महाभारतम्-02-सभापर्व-029
← सभापर्व-028 | महाभारतम् द्वितीयपर्व महाभारतम्-02-सभापर्व-029 वेदव्यासः |
सभापर्व-030 → |
अर्जुनेन उत्तरदिग्विजये किम्पुरुषादिखण्डजयः।। 1।।
अर्जुनस्य खाण्डवप्रस्थं प्रति प्रत्यागमनम्।। 2।।
|
वैशम्पायन इवाच।। | 2-29-1x |
स श्वेतपर्वतं वीरः समतिक्रम्य वीर्यवान्। देशं किम्पुरुषावासं द्रुमपुत्रेण रक्षितम्।। | 2-29-1a 2-29-1b |
महता सन्निपातेन क्षत्रियान्तकरेण ह। अजयत्पाण्डवश्रेष्ठः करे चैनं न्यवेशयत्।। | 2-29-2a 2-29-2b |
तं जित्वा हाटकं नाम देशं गुह्यकरक्षितम्। पाकशासनिरव्यग्रः सहसैन्यः समासदत्।। | 2-29-3a 2-29-3b |
तांस्तु सान्त्वेन निर्जित्य मानसं सर उत्तमम्। ऋषिकुल्यास्तथा सर्वा ददर्श कुरुनन्दनः।। | 2-29-4a 2-29-4b |
सरो मानसमासाद्य हाटकानभितः प्रभुः। गन्धर्वरक्षितं देशमजयत्पाण्डवस्ततः।। | 2-29-5a 2-29-5b |
तत्र तित्तिरिकल्माषान्मण्डूकाख्यान्हयोत्तमान्। लेभे स करसमत्यन्तं गन्धर्वनगरात्तदा।। | 2-29-6a 2-29-6b |
`हेमकूटमथासाद्य न्यवसत्फल्गुनस्तदा। तं हेमकूटं राजेन्द्र समतिक्रम्य पाण्डवः।। | 2-29-7a 2-29-7b |
हरिवर्षं विवेशाथ सैन्येन महता वृतः। तत्र पार्थो ददर्शाथ बहूनिह मनोरमान्।। | 2-29-8a 2-29-8b |
नगरान्सवनांश्चैव नदीश्च विमलोदकाः। पुरुषान्देवकल्पांश्च नारीश्च प्रियदर्शनाः।। | 2-29-9a 2-29-9b |
तान्सर्वास्तत्र दृष्ट्वाऽथ मुदा युक्तो धनञ्जयटः। वशे चक्रे स रत्नानि लेभे च सुबहूनि च।। | 2-29-10a 2-29-10b |
ततो निषधमासाद्य गिरिस्थानजयत्प्रभुः। अथ राजन्नतिक्रम्य निषधं शैलमायतम्।। | 2-29-11a 2-29-11b |
विवेश मध्यमं वर्षं पार्थो दिव्यमिलावृतम्। तत्र दिव्योपमान्दिव्यान्पुरुषान्देवदर्शनान्।। | 2-29-12a 2-29-12b |
अदृष्टपूर्वान्सुभगान्स ददर्श धनञ्जयः। सदनानि च शुभ्राणि नारीश्चाप्सरसंनिभाः।। | 2-29-13a 2-29-13b |
दृष्ट्वा तानजयद्रम्यान्स तैश्च ददृशे तदा। जित्वा च तान्महाभागान्करे च विनिवेश्य च।। | 2-29-14a 2-29-14b |
रत्नान्यादाय दिव्यानि भूषणान्यासनैः सह। उदीचीमथ राजेन्द्र ययौ पार्थो मुदाऽन्वितः।। | 2-29-15a 2-29-15b |
स ददर्श ततो मेरुं शिखरीणां प्रभुं महत्। तं काञ्चनमयं दिव्यं चतुर्वणं दुरासदम्।। | 2-29-16a 2-29-16b |
उन्नतं शतसाहस्रं योजनानां तु सुस्थितम्। ज्वलन्तमचलं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम्।। | 2-29-17a 2-29-17b |
आक्षिपन्तं प्रभां भानोः स्वशृङ्गैः काञ्चनोज्ज्वलैः। काञ्चनाभरणं दिव्यदेवगन्धर्वसेवितम्।। | 2-29-18a 2-29-18b |
अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः। व्यालैराचरितं धोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम्।। | 2-29-19a 2-29-19b |
