महाभारतम्-02-सभापर्व-057
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द्वारकावर्णनम्।। 1।। रुक्मिणीसत्यभामादिगृहवर्णनम्।।2।। कृष्णेन स्वर्गादानीतस्व पारिजातस्य प्रतिष्ठापनमुद्यान वर्णनं च।। 3।।
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तां पुरी द्वारकीं दृष्ट्वा विभुर्नारायणो हरिः। हृष्टः सर्वार्थसम्पन्नः प्रवेष्टुमुपचक्रमे।। | 2-57-1a 2-57-1b |
सोऽपश्यद्वृक्षषण्डांश्च रम्यान्नानाजनान्वहून्। समन्ततो द्वारवत्यां नानापुष्पफलान्वितान्।। | 2-57-2a 2-57-2b |
अर्कचन्द्रप्रतीकाशैर्मेरुकूटनिभैर्गृहैः। द्वारकामावृतां रम्यां सुकृतां विश्वकर्मणा।। | 2-57-3a 2-57-3b |
पद्मषण्डाकुलाभिश्च हंससेवितवारिभिः। गङ्गासिन्धुप्रकाशाभिः परिघाभिरलङ्कृताम्।। | 2-57-4a 2-57-4b |
प्राकारेणार्कवर्णेन पाण्डरेण विराजिताम्। वियन्मूर्ध्नि निविष्टेन द्यामिवाभ्रपरिच्छदाम्।। | 2-57-5a 2-57-5b |
नन्दनप्रतिमैश्वापि मिश्रकप्रतिमैर्वनैः। तत्र सा विहिता साक्षान्नगरी विश्वकर्मणा।। | 2-57-6a 2-57-6b |
काञ्चनैर्मणिसोपानैरुपेता जनहर्षिणी। गीतघोषमहाघोषैः प्रसादप्रवरैः शुभा।। | 2-57-7a 2-57-7b |
तस्मिन्पुरवारश्रेष्ठे दाशार्हाणां यशस्विनाम्। नेश्मानि जहृषे दृष्ट्वा भगवान्पाकशासनः।। | 2-57-8a 2-57-8b |
समुच्छ्रितपताकानि पारिप्लवनिभानि च। काञ्चनाभानि भाखन्ति मेरुकूटनिभानि च।। | 2-57-9a 2-57-9b |
सुधापाण्डरशृङ्गैश्च शातकुम्भपरिच्छदैः। रत्नसानुमहाशृङ्गैः सर्वरत्नसमन्वितैः? | 2-57-10a 2-57-10b |
सहर्म्यैः सार्धचन्द्रैश्च सनिर्यूहैः सपञ्ज्अरैः। सयन्त्रगृहसंबाधैः सधातुभिरिवाद्रिभिः।। | 2-57-11a 2-57-11b |
मणिकाञ्चनभ्ॐऐश्च सुधामृष्टतलैस्तथा। जाम्बूनदमयद्वारैर्वैडूर्यविकृतार्गलैः।। | 2-57-12a 2-57-12b |
सर्वर्तुसुखसंस्यर्शैर्महाधनपरिच्छदैः। रम्यसानुगृहैः शृङ्गैर्विचित्रैरिव पर्वतैः।। | 2-57-13a 2-57-13b |
पञ्चवर्णसवर्णैश्च पुष्पवृष्टिसमप्रभैः। तुल्यैः पर्जन्यनिर्घोषैर्ह्रादैर्भोगवती यथा।। | 2-57-14a 2-57-14b |
कृष्णध्वजोपवाह्यैश्च दाशार्हायुधरोहितैः। वृष्णिवीरमयूरैश्च स्त्रीसहस्रप्रजाकुलैः।। | 2-57-15a 2-57-15b |
वासुदेवैन्द्रपर्जन्यैर्गृहमेघैरलङ्कृता। ददृशे द्वारकाऽतीव मेघैर्द्यैरिव संवृता।। | 2-57-16a 2-57-16b |
साक्षाद्भगवतो वेश्म विहितं विश्वकर्मणा। ददृशुर्वासुदेवस्य चतुर्योजनमायतम्।। | 2-57-17a 2-57-17b |
