महाभारतम्-02-सभापर्व-101
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पाण्डवानां वनप्रस्थानेन खिद्यतां पौराणां वचनानि।। 1।।
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वैशम्पायन उवाच।। | 2-101-1x |
ततः सम्प्रस्थिते तत्र धर्मराजे तदा नृप। जनाः समन्ताद्द्रष्टुं तं समारुरुहुरातुराः।। | 2-101-1a 2-101-1b |
ततः प्रासादवर्याणि विमानशिखराणि च। गोपुराणि च सर्वाणि वृक्षानन्यांश्च सर्वशः।। | 2-101-2a 2-101-2b |
अथाधिरुह्य सस्त्रीका उदासीना व्यलोकयन्। न हि रथ्यास्तदा शक्या गन्तुं ताश्च जनाकुलाः।। | 2-101-3a 2-101-3b |
आरुह्य स्मानतास्तत्र दीनाः पश्यन्ति पाण्डवान्। पदातिं वर्जितच्छत्रं चेलभूषणवर्जितम्।। | 2-101-4a 2-101-4b |
वल्कलाजिनसंवीतं पार्थं दृष्ट्वा जनास्तदा। ऊचुर्बहुविधा वाचो भृशोपहतचेतसः।। | 2-101-5a 2-101-5b |
जना ऊचुः। | 2-101-6x |
यं यान्तमनुयाति स्म चतुरङ्गबलं महत्। तमेकं कृष्णया सार्धमनुगच्छन्ति पाण्डवाः।। | 2-101-6a 2-101-6b |
चत्वारो भ्रातरश्चैव धौम्यश्चैव पुरोहितः। भीमार्जुनौ वारयित्वा निकृत्या बद्धकार्मुकौ।। | 2-101-7a 2-101-7b |
धर्म एवास्थितो येन त्यक्त्वा राज्यं महात्मना। या न शक्या पुरा द्रष्टुं भूतैराकाशगैरपि।। | 2-101-8a 2-101-8b |
तामद्य कृष्णां पश्यन्ति राजमार्गगता जनाः। अङ्गरागोचितां कृष्णां रक्तचन्दनसेविनीम्।। | 2-101-9a 2-101-9b |
वर्षमुष्णं च शीतं च नेष्यत्याशु विवर्णताम्। अद्य नूनं पृथा देवी सत्यमाविश्य भाषते।। | 2-101-10a 2-101-10b |
पुत्रान्स्नुषां च देवी तु द्रष्टुमद्याथ नार्हति। निर्गुणस्यापि पुत्रस्य कथं स्याहुः स्वदर्शनम्।। | 2-101-11a 2-101-11b |
किम्पुनर्यस्य लोकोऽयं जितो वृत्तेन केवलम्। आनृशंस्यमनुक्रोशो धृतिः शीलं दमः शमः।। | 2-101-12a 2-101-12b |
पाण्डवं शोभयन्त्येते षड्गुणाः पुरुषोत्तमम्। तस्मादस्योपघातेन प्रजाः परमपीडिताः।। | 2-101-13a 2-101-13b |
औदकानीव सत्वानि ग्रीष्मे सलिलसङ्क्षयात्। पीडया पीडितं सर्वं जगदस्य जगत्पतेः।। | 2-101-14a 2-101-14b |
मूलस्यैवोपघातेन वृक्षः पुष्पफलोपगः। मूलं ह्येष मनुष्याणां धर्मराजो महाद्युतिः।। | 2-101-15a 2-101-15b |
पुष्पं फलं च पत्रं च शाखास्तस्येतरे जनाः। ते भ्रातर इव क्षिप्रं सपुत्राः सहबान्धवाः।। | 2-101-16a 2-101-16b |
गच्छन्तमनुगच्छामो येन गच्छति पाण्डवः। उद्यानानि परित्यज्य क्षेत्राणि च गृहाणि च।। | 2-101-17a 2-101-17b |
एकदुःखसुखाः पार्थमनुयाम सुधार्मिकम्। समुच्छ्रितपताकानि परिध्वस्ताजिराणि च।। | 2-101-18a 2-101-18b |
उपात्तधनधान्यानि हृतसाराणि सर्वशः। रजसाऽप्यवकीर्णानि परित्यक्तानि दैवतैः।। | 2-101-19a 2-101-19b |
मूषकैः परिधावद्भिरुद्बलैरावृतानि च। अपेतोदकधूमानि हीनसंमार्जनानि च।। | 2-101-20a 2-101-20b |
प्रनष्टबलिकर्मेज्यामन्त्रहोमजपानि च। दुष्कालेनेव भग्नानि भिन्नभाजनवन्ति च।। | 2-101-21a 2-101-21b |
अस्मत्त्यक्तानि वेश्मानि सौबलः प्रतिपद्यताम्। वनं नगरमेवास्तु येन गच्छन्ति पाण्डवाः।। | 2-101-22a 2-101-22b |
अस्माभिश्च परित्यक्तं पुरं सम्पद्यतां वनम्। बिलानि दंष्ट्रिणः सर्वे वानि मृगपक्षिणः।। | 2-101-23a 2-101-23b |
