क ागमनम्।। 4।। रावणादीन्निहत्य सीताप्रमुखैः सहायोध्यां गतेन रामेण लवणासुरं शत्रुघ्नेन घ ातयित्वा प्रजापालनम्।। 5।। सङ्ग्रहेण श्रीकृष्णचरित्रनिरूपणं कल्क्यवतारकथनं च।। 6।।

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शृणु राजंस्ततो विष्णोः प्रादुर्भावं महात्मनः।
अष्टाविंशे युगे चापि मार्कण्डेयपुरः सरः।।
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2-50-1b
तिथौ नावमिके जज्ञे तथा दशरथादपि।
कृत्वाऽऽत्मानं महाबाहुश्चतुर्धा विष्णुरव्ययः।।
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लोके राम इति ख्यातस्तेजसा भास्करोपमः।
प्रसादनार्थं लोकस्य विष्णुस्तत्र सनातनः।।
2-50-3a
2-50-3b
धर्मार्थमेव कौन्तेय जज्ञे तत्र महायशाः।
तमप्याहुर्मनुष्येन्द्रं सर्वभूतपतेस्तनुम्।।
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2-50-4b
यज्ञविघ्नकरस्तत्र विश्वामित्रस्य भारत।
सुबाहुर्निहतस्तेन मारीचस्ताडितो भृशम्।।
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2-50-5b
तस्मै दत्तानि चास्राणि विश्वमित्रेण धीमता।
वधार्थं सर्वशत्रूणां दुर्वाराणि सुरैरपि।।
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वर्तमाने महायज्ञे जनकस्य महात्मनः।
भग्नं माहेश्वरं चापं क्रीडता लीलया भृशम्।।
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2-50-7b
ततस्तु सीतां जग्राह भार्यार्थे जानकीं विभुः।
नगरीं पुनरासाद्य मुमुदे तत्र सीतया।।
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2-50-8b
कस्यचित्त्वथ कालस्य पित्रा तत्राभिचोदितः।
कैकेय्याः प्रियमन्विच्छन्वनमभ्यवपद्यत।।
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2-50-9b
यः समाः सर्वधर्मज्ञश्चतुर्दश वने वसन।
लक्ष्मणानुचरो रामः सर्वभूतहिते रतः।।
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2-50-10b
चतुर्दश वने तीर्त्वा तदा वर्षाणि भारत।
रूपिणी यस्य पार्श्वस्था सीतेत्यभिहिता जनैः।।
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2-50-11b
पूर्वोचितत्वात्सा लक्ष्मीर्भर्तारमनुशोचति।
जनस्थाने वसन्कार्यं त्रिदशानां चकार सः।।
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2-50-12b
मारीचं दूषणं हुत्वा खरं त्रिशिरसं तथा।
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां घोरकर्मणाम्।।
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2-50-13b
जघान रामो धर्मात्मा प्रजानां हितकाम्यय।
विराधं च कबन्धं च राक्षसौ घोरकर्मिणौ।।
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2-50-14b
जघान च तदा रामो गन्धर्वौ शाषविक्षतौ।
स रावणस्य भगिनीनासाच्छेदमकारयत्।।
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2-50-15b
भार्यावियोगं तं प्राप्य मृगयन्व्यचरद्वनम्।
स तस्मादृश्यमूकं तु गत्वा पम्पामतीत्य च।।
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2-50-16b
सुग्रीवं मारुतिं दृष्ट्वा चक्रे मैत्रीं तयोः स वै।
अथ गत्वा स किष्किन्धां सुग्रीवेण तदा सह।।
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2-50-17b
निहत्य वालिनं युद्धे वानरेद्रं महाबलम्।
अभ्यपिञ्चत्तदा रामः सुग्रीवं वानरेश्वरम्।।
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2-50-18b
ततः स वीर्यवान्राजंस्त्वरया वै समुत्सुकः।
विचित्य वायुपुत्रेण लङ्कादेशं निवेदितः।।
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2-50-19b
मेतुं वद्ध्वा समुद्रस्य वानरैः स समुत्सुकः।
सीतायाः पदमन्विच्छन्रामो लङ्कां विवेश वै।।
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2-50-20b
देवोरगगणानां हि यक्षराक्षसपक्षिणाम्।
तत्रावद्यं राक्षसेन्द्रं रावणं युधि दुर्जयम्।।
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2-50-21b
युक्तं राक्षसकोटीभिर्भिन्नाञ्जनचयोपमम्।
दुर्निरीक्ष्यं सुरगणैर्वरदानेन दर्पितम्।।
2-50-22a
2-50-22b
जघान सचिवैः सार्धं सान्वयं रावणं रणे।। 2-50-23a
त्रैलोक्यकण्टकं वीरं महाकायं महाबलम्।