तावदेव सुविस्तीर्णं सुसम्पूर्णं महाधनैः। प्रासादवरसम्पन्नं युक्तं जगति पर्वतैः।। | 2-57-18a 2-57-18b |
यं चकार महाभागस्त्वष्टा वासवचोदितः। प्रासादं हेमनाभस्य सर्वतो योजनायतम्।। | 2-57-19a 2-57-19b |
मेरोरिव गिरेः शृङ्गमुच्छ्रितं काञ्चनालयम्। रुक्मिण्याः प्रवरो वासो निर्मितः सुमहात्मना।। | 2-57-20a 2-57-20b |
सत्यभामा पुनर्वेश्म सदा वसति पाण्डरम्। विचित्रमणिसोपानं यं विदुः शीतवानिति।। | 2-57-21a 2-57-21b |
विमलादित्यवर्णाभिः पताकाभिरलङ्कृतम्। व्यक्तबद्धं यथोद्देशे चतुर्दशमहाध्वजम्।। | 2-57-22a 2-57-22b |
सर्वप्रासादमुख्योऽत्र जाम्बवत्या विभूषितः। प्रभाया जृम्भणैश्चित्रैस्त्रैलोक्यमिव भासयन्।। | 2-57-23a 2-57-23b |
यस्तु पाण्डरवर्णाभस्तयोरन्तरमाश्रितः। विश्वकर्माकरोदेनं कैलासशिखरोपमम्।। | 2-57-24a 2-57-24b |
जाम्बूनदप्रदीप्ताग्रः प्रदीप्तज्वलनोपमः। सागरप्रतिमोऽतिष्ठन्मेरुरित्यभिविश्रुतः।। | 2-57-25a 2-57-25b |
तस्मिन्गान्धारराजस्य दुहिता कुलशालिनी। सुकेशी नाम विख्याता केशवेन निवेशिता।। | 2-57-26a 2-57-26b |
पद्मकूट इति ख्यातः पद्मवर्णो महाप्रभः। सुप्रभाया महाबाहो वासः स परमोच्छ्रितः।। | 2-57-27a 2-57-27b |
यस्तु सूर्यप्रभो नाम प्रासादवर उच्यते। लक्षणायाः कुरुश्रेष्ठ स दत्तः शार्ङ्गधन्वना।। | 2-57-28a 2-57-28b |
वैडूर्यवरवर्णाभः प्रासादो हरितप्रभः। श्वेतजाला हि यत्रैव यत्रैव च निवेशिता।। | 2-57-29a 2-57-29b |
यं विदुः सर्वभूतानि हरिरित्येव भारत। सुमित्रविजयावासो देवर्षिगणपूजितः।। | 2-57-30a 2-57-30b |
महिष्या वासुदेवस्य भूषणं सर्ववेश्मनाम्। यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र विहितः सर्वशिल्पिभिः।। | 2-57-31a 2-57-31b |
महिष्या वासुदेवस्य केतुमानिति विश्रुतः। प्रसादो विरजो नाम विरजस्को महात्मनः।। | 2-57-32a 2-57-32b |
उपस्थानगृहं तात केशवस्य महात्मनः। यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र यं त्वष्टा व्यदधात्स्वयम्।। | 2-57-33a 2-57-33b |
योजनायतविष्कम्भं सर्वरत्नमयं विभोः। तेषां तु विहिताः सर्वे रुक्मदण्डाः पताकिनः।। | 2-57-34a 2-57-34b |
सदने वासुदेवस्य मार्गसञ्जनना ध्वजाः। घण्टाजालानि तत्रैव सर्वेषां निवेशने।। | 2-57-35a 2-57-35b |
आहृत्य यदुसिंहेन वैजयन्तच्छलो महात्। हंसकूटस्य यच्छ्रङ्गमिन्द्रद्युम्नसरो महत्।। | 2-57-36a 2-57-36b |
षष्टितालसमुत्सेधमर्धयोजनविस्तृतम्। सकिन्नरमहानादं तदप्यमिततेजसः।। | 2-57-37a 2-57-37b |