त्यजन्त्वस्मद्भयाद्भीता गजाः सिंहा वनान्यपि। अनाक्रान्तं प्रपद्यन्तः सेवमानं त्यजन्तु च।। | 2-101-24a 2-101-24b |
तृणमांसफलादानां देशांस्त्यक्त्वा मृगद्विजाः। वयं पार्थैर्वने सम्यक्सह वत्स्याम निर्वृताः।। | 2-101-25a 2-101-25b |
इत्येवं विविधा वाचो नानाजनसमीरिताः। शुश्राव पार्थः श्रुत्वा च न विचक्रेऽस्य मानसम्।। | 2-101-26a 2-101-26b |
ततः प्रासादसंस्थास्तु समन्ताद्वै गृहे गृहे। ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां चैव योषितः।। | 2-101-27a 2-101-27b |
गत्वा स्वगृहजालानि उत्पाट्यावरणानि च। ददृशुः पाण्डवान्दीनान्वल्कलाजिनवाससः।। | 2-101-28a 2-101-28b |
कृष्णां त्वदृष्टपूर्वां तां व्रजन्तीं पद्भिरेव च। एकवस्त्रां रुदन्तीं तां मुक्तकेशीं रजस्वलाम्।। | 2-101-29a 2-101-29b |
दृष्ट्वा तदा स्त्रियः सर्वा विवर्णवदना भृशम्। विलप्य बहुधा मोहाद्दुःखशोकेन पीडिताः। हाहा धिग्धिग्धिगित्युक्त्वा नेत्रैरश्रूण्यवर्तयन्।। | 2-101-30a 2-101-30b 2-101-30c |
जनस्याथ वजः श्रुत्वा स राजा भ्रातृभिः सह। उद्दिश्य वनावासाय प्रतस्थे कृतनिश्चयः।। | 2-101-31a 2-101-31b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-101-32x |
तस्मिन्सम्प्रस्थिते कृष्णा पृथां प्राप्य यशस्विनीम्। अपृच्छद्भृशदुःखार्ता याश्चान्यास्तत्र योषितः।। | 2-101-32a 2-101-32b |
ततो निनादः सुमहान्पाण्डवान्तः पुरेऽभवत्।। | 2-101-33a |
कुन्ती च भृशशन्तप्ता द्रौपदीं प्रेक्ष्य गच्छतीम्। शोकविह्वलया वाचा कृच्छ्राद्वचनमब्रवीत्।। | 2-101-34a 2-101-34b |
वत्से शोको न ते कार्यः प्राप्येदं व्यसनं महत्। स्त्रीधर्माणामभिज्ञाऽसि शीलाचारवती तथा।। | 2-101-35a 2-101-35b |
न त्वां शन्देष्टुमर्हामि भर्तॄन्प्रति शुचिस्मिते। साध्वी गुणसमापन्ना भूषितं ते कुलद्वयम्।। | 2-101-36a 2-101-36b |
सभाग्याः कुरवश्चेमे ये न दग्धास्त्वयाऽनघे। अरिष्टं व्रज पन्थानं मदनुध्यानबृंहिता।। | 2-101-37a 2-101-37b |
भाविन्यर्थे हि सत्स्त्रीणां वैकृतं नोपजायते। गुरुधर्माभिगुप्ता च श्रेयः क्षिप्रमवप्स्यसि।। | 2-101-38a 2-101-38b |
सहदेवश्च मे पुत्रः सदाऽवेक्ष्यो वने वसन्। यथेदं व्यसनं प्राप्य नायं सीदेन्महामतिः।। | 2-101-39a 2-101-39b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-101-40x |
तथेन्युक्त्वा तु सा देवी स्रवन्नेत्रजलाविला। शोणिताक्तैकवसना मुक्तकेशी विनिर्ययौ।। | 2-101-40a 2-101-40b |
तां क्रोशन्तीं पृथा दुःखादनुवव्राज गच्छतीम्। अथापश्यन्सुतान्सर्वान्हृताभरणवाससः।। | 2-101-41a 2-101-41b |
रुरुचर्मावृततनून्ह्रिया किञ्चिदवाह्मुखान्। परैः परीतान्संहृष्टैः सुहृद्भिश्चानुशोचितान्।। | 2-101-42a 2-101-42b |
तदवस्थान्सुतान्सर्वानुपसृत्यातिवत्सला। स्वजमानाऽवदच्छेकात्तत्तद्विलपती बहु।। | 2-101-43a 2-101-43b |
कुन्त्युवाच। | 2-101-44x |
कथं सद्धर्मचारित्रान्वृत्तस्थितिविभूषितान्। अक्षुद्रान्दृढभक्तांश्च दैवतेज्यापरान्सदा।। | 2-101-44a 2-101-44b |
व्यसनं वः समभ्यागात्कोऽयं विधिविपर्ययः। कस्यापध्यानजं चेदमागः पश्यामि वो धिया।। | 2-101-45a 2-101-45b |
स्यात्तु मद्भाग्यदोषोऽयं याऽहं युष्मानजीजनम्। दुःखायासभुजोऽत्यर्थं युक्तानप्युत्तमैर्गुणैः।। | 2-101-46a 2-101-46b |