स्वर्गमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छ्रायेण महागिरिम्। अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम्।। | 2-29-20a 2-29-20b |
नानाविहगसङ्घैश्च नादितं सुमनोहरैः। तं दृष्टा फल्गुनो मेरुं प्रीतिमानभवत्तदा।। | 2-29-21a 2-29-21b |
मेरोरिलावृतं दिव्यं सर्वतः परिमण्डितम्। मेरोस्तु दक्षिणे पार्श्वे जम्बूर्नाम वनस्पतिः।। | 2-29-22a 2-29-22b |
नित्यपुष्पफलोपेवः सिद्धचारणसेवितः। आस्वर्गमुच्छ्रिता राजंस्तस्य शाखा वनस्पतेः।। | 2-29-23a 2-29-23b |
यस्य नाम्ना त्विदं द्वीपं जन्बूद्वीपमिति स्मृतम्। तां च जम्बूं ददर्शाथ सव्यसाची परन्तपः।। | 2-29-24a 2-29-24b |
तौ दृष्ट्वाऽप्रतिमौ लोके जम्बूं मेरुं च संस्थितौ। प्रतीमानभवद्राजन्सर्वतः स विलोकयन्।। | 2-29-25a 2-29-25b |
तत्र लेभे ततो जिष्णुः सिद्धैर्दिव्यैश्च चारणैः। रत्नानि बहुसाहस्रं दत्तान्याभरणानि च।। | 2-29-26a 2-29-26b |
वासांसि च महार्हाणि तत्र लब्ध्वाऽर्जुनस्तदा। आमन्त्रयित्वा तान्सर्वान्यज्ञमुद्दिश्य वै गुरोः।। | 2-29-27a 2-29-27b |
अथादाय बहून्रत्नान्गमनाययोपचक्रमे। मेरुं प्रदक्षिणीकृत्य प्रवतप्रवरं प्रभुः।। | 2-29-28a 2-29-28b |
ययौ जम्बूनदीतीरे नदीं श्रेष्ठां विलोकयन्। स तां मनोरमां दिव्यां जम्बूस्वादुरसावहाम्।। | 2-29-29a 2-29-29b |
हैमपक्षिगणैर्जुष्टां सौवर्णजलजाकुलाम्। हैमपङ्कां हैमजलां सौवर्णोज्ज्वलवालुकाम्।। | 2-29-30a 2-29-30b |
क्वचित्मुपिष्पितैः पूर्णां सौवर्णकुसुमोत्पलैः। क्वचित्तीररुहैः कीर्णां हैमपुष्पैः सुपुष्पितैः।। | 2-29-31a 2-29-31b |
तीर्थैश्च रुक्मसोपानैः सर्वतः समलङ्कुताम्। विमलैर्मणिजालैश्च नृत्तगीतरवैर्युताम्।। | 2-29-32a 2-29-32b |
दीप्तैर्हेमवितानैश्च समन्ताच्छोभितां शुभाम्। तथाविधां नदीं दृष्ट्वा पार्थस्तां प्रशशंस ह।। | 2-29-33a 2-29-33b |
दृष्टपूर्वां राजेन्द्र दृष्ट्वा हर्षमवाप च। दर्शनीयां नदीतीरे पुरुषान्सुमनोहरान्।। | 2-29-34a 2-29-34b |
तान्नदीसलिलाहारान्सदारानमरोपमान्। नित्यं सुखमुदा युक्तान्सर्वालङ्कारशोभितान्।। | 2-29-35a 2-29-35b |
तेभ्यो बहूनि रत्नानि तदा लेभे धनञ्जयः। दिव्यजम्बूफलं हैमं भूषणानि च पेशलम्।। | 2-29-36a 2-29-36b |
लब्ध्वा तान्दुर्लभान्पार्थः प्रतीचीं प्रययौ दिशम्। नागानां रक्षितं देशमजयश्च पुनस्ततः।। | 2-29-37a 2-29-37b |
ततो गन्वा महाराज वारुणीं पाकशासनिः। गन्धमादनमासाद्य ततस्तानजयत्प्रभुः।। | 2-29-38a 2-29-38b |
तं गन्धमादनं राजन्नतिक्रम्य ततोऽर्जुनः। केतुमालं ददर्शाथ वर्षं रत्नसमन्वितम्।। | 2-29-39a 2-29-39b |
सेवितं देवकल्पैश्च नारीभिः प्रियदर्शनैः। तं जित्वा चार्जुनो राजन्करे च विनिवेश्य च।। | 2-29-40a 2-29-40b |
