महाभारतम्-02-सभापर्व-048
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दत्तात्रेयनाम्नाऽवतीर्णस्य हरेः कार्तवीर्यार्जुनस्य वरदानादिकम्।। 1।।
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भीष्म उवाच।। | 2-48-1x |
विष्णोः पुनर्महाभागः प्रादुर्भावो महात्मनः। दत्तात्रेय इति ख्यात ऋषिरासीन्महायशाः।। | 2-48-1a 2-48-1b |
तेन नष्टेषु वेदेषु क्रियासु च मखेषु च। चातुर्वर्ण्ये च सङ्कीर्णे धर्मे शिथिलतां गते।। | 2-48-2a 2-48-2b |
अभवर्धति चाधर्मे सत्ये नष्टे स्थितेऽनृते। प्रजासु क्षीयमाणासु धर्मे चामूलतां पते।। | 2-48-3a 2-48-3b |
सयज्ञाः सक्रिया वेदाः प्रत्यानीता हि तेन वै। चातुर्वर्ण्यमसङ्कीर्णं कृतं तेन महात्मना।। | 2-48-4a 2-48-4b |
स एव वै यदा प्रादाद्धैहयाधिपतेर्वरम्। तं हैहयानामधिपस्त्वर्जुनोऽभिप्रसादयन्।। | 2-48-5a 2-48-5b |
वनं पर्यचरन्सम्यक्छुश्रूषुरनुसूयकः। निर्ममो निरहङ्कारो दीर्घकालमतोषयत्।। | 2-48-6a 2-48-6b |
आराध्य दत्तात्रेयं हि अगृङ्णात्स वरानिमान्। आप्तादाप्ततरान्विप्राद्विद्वान्विद्वन्निषेवितात्।। | 2-48-7a 2-48-7b |
ऋतेऽमरत्वं विप्रेण दत्तात्रेयेण धीमता। वरैश्चतुर्भिः प्रवृत इमान्वव्रे वरान्नृपः।। | 2-48-8a 2-48-8b |
श्रीमान्मनस्वी बलवान्सत्यवागनसूयकः। सहस्रबाहुर्भूयासमेषु मे प्रथमो वरः।। | 2-48-9a 2-48-9b |
जरायुजाण्डजं सर्वं सर्वं चैव चराचरम्। शास्तुमिच्छामि धर्मेण द्वितीयस्त्वेष मे वरः।। | 2-48-10a 2-48-10b |
पितृन्देवानृषीन्विप्रान्यजेयं विपुलैर्मखैः। अमित्रांश्च शितैर्बाणैस्तृतीयो व्रर एष मे।। | 2-48-11a 2-48-11b |
यस्य नासीन्न भविता न चास्ति सदृशः पुमान्। इह वा दिवि वा लोके स मे हन्ता भवेदिति।। | 2-48-12a 2-48-12b |
सोऽर्जुनः कृतवीर्यस्य वरः पुत्रोऽभवद्युधि। स सहस्रं सहस्राणां माहिष्मत्यामवर्धत।। | 2-48-13a 2-48-13b |
स भूमिमखिलां जित्वा द्वीपांश्चापि समुद्रिणः। नभसीवाज्वलत्सूर्यः पुण्यैः कर्मभिर्जुनः।। | 2-48-14a 2-48-14b |
इन्द्रद्वीपं कशेरुं च कामद्वीपं गभस्तितम्। गन्धर्ववरुणद्वीपं सौहृष्टममितप्रभः।। | 2-48-15a 2-48-15b |
पूर्वैरजितपूर्वांश्च द्वीपनजयदर्जुनः। इदं तु कार्तवीर्यस्य बभूवासदृशं जनैः।। | 2-48-16a 2-48-16b |
न पूर्वे नापरे तस्य गमिष्यन्ति गतिं नृपाः। यदर्णवे प्रयातस्य वस्त्रं न परिषिच्यते।। | 2-48-17a 2-48-17b |
सौवर्णं सर्वमप्यासीद्विमानवरमुत्तमम्। चतुर्धा व्यभजद्राष्ट्रं तद्विभज्यान्वपालयत्।। | 2-48-18a 2-48-18b |
एकांशेनाहरत्सेनामेकांशेनावसद्गृहान्। यस्तु तस्य तृतीयांशो राज्ञोऽभूज्जनसङ्ग्रहे।। | 2-48-19a 2-48-19b |
आप्तः परमकल्याणस्तेन यज्ञानकल्पयत्। ये दस्यवो ग्रामचरा अरम्ये च वसन्ति ये।। | 2-48-20a 2-48-20b |
चतुर्थेन तु सोंऽशेन तान्सर्वान्प्रत्यषेधयत्। द्वाराणि नापिधीयन्ते पुरेषु नगरेषु च।। | 2-48-21a 2-48-21b |
स एव राष्ट्रपालोऽभूत्स्रीपालोऽभवदर्जुनः। स एवासीद्जापालः सः गोपालो विशाम्पते।। | 2-48-22a 2-48-22b |
शतं वर्षसहस्राणामनुशिष्यार्जुनो महीम्। दत्तात्रेयप्रसादेन एवं राज्यं चकार सः।। | 2-48-23a 2-48-23b |
एवं बहूनि कर्माणि चक्रे लोकहिताय सः।। दत्तात्रेय इति ख्यातः प्रादुर्भावो ह्ययं हरेः। कथितो भरतश्रेष्ट शृणु भूयो महात्मनः।। | 2-48-24a 2-48-24b 2-48-24c |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि अर्घाहरणपर्वणि अष्टचतत्वारिंशोऽध्यायः।। 48 ।। |
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