महाभारतम्-02-सभापर्व-085
← सभापर्व-084 | महाभारतम् द्वितीयपर्व महाभारतम्-02-सभापर्व-085 वेदव्यासः |
सभापर्व-086 → |
भीष्मद्रोणादीनां द्यूतसभाप्रवेशः।। 1।। द्यूतीपक्रमः।। 2।। युधिष्ठिरेण पणीकृतानां सर्ववस्तूनां शकुनिना अपहारः।। 3।।
|
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-1x |
उपोह्यमाने द्यूते तु राजानः सर्व एव ते। धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य विविशुस्तां सभां ततः।। | 2-85-1a 2-85-1b |
भीष्मो द्रोणः कृपश्चैव विदुरश्च महामतिः। नातिप्रीतेन मनसा तेऽन्ववर्तन्त भारत।। | 2-85-2a 2-85-2b |
ते द्वन्द्वशः पृथच्कैव सिंहग्रीवा महौजसः। सिंहासनानि भूरिणी विचित्राणि च भेजिरे।। | 2-85-3a 2-85-3b |
शुशुभे सा सभा राजन्राजभिस्तैः समागतैः। देवैरिव महाभागैः समवेतैस्त्रिविष्टपम्।। | 2-85-4a 2-85-4b |
सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे भास्वरमूर्तयः। प्रवर्तत महाराज सुहृद्द्यूतमनन्तरम्।। | 2-85-5a 2-85-5b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-85-6x |
अयं बुहधनो राजन्सागरावर्तसम्भवः। मणिर्हारोत्तरः श्रीमान्कनकोत्तमभूषणः।। | 2-85-6a 2-85-6b |
एतद्राजन्मम धनं प्रतिपाणोऽस्ति कस्तव। येन मां त्वं महाराज धनेन प्रतिदीव्यसे।। | 2-85-7a 2-85-7b |
दुर्योधन उवाच।। | 2-85-8x |
सन्ति मे मणयश्चैव धनानि सुबहूनि च। मत्सरश्च न मेऽर्थेषु जयस्वैनं दुरोदरम्।। | 2-85-8a 2-85-8b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-9x |
ततो जग्राह शकुनिस्तानक्षानक्षतत्त्ववित्। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-85-9a 2-85-9b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-85-10x |
मत्त कैतकेनैव यज्जितोऽस्मि दुरोदरे। शकुने हन्त दीव्यामो ग्लहमानाः परस्परम्।। | 2-85-10a 2-85-10b |
सन्ति निष्कसहस्रस्य भाण्डिन्यो भरिताः शुभाः। कोशो हिरण्यमक्षय्यं जातरूपमनेकशः। एतद्राजन्मम धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-85-11a 2-85-11b 2-85-11c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-12x |
कौरवाणां कुलकरं ज्येष्ठं पाण्डवमच्युतम्। इत्युक्तः शकुनिः प्राह जितमित्येव तं नृपम्।। | 2-85-12a 2-85-12b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-85-13x |
अयं सहस्रसमितो वैयाघ्रः सुप्रतिष्ठितः। सुचक्रोपस्करः श्रीमान्किङ्किणीजालमण्डितः।। | 2-85-13a 2-85-13b |
संह्रादनो राजरथो य इहास्मानुपावहत्। जौत्रो रथवरः पुण्यो मेघसागरनिः स्वनः।। | 2-85-14a 2-85-14b |
अष्टौ यं कुररच्छायाः सदश्वा राष्ट्रसंमताः। वहन्ति नैषां मुच्येत पदाद्भूमिमुपस्पृशन्। एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-85-15a 2-85-15b 2-85-15c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-16x |
एवं श्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-85-16a 2-85-16b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-85-17x |
शतं दासीसहस्राणि तरुण्यो हेमभद्रिकाः। कम्बुकेयूरधारिण्यो निष्ककण्ठ्यः स्वलङ्कृताः।। | 2-85-17a 2-85-17b |
महार्हमाल्याभरणाः सुवस्त्राश्चन्दनोक्षिताः। मणीन्हेम च बिभ्रत्यश्चतुःषष्टिविशारदाः।। | 2-85-18a 2-85-18b |
अनुसेवां चरन्तीमाः कुशला नृत्तसामसु। स्नातकानाममात्यानां राज्ञां च मम शासनात्। एतद्राजन्मम धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-85-19a 2-85-19b 2-85-19c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-20x |
एतच्छुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-85-20a 2-85-20b |
युधिष्ठिर उवाच। | 2-85-21x |
एतावन्ति च दासानां सहस्राण्युत सन्ति मे। प्रदक्षिणानुलोमाश्च प्रावारवसनाः सदा।। | 2-85-21a 2-85-21b |