आहृत्य तत्र रत्नानि दुर्लभानि तथार्जुनः। पुनश्च परिवृत्याथ माध्यं देशमिलावृतम्।। | 2-29-41a 2-29-41b |
गत्वा प्राचीं दिशं राजन्सव्यसाची धनञ्जयः। मेरुमन्दरयोर्मध्ये शैलोदामभितो नदीम्।। | 2-29-42a 2-29-42b |
ये ते कीचकवेणूनां छायां रम्यामुपासते। कषान्झषांश्च नद्यौ तान्प्रघसान्दीप्तवेणिपान्।। | 2-29-43a 2-29-43b |
पशुपांश्च कुलिन्दांश्च तङ्कणान्परतङ्कणान्। एतान्समस्ताञ्जित्वा च करे च विनिवेश्य च।। | 2-29-44a 2-29-44b |
रत्नान्यादाय सर्वेभ्यो माल्यवन्तं ततो ययौ। तं माल्यवन्तं शैलेन्द्रं समतिक्रम्य पाण्डवः।। | 2-29-45a 2-29-45b |
भद्राश्वं प्रविवेशाथ वर्षं स्वर्गोपमं शुचिम्। तत्र देवोपमान्दिव्यान्पुरुषाञ्शुभसंयुतान्।। | 2-29-46a 2-29-46b |
जित्वा तान्स्ववशे कृत्वा करे च विनिवेश्य च। आहृत्य सर्वतो रत्नान्यसङ्ख्यानि ततस्ततः।। | 2-29-47a 2-29-47b |
नीलं नाम गिरिं गत्वा तत्रस्थानजयत्प्रभुः। ततो जिष्णुरतिक्रम्य पर्वतं नीलमायतम्।। | 2-29-48a 2-29-48b |
विवेश रम्यकं वर्षं सङ्कीर्णं मिथुनैः शुभैः। तं देशमथ जित्वा स करे च विनिवेश्य च।। | 2-29-49a 2-29-49b |
अजयच्चापि बीभत्सुर्देशं गुह्यकरक्षितम्। तत्र लेभे च राजेन्द्र सौवर्णान्मृगपक्षिणः।। | 2-29-50a 2-29-50b |
अगृह्णाद्यज्ञभूत्यर्थं रमणीयान्मनोहरान्। अन्यांश्च लब्ध्वा रत्नानि पाण्डवोऽथ महाबलः।। | 2-29-51a 2-29-51b |
गन्धर्वरक्षितं देशमजयत्सगणं तदा। तत्र रत्नानि दिव्यानि लब्ध्वा राजन्नथार्जुनः।। | 2-29-52a 2-29-52b |
वर्षं हिरण्वतं नाम विवेशाथ महीपते। स तु देशेषु रम्येषु गन्तुं तत्रोपचक्रमे।। | 2-29-53a 2-29-53b |
मध्ये प्रासादवृन्देषु नक्षत्राणां शशी यथा। महापथेषु राजैन्द्र सर्वतो यान्तमर्जुनम्।। | 2-29-54a 2-29-54b |
प्रासादवरशृङ्गस्थाः परया वीर्यशोभया। ददृशुस्तं स्रियः सर्वाः पार्थमात्मयशस्करम्।। | 2-29-55a 2-29-55b |
तं कलापधरं शूरं सरथं सधनुः करम्। सवर्मं सकिरीटं वै संनद्धं सपरिच्छदम्।। | 2-29-56a 2-29-56b |
सुकुमारं महासत्वं तेजोराशिमनुत्तमम्। शक्रोपमममित्रघ्नं परवारणवारणम्।। | 2-29-57a 2-29-57b |
पश्यन्तः स्त्रीगणास्तत्र शक्तिपाणिं स्म मेनिरे। अयं स पुरुषव्याघ्रो रणेऽद्भुतपराक्रमः।। | 2-29-58a 2-29-58b |
अस्य बाहुबलं प्राप्य न भवन्त्यसुहृद्गणाः। इति वाचो ब्रुवन्त्यस्ताः स्त्रियः प्रेम्णा धनञ्जयम्।। | 2-29-59a 2-29-59b |
तुष्टुवुः पुष्पवृष्टिं च ससृजुस्तस्य मूर्धनि। दृष्ट्वा ते तु मुदा युक्ताः कौतूहलसमन्वितः।। | 2-29-60a 2-29-60b |
रत्नैर्विभूषणैश्चैव अभ्यवर्षंश्च पाण्डवम्। अथ जित्वा समस्तांस्तान्करे च विनिवेश्य च।। | 2-29-61a 2-29-61b |