पश्यतां सर्वभूतानां त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। आदित्यपथगं यत्तन्मेरोः शिखरमुत्तमम्।। | 2-57-38a 2-57-38b |
जाम्बूनदमयं दिव्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। तदप्युत्पाट्य कुच्छ्रेण स्वं निवेशनमाहृतम्।। | 2-57-39a 2-57-39b |
भ्राजमानं पुरा तत्र सर्वौषधिविदीपितम्। यमिन्द्रभवनाच्छौरिराजहार परन्तपः।। | 2-57-40a 2-57-40b |
पारिजातः स तत्रैव केशवेन निवेशितः। लेपहस्तशतैर्जुष्टो विमानैश्च हिरण्मयैः।। | 2-57-41a 2-57-41b |
विहिता वासुदेवेन तत्रैव च महाद्रुमाः। पद्माकुलजलोपेता रक्तसौगन्धिकोत्पलाः।। | 2-57-42a 2-57-42b |
मणिमौक्तिकवालूकाः पुष्करिण्यः सरांसि च। तासां परमकूलि शोभयन्ति महाद्रुमाः।। | 2-57-43a 2-57-43b |
सालतालाश्वकर्णाश्च शतशाखाश्च रोहिणः। भल्लातककपित्थाश्च इन्द्रवृक्षाश्च चम्पकाः।। | 2-57-44a 2-57-44b |
खादिरा मृतकाश्चैव समन्तात्परिरोपिताः। ये च हैमवता वृक्षा ये च नन्दनजास्तथा।। | 2-57-45a 2-57-45b |
आहृत्य यदुसिंहेन तेऽपि तत्र निवेशिताः। रत्नपीतारुणप्रख्याः सितपुष्पाश्च पादपाः।। | 2-57-46a 2-57-46b |
सर्वर्तुफलपूर्णोस्ते ते च काननसिन्धुषु। सहस्रपत्रपद्माश्च मन्दराश्च सहस्रशः।। | 2-57-47a 2-57-47b |
अशोकाः कर्णिकाराश्च तिलका नाग मल्लिकाः। कुरका नागपुष्पाश्च चम्पकास्तृणपुल्लिकाः।। | 2-57-48a 2-57-48b |
सप्तवर्णाः कबन्धाश्च नीपाः कुरवकास्तथा। केतकाः केसराश्चैव हिनतालतलताटकाः।। | 2-57-49a 2-57-49b |
तालाः प्रलम्बा वकुलाः पिण्डिका बीजपूरकाः। द्रुतामलकखर्जूरा महिता जम्बुकास्तथा।। | 2-57-50a 2-57-50b |
आम्राः पनसवृक्षाश्च चम्पकास्तिलतिन्दुकाः। लिकुचामृताश्चैव क्षीरिका कर्णिका तथा।। | 2-57-51a 2-57-51b |
नालिकेरेङ्गुदाश्चैव उत्क्रोशकवनानि च। कदली जातमल्ली च पाटली कुमुदोत्पलाः।। | 2-57-52a 2-57-52b |
नीलोत्पलकपूर्णाश्च वाप्यः कूपाः सहस्रशः। फुल्लाशाककपित्थाश्च तैस्तीर्त्वा बन्धुजीवकाः।। | 2-57-53a 2-57-53b |
प्रियालाशोकवादिर्याः प्राचीनाश्चापि सर्वशः। प्रियङ्गुबदरीभिश्च यवैः स्यन्दनचन्दनैः।। | 2-57-54a 2-57-54b |
शचीपीलुपलाश्चैश्च पलाशवधपिप्लैः। उदुम्बरैश्च बिल्वैश्च पालाशैः पारिभद्रकैः।। | 2-57-55a 2-57-55b |
इन्द्रवृक्षार्जुनैश्चैव अश्वत्थैश्चिरबिल्वकैः। भौमगञ्जनवृक्षैश्च भल्लाभैरश्वसाह्वयैः।। | 2-57-56a 2-57-56b |