प्राज्ञा मेधाविनो दान्ता युवानो मृष्टकुण्डलाः। पात्रीहस्ता दिवारात्रमतिथीन्भोजयन्त्युत। एतद्राजन्मम धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-85-22a 2-85-22b 2-85-22c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-23x |
एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरभाषत।। | 2-85-23a 2-85-23b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-85-24x |
सहस्रसङ्ख्या नगा मे मत्तास्तिष्ठन्ति सौबल। हेमकक्षाः कृतापीडाः पद्मिनो हेममालिनः।। | 2-85-24a 2-85-24b |
सुदान्ता राजवहनाः सर्वशब्दक्षमा युधि। ईषादन्ता महाकायाः सर्वे चाष्टकरेणवः।। | 2-85-25a 2-85-25b |
सर्वे च पुरभेत्तारो नवमेघनिभा गजाः। एतद्राजन्मम धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-85-26a 2-85-26b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-27x |
इत्येवंवादिनं पार्थं प्रहसन्निव सौबलः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-85-27a 2-85-27b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-85-28x |
रथास्तावन्त एवेमे हेमदण्डाः पताकिनः। हयैर्विनीतैः सम्पन्ना रथिभिश्चित्रयोधिभिः।। | 2-85-28a 2-85-28b |
एकैको ह्यत्र लभते सहस्रपरमां भृतिम्। युध्यतोऽयुध्यतो वापि वेतनं मासकालिकम्। एतद्राजन्म धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-85-29a 2-85-29b 2-85-29c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-30x |
इत्येवमुक्ते वचने कृतवैरो दुरात्मवान्। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-85-30a 2-85-30b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-85-31x |
अश्वांस्तित्तिरिकल्माषान्गान्धर्वान्हेममालिनः। ददौ चित्ररथस्तुष्टो यांस्तान्गाण्डीवधन्वने।। | 2-85-31a 2-85-31b |
युद्धे जितः पराभूतः प्रीतिपूर्वमरिन्दमः। एतद्राजन्मम धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-85-32a 2-85-32b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-33x |
एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। तमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-85-33a 2-85-33b |
युधिष्ठिर उवाच।। | 2-85-34x |
रथानां शकटानां च श्रेष्ठानां चायुतानि मे। युक्तान्येव हि तिष्ठन्ति वाहैरुच्चावचैस्तथा।। | 2-85-34a 2-85-34b |
एवं वर्णस्य वर्णस्य समुच्चीय सहस्रशः। यथा समुदिता वीराः सर्वे वीरपराक्रमाः।। | 2-85-35a 2-85-35b |
क्षीरं पिबन्तस्तिष्ठन्ति भुञ्जानाः शालितण्डुलान्। षष्टिस्तानि सहस्राणि सर्वे विपुलवक्षसः। एतद्राजन्मम धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-85-36a 2-85-36b 2-85-36c |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-37x |
एतच्छ्रत्वा व्यवसितो निकृति समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभाषत।। | 2-85-37a 2-85-37b |
युधिष्ठिर उवाच। | 2-85-38x |
ताम्रलोहैः परिवृता निधयो ये चतुः शताः। पञ्चद्रौणिक एकैकः सुवर्णस्याहतस्य वै।। | 2-85-38a 2-85-38b |
जातरूपस्य मुख्यस्य नार्घो यस्य हि भारत। एतद्राजन्मम धनं तेन दीव्याम्यहं त्वया।। | 2-85-39a 2-85-39b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-85-40x |
एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। जितमित्येव शकुनिर्युधिष्ठिरमभापतः।। | 2-85-40a 2-85-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि पञ्चाशीतितमोऽध्यायः।।85 ।। |
2-85-8 दुरोदरं पणम्।।
2-85-11 भाण्डिन्यो मञ्जषाः।। 2-85-17 कम्बवः शङ्खवलयानि। निष्पो वक्षोभूषणम्।। 2-85-18 चतुष्षष्टिकलासु विशारदाः।। 2-85-19 नृत्तसामसु नर्तने गीतिविशेषेषु च।। 2-85-24 कृतपीडाः कृतभूषणाः।। 2-85-25 ईषा लाङ्गलदण्डः। अष्टकरेणवः, अष्टहस्तिनीकाः।।
सभापर्व-084 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-086 |