कथं वत्स्यथ दुर्गेषु वने ऋद्धिविनाकृताः। वीर्यसत्वबलोत्साहतेजोभिरकृशाः कृशाः।। | 2-101-47a 2-101-47b |
यद्येवमहमज्ञास्यं वने वासं हि वो ध्रुवम्। शतशृङ्गान्मृते पाण्डौ नागमिष्यं गजाह्वयम्।। | 2-101-48a 2-101-48b |
धन्यं वः पितरं मन्ये तपोमेधान्वितं तथा। यः पुत्राधिमसम्प्राप्य स्वर्गेच्छामकरोत्प्रियाम्।। | 2-101-49a 2-101-49b |
धन्यां चातीन्द्रियज्ञानामिमां प्राप्तां परां गतिम्। मन्ये तु माद्रीं धर्मज्ञां कल्याणीं सर्वथैव तु।। | 2-101-50a 2-101-50b |
रत्या मत्या च गत्या च ययाऽहमभिसन्धिता। जीवितप्रियतां मह्यं धिङ्मां सङ्क्लेशभागिनीम्।। | 2-101-51a 2-101-51b |
पुत्रका न विहास्ये वः कृच्छ्रलब्धान्प्रियान्सतः। साऽहं यास्यामि हि वनं हा कृष्णे किं जहासि माम्। | 2-101-52a 2-101-52b |
अन्तवत्यसुधर्मेऽस्मिन्धात्रा किं नु प्रमादतः। ममान्तो नैव विहितस्तेनायुर्न जहाति माम्।। | 2-101-53a 2-101-53b |
हा कृष्ण द्वारकावासिन्क्वासि सङ्कर्षणानुज। कस्मान्न त्रायसे दुःखान्मां चेमांश्च नरोत्तमान्।। | 2-101-54a 2-101-54b |
अनादिनिधनं ये त्वामनुध्यायन्ति वै नराः। तांस्त्वं पासीत्ययं वादः स गतो व्यर्थतां कथम्।। | 2-101-55a 2-101-55b |
इमे सद्धर्ममाहात्म्ययशोवीर्यानुवर्तिनः। नार्हन्ति व्यसनं भोक्तुं नन्वेषां क्रियतां दया।। | 2-101-56a 2-101-56b |
सेयं नीत्यर्थविज्ञेषु कथमापदुपागता।। स्थितेषु कुलनाथेषु कथमापदुपागता।। | 2-101-57a 2-101-57b |
हा पाण्डो हा महाराज क्वासि किं समुपेक्षसे। पुत्रान्विवास्यतः साधूनरिभिर्द्यूतनिर्जितान्।। | 2-101-58a 2-101-58b |
सहदेव निवर्तस्व ननु त्वमसि मे प्रियः। शरीरादपि माद्रेय मां मा त्याक्षीः कुपुत्रवत्।। | 2-101-59a 2-101-59b |
व्रजन्तु ब्रातरस्तेऽमी यदि सत्याभिसन्धिनः। मत्परित्राणजं धर्ममिहैव त्वमवाप्नुहि।। | 2-101-60a 2-101-60b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-101-61x |
एवं विपलतीं कुन्तीमभिवाद्य प्रणम्य च। पाण्डवा विगतानन्दा वनायैव प्रवव्रजुः।। | 2-101-61a 2-101-61b |
विदुरश्चापि तामार्तां कुन्तीमाश्वास्य हेतुभिः। प्रावेशयद्गृहं क्षत्ता स्वयमार्ततरः शनैः।। | 2-101-62a 2-101-62b |
धार्तराष्ट्रस्त्रिस्ताश्च निखिलेनोपलभ्य तत्। गमनं परिकर्षं च कृष्णाया द्यूतमण्डले।। | 2-101-63a 2-101-63b |
रुरुदुः सुस्वनं सर्वा विनिन्दन्त्यः कुरून्भृशम्। दध्युश्च सुचिरं कालं करासक्तमुखाम्बुजाः।। | 2-101-64a 2-101-64b |
राजा च धृतराष्ट्रस्तु पुत्राणामनयं तदा। ध्यायन्नुद्विग्नहृदयो न शान्तिमधिजग्मिवान्।। | 2-101-65a 2-101-65b |
स चिन्तयन्ननेकाग्रः शोकव्याकुलचेतनः। क्षत्तुः सम्प्रेषयामास शीघ्रमागम्यतामिति।। | 2-101-66a 2-101-66b |
ततो जगाम विदुरो धृतराष्ट्रनिवेशनम्। तं पर्यपृच्छत्संविग्नो धृतराष्ट्रो जनाधिपः।। | 2-101-67a 2-101-67b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि अनुद्यूतपर्वणि एकोत्तरशततमोऽध्यायः।। 101।। |
2-101-40 शोणिताक्तैकवसना रजस्वला।।
2-101-51 मह्यं मम ।। 2-101-53 असुधर्मे प्राणधारणे। अन्तवति विनाशवति।।
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