सज्जैस्ताम्बूलवल्लीभिर्लवङ्गैः क्रमुकैस्तथा। वंशैश्च विविधैस्तत्र समन्तात्परिरोपितैः।। | 2-57-57a 2-57-57b |
ये च नन्दनजा वृक्षा ये च चैत्ररथे वने। सर्वे ते यदुनाथेन समन्तात्परिरोपिताः।। | 2-57-58a 2-57-58b |
समाहिता महानद्यः पीतलोहितवालुकाः। तस्मिन्गृहवरे रम्ये मणिशक्रसवालुकाः।। | 2-57-59a 2-57-59b |
मत्तबर्हिणनादाश्च कोकिलाश्च मदावहाः। बभूवुः परमोपेताः सर्वे जगति पर्वताः।। | 2-57-60a 2-57-60b |
तत्रैव गजयूथानि तत्र गोमहिषास्तथा। निवासाश्च कृतास्तत्र वराहा मृगपक्षिणाम्।। | 2-57-61a 2-57-61b |
विश्वकर्मकृतः शैलः प्राकारस्तत्र वेश्मनि। व्यक्तकिष्कुशतोद्यामः सुधारससमप्रभः।। | 2-57-62a 2-57-62b |
तेन ते च महाशैलाः सरितश्च सरांसि च। परिक्षिप्तानि वै तस्य वनान्युपवनानि च।। | 2-57-63a 2-57-63b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वण अर्घाहरणपर्वणि सप्तपञ्चाशोऽध्यायः।। 57।। |
सभापर्व-056 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | सभापर्व-058 |
तां पुरी द्वारकां दृष्ट्वा विभुर्नारायणो हरिः।
हृष्टः सर्वार्थसम्पन्नः प्रवेष्टुमुपचक्रमे॥ 2-57-1
सोऽपश्यद्वृक्षषण्डांश्च रम्यान्नानाजनान्बहून्।
समन्ततो द्वारवत्यां नानापुष्पफलान्वितान्॥ 2-57-2
अर्कचन्द्रप्रतीकाशैर्मेरुकूटनिभैर्गृहैः।
द्वारकामावृतां रम्यां सुकृतां विश्वकर्मणा॥ 2-57-3
पद्मषण्डाकुलाभिश्च हंससेवितवारिभिः।
गङ्गासिन्धुप्रकाशाभिः परिघाभिरलङ्कृताम्॥ 2-57-4
प्राकारेणार्कवर्णेन पाण्डरेण विराजिताम्।
वियन्मूर्ध्नि निविष्टेन द्यामिवाभ्रपरिच्छदाम्॥ 2-57-5
नन्दनप्रतिमैश्वापि मिश्रकप्रतिमैर्वनैः।
तत्र सा विहिता साक्षान्नगरी विश्वकर्मणा॥ 2-57-6
काञ्चनैर्मणिसोपानैरुपेता जनहर्षिणी।
गीतघोषमहाघोषैः प्रासादप्रवरैः शुभा॥ 2-57-7
तस्मिन्पुरवरेश्रेष्ठे दाशार्हाणां यशस्विनाम्।
वेश्मानि जहृषे दृष्ट्वा भगवान्पाकशासनः॥ 2-57-8
समुच्छ्रितपताकानि पारिप्लवनिभानि च।
काञ्चनाभानि भाखन्ति मेरुकूटनिभानि च॥ 2-57-9
सुधापाण्डरशृङ्गैश्च शातकुम्भपरिच्छदैः।
रत्नसानुमहाशृङ्गैः सर्वरत्नसमन्वितैः? 2-57-10
सहर्म्यैः सार्धचन्द्रैश्च सनिर्यूहैः सपञ्जरैः।
सयन्त्रगृहसंबाधैः सधातुभिरिवाद्रिभिः॥ 2-57-11
मणिकाञ्चनभोमेश्च सुधामृष्टतलैस्तथा।
जाम्बूनदमयद्वारैर्वैडूर्यविकृतार्गलैः॥ 2-57-11
सर्वर्तुसुखसंस्पर्शैर्महाधनपरिच्छदैः।
रम्यसानुगृहैः शृङ्गैर्विचित्रैरिव पर्वतैः॥ 2-57-13
पञ्चवर्णसवर्णैश्च पुष्पवृष्टिसमप्रभैः।
