महाभारतम्-02-सभापर्व-077
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जनमेजयेन विस्तरेण द्यूतवृत्तान्तकथनप्रार्थनम्।। 1।। धृतराष्ट्रेण दुर्योधनम्प्रति द्यूतनिषेधनम्।। 2।। दुर्योधनेन धृतराष्ट्रम्प्रति भीमादिकृतस्वापहसनादिकथनम्।। 3।।
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जनमेजय उवाच।। | 2-77-1x |
कथं समभवद्द्यूतं भ्रातॄणां तन्महात्ययम्। यत्र तद्व्यसनं प्राप्तं पाण्डवैर्मे पितामहैः।। | 2-77-1a 2-77-1b |
के च तत्र समास्तारा राजानो ब्रह्मवित्तम। के चैनमन्वमोदन्त के चैनं प्रत्यषेधयन्।। | 2-77-2a 2-77-2b |
विस्तरेणैतदिच्छामि कथ्यमानं त्वया द्विज। मूलं ह्येतद्विनाशस्य पृथिव्या द्विजसत्तम।। | 2-77-3a 2-77-3b |
सौतिरुवाच। | 2-77-4x |
एवमुक्तस्ततो राज्ञा व्यासशिष्यः प्रतापवान्। आचचक्षेऽथ यद्वृत्तं तत्सर्वं वेदतत्त्वविद्।। | 2-77-4a 2-77-4b |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-77-5x |
एवमुक्तस्ततो राज्ञा व्यासशिष्यः प्रतापवान्। आचचक्षेऽथ यद्वृत्तं तत्सर्वं वेदतत्त्ववित्।। | 2-77-5a 2-77-5b |
विदुरस्य मतिं ज्ञात्वा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः। दुर्योधनमिदं वाक्यमुवाच विजने पुनः।। | 2-77-6a 2-77-6b |
अलं द्यूतेन गान्धारे विदुरो न प्रशंसति। न ह्यसौ सुमहाबुद्धिरहितं नो वदिष्यति।। | 2-77-7a 2-77-7b |
हितं हि परमं मन्ये विदुरो यत्प्रभाषते। क्रियतां पुत्र तत्सर्वमेतन्मन्ये हितं तव।। | 2-77-8a 2-77-8b |
देवर्षिर्वासवागुरुर्देवराजाय धीमते। यत्प्राह शास्त्रं भगवान्बृहस्पतिरुदारधीः। तद्दे विदुरः सर्वं सरहस्यं महाकविः।। | 2-77-9a 2-77-9b 2-77-9c |
स्थितस्तु वचने तस्य सदाऽहमपि पुत्रक। विदुरो वापि मेधावी कुरूणां प्रवरो मतः।। | 2-77-10a 2-77-10b |
उद्धवो वा महाबुद्धिर्वृष्णीनामर्चितो नृप। तदलं पुत्र द्यूतेन द्यूते भेदो हि दृश्यते।। | 2-77-11a 2-77-11b |
भेदे विनाशो राज्यस्य तत्पुत्र परिवर्जय।। | 2-77-12a |
पित्रा मात्रा च पुत्रस्य यद्वै कार्यं परं स्मृतम्। प्राप्तस्त्वमसि तन्नाम पितृपैतामहं पदम्।। | 2-77-13a 2-77-13b |
अधीतवान्कृती शास्त्रे लालितः सततं गृहे। भ्रातृज्येष्ठः स्थितो राज्ये विन्दसरे किं न शोभनम्।। | 2-77-14a 2-77-14b |
पृथग्जनैरलभ्यं यद्भोजनाच्छादनं परम्। तत्प्राप्तोसि महाबाहो कस्माच्छोनसि पुत्रक।। | 2-77-15a 2-77-15b |
स्फीतं राष्ट्रं महाबाहो पितृपैतामहं महत्। नित्यमाज्ञापयन्भासि दिवि देवेश्वरो यथा।। | 2-77-16a 2-77-16b |
`यादृशं च तवैश्वर्यं तदन्येषां सुदुर्लभम्। ये चोपभोगास्ते राजन्मया ते परिकीर्तिताः'।। | 2-77-17a 2-77-17b |
तस्य ते विदितप्रज्ञ शोकमूलमिदं कथम्। समुत्थितं दुःखकरं तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 2-77-18a 2-77-18b |
दुर्योधन उवाच।। | 2-77-19x |