मणिहेमप्रबालानि शस्त्राण्याभरणानि च। एतानि लब्ध्वा पार्थोऽथ शृङ्गवन्तं गिरिं ययौ।। | 2-29-62a 2-29-62b |
शृङ्गवन्तं च कौरव्यः समतिक्रम्य फल्गुनः। उत्तरं हरिवर्षं तु स समासाद्य पाण्डवः।। | 2-29-63a 2-29-63b |
विद्याधरगणांश्चैव यक्षेन्द्रांश्च विनिर्जयन्। तत्र लेभे महात्मा वै वासो दिव्यमनुत्तमम्।। | 2-29-64a 2-29-64b |
किन्नरद्रुमपत्रांश्च तत्र कृष्णाजिनान्बहून्। याज्ञीयांस्तांस्तदा दिव्यांस्तत्र लेभे धनञ्जय'।। | 2-29-65a 2-29-65b |
उत्तरं हरिवर्षं तु स समासाद्य पाण्डवः। इयेष जेतुं तं देशं पाकशासनन्दनः।। | 2-29-66a 2-29-66b |
तत एनं महावीर्यं महाकाया महाबलाः। द्वारपालाः समासाद्य हृष्टा वचनमब्रुवन्।। | 2-29-67a 2-29-67b |
पार्थ नेदं त्वया शक्यं पुरं जेतुं कथञ्जन। उपावर्तस्व कल्याण पर्याप्तमिदमच्युत।। | 2-29-68a 2-29-68b |
इदं पुरं यः प्रविशेद्घ्रुवं न स भवेन्नरः। प्रीयामहे त्वया वीर पर्याप्तो विजयस्तवै।। | 2-29-69a 2-29-69b |
न चात्र किञ्चिज्जेतव्यमर्जुनात्र प्रदृश्यते। उत्तराः कुरुवो ह्येते नात्र युद्धं प्रवर्तते।। | 2-29-70a 2-29-70b |
प्रविष्टोऽपि हि कौन्तेय नेह द्रक्ष्यसि किञ्चन। न हि मानुषदेहेन शक्यमत्राभिवीक्षितुम्।। | 2-29-71a 2-29-71b |
अथेह पुरुषव्याघ्र किञ्चिदन्यच्चिकीर्षसि। तत्प्रब्रूहि करिष्यामो वचनात्तव भारत।। | 2-29-72a 2-29-72b |
ततस्तानब्रवीद्राजन्नर्जुनः प्रहसन्निव। पार्थिवत्वं चिकीर्षामि धर्मराजस्य धीमतः।। | 2-29-73a 2-29-73b |
न प्रवेक्ष्यामि वो देशं विरुद्धं यदि मानुषैः। युधिष्ठिराय यत्किञ्चित्करपण्यं प्रदीयताम्।। | 2-29-74a 2-29-74b |
`नो चेत्कृष्णेन सहितो योधयिष्यामि सायकैः'। ततो दिव्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च। क्षौमाजिनानि दिव्यानि तस्य ते प्रददुः करम्।। | 2-29-75a 2-29-75b 2-29-75c |
एवं स पुरुषव्याघ्रो विजित्य दिशमुत्तराम्। सङ्ग्रामान्सुबहून्कृत्वा क्षत्रियैर्दस्युभिस्तथा।। | 2-29-76a 2-29-76b |
स विनिर्जित्य राज्ञस्तान्करे च विनिवेश्य तु। धनान्यादाय सर्वेभ्यो रत्नानि विविधानि च।। | 2-29-77a 2-29-77b |
हयांस्तित्तिरिकल्माषाञ्शुकपत्रनिभानपि। मयूरसदृशान्यान्सर्वाननिलरंहसः।। | 2-29-78a 2-29-78b |
वृतः सुमहता राजन्बलेन चतुरङ्गिणा। आजगाम पुनर्वीरः शक्रप्रस्थं पुरोत्तमम्।। | 2-29-79a 2-29-79b |
धर्मराजाय तत्पार्थो धनं सर्वं सवाहनम्। न्यवेदयदनुज्ञातस्तेन राज्ञा गृहान्ययौ।। | 2-29-80a 2-29-80b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि दिग्विजयपर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः।। 29।। |
सभापर्व-028 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-030 |