रावमं सगणं हत्वा रामो भूतपतिः पुरा।।
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2-50-24b
लङ्कायां तं महात्मानं राक्षसेन्द्रं विभीषणम्।
अभिषिच्य ततो राम अमरत्वं ददौ तदा।।
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2-50-25b
आरुह्य पुष्पकं रामः सीतामादाय पाण्डव।
सबलं स्वपुरं गत्वा धर्मराज्यमपालयत्।।
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2-50-26b
दानवो लवणो नाम मधोः पुत्रो महाबलः।
शत्रुघ्नेन हतो राजंस्तदा रामस्य शासनात्।।
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2-50-27b
एवं बहूनि कर्माणि कृत्वा लोकहिताय सः।
राजं चकार विधिवद्रामो धर्मभृतां वरः।।
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2-50-28b
शताश्वमेधानाजह्रे ज्योतिरुक्थ्यान्निरर्गलान्।
नाश्रूयन्ताशुभा वाचो नात्ययः प्राणिनां तदा।
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2-50-29b
न दस्युजं भयं चासीद्रामे राज्यं प्रशसति।
ऋषीणां देवतानां च मनुष्याणां तथैव च।।
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2-50-30b
पृथिव्यां धार्मिकाः सर्वे रामे राज्यं प्रशासति।
नाधर्मिष्ठो नरः कश्चिद्बभूव प्राणिनां क्वचित्।।
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प्राणापानौ समौ ह्यास्तां रामे राज्यं प्रशासति।
गाधामप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः।।
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श्यामो युवा लोहिताक्षो मातङ्गानामिवर्षभः।
आजानुबाहुः सुमुखः सिंहस्कन्धो महाबलः।।
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दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च।
राज्यं भोगं च सम्प्राप्य शशास पृथिवीमिमाम्।।
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2-50-34b
रामो रामो राम इति प्राजानामभवन्कथाः।
रामभूतं जगदिदं रामे राज्यं प्रशासति।।
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ऋग्यजुः सामहीनाश्च न तदाऽसन्द्विजायः।
उषित्वा दण्डके कार्यं त्रिदशानां चकार सः।।
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पूर्वापकारिणं तं तु पौलस्त्यं मनुजर्षभम्।
देवगन्धर्वनागानामरिं स निजघानह।।
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सत्ववान्गुणसम्पन्नो दीप्यमानः स्वतेजसा।
एवमेव महाबाहुरिक्ष्वाकुकुलवर्धनः।।
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रावणं सगणं हत्वा दिवमाक्रमताभिभूः।
ति दाशरथेः ख्यातः प्रादुर्भावो महात्मनः।।
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ततः कृष्णो महाबाहुर्भीतानामभयङ्करः।
अष्टाविंशे युगे राजञ्जज्ञे श्रीवत्सलक्षणः।।
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पेशलश्च वदान्यश्चलोके बहुमतो नृषु।
स्मृतिमान्देशकालज्ञः शङ्खचक्रगदासिभृत्।।
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वासुदेव इति ख्यातो लोकानां हितकृत्सदा।
वृष्णीनां च कुले जातो भूमेः प्रियचिकीर्षया।।
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शत्रूणां भयकृद्दाता मधुहेति स विश्रुतः।
शकटार्जुनरामाणां कीलस्थानान्यसूदयत्।।
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कंसादीन्निजघानाजौ दैत्यान्मानुषविग्रहान्।
अयं लोकहितार्थाय प्रादुर्भावो महात्मनः।।
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कल्की विष्णुयशा नाम भूयश्चोत्पत्स्यते हरिः।
लेर्युगान्ते सम्प्राप्ते धर्मे शिथिलतां गते।।
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पाषण्डिनां गणानां हि वधार्थं भरतर्षभ।
धर्मस्य च विवृद्ध्यर्थं विप्राणां हितकाम्यया।।
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एते चान्ये च बहवो विष्णोर्देवगणैर्युताः।
प्रादुर्भावाः पुराणेषु गीयन्ते ब्रह्मवादिभिः।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
अर्घाहरणपर्वणि पञ्चाशोऽध्यायः।। 50।।
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