अश्नाम्याच्छादयामीति प्रपश्यन्हीनपौरुषः। नामर्षं कुरुते यस्तु पुरुषः सोऽधमः स्मृतः।। | 2-77-19a 2-77-19b |
न मां प्रीणाति राजेन्द्र लक्ष्मीः साधारणी विभो। ज्वलितामेव कौन्येये श्रियं दृष्ट्वा च विव्यथे।। | 2-77-20a 2-77-20b |
सर्वां च पृथिवीं चैव युधिष्ठिरवशानुगाम्। स्थिरोऽस्मि योऽहं जीवामि दुःखादेतद्ब्रवीमि ते। | 2-77-21a 2-77-21b |
आवर्जिता इवाभान्ति नीपाश्चित्रककौकुराः। कारस्कारा लोहजङ्घा युधिष्ठिरनिवेशने।। | 2-77-22a 2-77-22b |
हिमवत्सागरानुपाः सर्वे रत्नाकरास्तथा। अन्त्याः सर्वे पर्युदस्ता युधिष्ठिरनिवेशने।। | 2-77-23a 2-77-23b |
ज्येष्ठोऽयमिति मां मत्वा श्रेष्ठश्चेति विशाम्पते। युधिष्ठिरेण सत्कृत्य युक्तो रत्नपरिग्रहे।। | 2-77-24a 2-77-24b |
उपस्थितानां रत्नानां श्रेष्ठानामर्घहारिणाम्। नादृश्यत परः पारो नापरस्तत्र भारत।। | 2-77-25a 2-77-25b |
न मे हस्तः समभवद्वसु तत्प्रतिगृह्णतः। अतिष्ठन्त मयि श्रान्ते गृग्य दूराहृतं वसु।। | 2-77-26a 2-77-26b |
कृतां बिन्दुसरोरत्नैर्मयेन स्फाटिकच्छदाम्। अपश्यं नलिनीं पूर्णामुदकस्येव भारत।। | 2-77-27a 2-77-27b |
वस्त्रमुत्कर्षति मयि प्राहसत्स वृकोदरः। शत्रोर्ऋद्धिविशेषेण विमूढ रत्तवर्जितम्।। | 2-77-28a 2-77-28b |
तत्र स्म यदि शक्तः स्यं पातयेऽहं वृकोदरम्। यदि कुर्यां समारम्भं भीमं हन्तुं नराधिप।। | 2-77-29a 2-77-29b |
शिशुपाल इवास्माकं गतिः स्यान्नात्र संशयः। सपत्नेनावहासो मे स मां दहति भारत।। | 2-77-30a 2-77-30b |
पुनश्च तादृशीमेव वापीं जलजशालिनीम्। मत्वा शिलासमां तोये पतितोऽस्मि नराधिप।। | 2-77-31a 2-77-31b |
तत्र मां प्राहसत्कृष्णः पार्थेन सह सुस्वरम्। द्रौपदी च सह स्त्रीभिर्व्यथयन्ती मनो मम।। | 2-77-32a 2-77-32b |
क्लिन्नवस्त्रस्य तु जले किङ्करा राजनोदिताः। ददुर्वासांसि मेऽन्यानि तच्च दुःखं परं मम।। | 2-77-33a 2-77-33b |
प्रलम्भं च शृणुष्वान्यद्वदतो मे नराधिप। अद्वारेण विनिर्गच्छन्द्वारसंस्थानरूपिणा। अभिहत्य शिलां भूयो ललाटेनास्मि विक्षतः।। | 2-77-34a 2-77-34b 2-77-34c |
तत्र मां यमजौ दूरादालोक्याभिहतं तदा। बाहुभिः परिगृह्णीतां शोचन्तौ सहितावुभौ।। | 2-77-35a 2-77-35b |
उवाच सहदेवस्तु तत्र मां विस्मयन्निव। इद द्वारं धार्तराष्ट्र मा गच्छेति पुनः पुनः।। | 2-77-36a 2-77-36b |
भीमसेनेन तत्रोक्तो धृतराष्ट्रात्मजेति च। सम्बोध्य प्रहसित्वा च इतो द्वारं नराधिप।। | 2-77-37a 2-77-37b |
नामधेयानि रत्नानां पुरस्तान्न श्रुतानि मे। यानि दृष्टानि मे तस्यां मनस्तपति तच्च मे।। | 2-77-38a 2-77-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि द्यूतपर्वणि सप्तसप्ततितमोऽध्यायः।। 77 ।। |
टिप्पणी
सम्पाद्यताम्2-77-22 नीपादयो राजानः। आवर्जिता दासवद्वशगाः।। 2-77-23 पर्युदस्ता दूरक्षिप्ताः।। 2-77-26 न समभवत् समर्थो नाभवत्।।
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