तुल्यैः पर्जन्यनिर्घोषैर्ह्रादैर्भोगवती यथा॥ 2-57-14
कृष्णध्वजोपवाह्यैश्च दाशार्हायुधरोहितैः।
वृष्णिवीरमयूरैश्च स्त्रीसहस्रप्रजाकुलैः॥ 2-57-15
वासुदेवैन्द्रपर्जन्यैर्गृहमेघैरलङ्कृता।
ददृशे द्वारकाऽतीव मेघैर्द्यौरिव संवृता॥ 2-57-16
साक्षाद्भगवतो वेश्म विहितं विश्वकर्मणा।
ददृशुर्वासुदेवस्य चतुर्योजनमायतम्॥ 2-57-17
तावदेव सुविस्तीर्णं सुसम्पूर्णं महाधनैः।
प्रासादवरसम्पन्नं युक्तं जगति पर्वतैः॥ 2-57-18
यं चकार महाभागस्त्वष्टा वासवचोदितः।
प्रासादं हेमनाभस्य सर्वतो योजनायतम्॥ 2-57-19
मेरोरिव गिरेः शृङ्गमुच्छ्रितं काञ्चनालयम्।
रुक्मिण्याः प्रवरो वासो निर्मितः सुमहात्मना॥ 2-57-20
सत्यभामा पुनर्वेश्म सदा वसति पाण्डरम्।
विचित्रमणिसोपानं यं विदुः शीतवानिति॥ 2-57-21
विमलादित्यवर्णाभिः पताकाभिरलङ्कृतम्।
व्यक्तबद्धं यथोद्देशे चतुर्दशमहाध्वजम्॥ 2-57-22
सर्वप्रासादमुख्योऽत्र जाम्बवत्या विभूषितः।
प्रभाया जृम्भणैश्चित्रैस्त्रैलोक्यमिव भासयन्॥ 2-57-23
यस्तु पाण्डरवर्णाभस्तयोरन्तरमाश्रितः।
विश्वकर्माकरोदेनं कैलासशिखरोपमम्॥ 2-57-24
जाम्बूनदप्रदीप्ताग्रः प्रदीप्तज्वलनोपमः।
सागरप्रतिमोऽतिष्ठन्मेरुरित्यभिविश्रुतः॥ 2-57-25
तस्मिन्गान्धारराजस्य दुहिता कुलशालिनी।
सुकेशी नाम विख्याता केशवेन निवेशिता॥ 2-57-26
पद्मकूट इति ख्यातः पद्मवर्णो महाप्रभः।
सुप्रभाया महाबाहो वासः स परमोच्छ्रितः॥ 2-57-27
यस्तु सूर्यप्रभो नाम प्रासादवर उच्यते।
लक्षणायाः कुरुश्रेष्ठ स दत्तः शार्ङ्गधन्वना॥ 2-57-28
वैडूर्यवरवर्णाभः प्रासादो हरितप्रभः।
श्वेतजाला हि यत्रैव यत्रैव च निवेशिता॥ 2-57-29
यं विदुः सर्वभूतानि हरिरित्येव भारत।
सुमित्रविजयावासो देवर्षिगणपूजितः॥ 2-57-30
वासः स मित्रविन्दाया देवर्षिगणपूजितः।। (पाठभेदः)
महिष्या वासुदेवस्य भूषणं सर्ववेश्मनाम्।
यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र विहितः सर्वशिल्पिभिः॥ 2-57-31
अतीव रम्यः सोप्यत्र प्रहसन्निव तिष्ठति।
सुदत्तायाः सुवासस्तु पूजितः सर्वशिल्पिभिः।।(पाठभेदः)
महिष्या वासुदेवस्य केतुमानिति विश्रुतः।
प्रासादो विरजो नाम विरजस्को महात्मनः॥ 2-57-32
उपस्थानगृहं तात केशवस्य महात्मनः।
यस्तु प्रासादमुख्योऽत्र यं त्वष्टा व्यदधात्स्वयम्॥
योजनायतविष्कम्भं सर्वरत्नमयं विभोः।
तेषां तु विहिताः सर्वे रुक्मदण्डाः पताकिनः॥ 2-57-34
सदने वासुदेवस्य मार्गसञ्जनना ध्वजाः।
घण्टाजालानि तत्रैव सर्वेषां निवेशने॥ 2-57-35
