महाभारतम्-02-सभापर्व-045
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वराहावतारकथनम्।। 1।।
भीष्म उवाच।। | 2-45-1x |
प्रादुर्भावसहस्राणि समतीतान्यनेकशः। यथाशक्ति तु वक्ष्यामि शृणु तान्कुरुनन्दन।। | 2-45-1a 2-45-1b |
पुरा कमलनाभस्य स्वपतः सागराम्भसि। पुष्करे यत्र सम्भूता देवा ऋषिगणैः सह।। | 2-45-2a 2-45-2b |
एष पौष्करिको नाम प्रादुर्भावः प्रकीर्तितः। पुराणैः कथ्यते यत्र वेदश्रुतिसमाहितः।। | 2-45-3a 2-45-3b |
वाराहस्तु श्रुतिसुखः प्रादुर्भावो महात्मनः। यत्र विष्णुः सुरश्रेष्ठो वाराहं रूपमास्थितः।। | 2-45-4a 2-45-4b |
उज्जहार महीं तोयात्सशैलवनकाननाम्। वेदपादो यूपदंष्ट्रः क्रतुर्दन्तश्चितीमुखः।। | 2-45-5a 2-45-5b |
अग्निजिह्वो दर्भरोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः। अहोरात्रेक्षणो दिव्यो वेदाङ्गः श्रुतिभूषणः।। | 2-45-6a 2-45-6b |
आज्यनासः स्रुवं तुण्डं सामघोषस्वनो महान्। धर्मसत्यमयः श्रीमान्कर्मविक्रमसत्कृतः।। | 2-45-7a 2-45-7b |
प्रायश्चित्तमुखो धीरः पशुजानुर्महावृषः। औद्गात्रहोमलिङ्गोऽसौ पशुबीजमहौषधिः।। | 2-45-8a 2-45-8b |
बाह्यन्तरात्मा मन्त्रास्थिविकृतः सौम्यदर्शनः। वेदिस्कन्धो हविर्गन्धो हव्यकव्याभिवेगवान्।। | 2-45-9a 2-45-9b |
प्राग्वंशकायो द्युतिमान्नानादीक्षाभिरूर्जितः। दक्षिणाहृदयो योगी महाशास्त्रमयो महान्।। | 2-45-10a 2-45-10b |
उपाकर्मोष्ठरुचकः प्रावर्ग्यावर्तभूषणः। शालापत्नीसहायो वै मणिशृङ्गसमुच्छ्रितः।। | 2-45-11a 2-45-11b |
एवं यज्ञवराहो वै भूत्वा विष्णुः सनातनः। महीं सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम्।। | 2-45-12a 2-45-12b |
कार्णवजले भ्रष्टामेकार्णवगतः प्रभुः। मज्जन्तीं सलिले तस्मिन्स्वदेवीं पृथिवीं तदा।। | 2-45-13a 2-45-13b |
उज्जहार विषाणेन मार्गण्डेयस्य पश्यतः। शृङ्गेण यः समुद्धृत्य लोकानां हितकाम्यया।। | 2-45-14a 2-45-14b |
सहस्रशीर्षो देवेशो निर्ममे जगतीं प्रभुः। एवं यज्ञवराहेण भूतभव्यभवात्मना।। | 2-45-15a 2-45-15b |
उद्धृता पृथिवी देवी पूज्या वै सागराम्बरा। निहता दानवाः सर्वे देवदेवेन विष्णुना।। | 2-45-16a 2-45-16b |
वाराहः कथितो ह्येष नारसिंहमतो शृणु। यत्र भूत्वा मृगेन्द्रेण हिरण्यकशिपुर्हतः।। | 2-45-17a 2-45-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि अर्घाहरणपर्वणि पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।। 45 ।। |
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