आहृत्य यदुसिंहेन वैजयन्त्यचलो महान्।
हंसकूटस्य यच्छृङ्गमिन्द्रद्युम्नसरो महत्॥ 2-57-36
षष्टितालसमुत्सेधमर्धयोजनविस्तृतम्।
सकिन्नरमहानादं तदप्यमिततेजसः॥ 2-57-37
पश्यतां सर्वभूतानां त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
आदित्यपथगं यत्तन्मेरोः शिखरमुत्तमम्॥ 2-57-38
जाम्बूनदमयं दिव्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।
तदप्युत्पाट्य कुच्छ्रेण स्वं निवेशनमाहृतम्॥ 2-57-39
भ्राजमानं पुरा तत्र सर्वौषधिविदीपितम्।
यमिन्द्रभवनाच्छौरिराजहार परन्तपः॥ 2-57-40
पारिजातः स तत्रैव केशवेन निवेशितः।
लेपहस्तशतैर्जुष्टो विमानैश्च हिरण्मयैः॥ 2-57-41
विहिता वासुदेवेन तत्रैव च महाद्रुमाः।
पद्माकुलजलोपेता रक्तसौगन्धिकोत्पलाः॥ 2-57-42
मणिमौक्तिकवालूकाः पुष्करिण्यः सरांसि च।
तासां परमकूलानि शोभयन्ति महाद्रुमाः॥ 2-57-43
सालतालाश्वकर्णाश्च शतशाखाश्च रोहिणः।
भल्लातककपित्थाश्च इन्द्रवृक्षाश्च चम्पकाः॥ 2-57-44
खादिरा मृतकाश्चैव समन्तात्परिरोपिताः।
ये च हैमवता वृक्षा ये च नन्दनजास्तथा॥ 2-57-45
आहृत्य यदुसिंहेन तेऽपि तत्र निवेशिताः।
रत्नपीतारुणप्रख्याः सितपुष्पाश्च पादपाः॥ 2-57-46
सर्वर्तुफलपूर्णास्ते ते च काननसिन्धुषु।
सहस्रपत्रपद्माश्च मन्दराश्च सहस्रशः॥2-57-47
अशोकाः कर्णिकाराश्च तिलका नाग मल्लिकाः।
कुरका नागपुष्पाश्च चम्पकास्तृणपुल्लिकाः॥ 2-57-48
सप्तवर्णाः कबन्धाश्च नीपाः कुरवकास्तथा।
केतकाः केसराश्चैव हिनतालतलताटकाः॥ 2-57-49
तालाः प्रलम्बा वकुलाः पिण्डिका बीजपूरकाः।
द्रुतामलकखर्जूरा महिता जम्बुकास्तथा॥ 2-57-50
आम्राः पनसवृक्षाश्च चम्पकास्तिलतिन्दुकाः।
लिकुचामृताश्चैव क्षीरिका कर्णिका तथा॥ 2-57-51
नालिकेरेङ्गुदाश्चैव उत्क्रोशकवनानि च।
कदली जातमल्ली च पाटली कुमुदोत्पलाः॥ 2-57-52
नीलोत्पलकपूर्णाश्च वाप्यः कूपाः सहस्रशः।
फुल्लाशाककपित्थाश्च तैस्तीर्त्वा बन्धुजीवकाः॥ 2-57-53
प्रियालाशोकवादिर्याः प्राचीनाश्चापि सर्वशः।
प्रियङ्गुबदरीभिश्च यवैः स्यन्दनचन्दनैः॥ 2-57-54
शचीपीलुपलाश्चैश्च पलाशवधपिप्लैः।
उदुम्बरैश्च बिल्वैश्च पालाशैः पारिभद्रकैः॥ 2-57-55
इन्द्रवृक्षार्जुनैश्चैव अश्वत्थैश्चिरबिल्वकैः।
भौमगञ्जनवृक्षैश्च भल्लाभैरश्वसाह्वयैः॥ 2-57-56
सज्जैस्ताम्बूलवल्लीभिर्लवङ्गैः क्रमुकैस्तथा।
वंशैश्च विविधैस्तत्र समन्तात्परिरोपितैः॥ 2-57-57
ये च नन्दनजा वृक्षा ये च चैत्ररथे वने।
सर्वे ते यदुनाथेन समन्तात्परिरोपिताः॥ 2-57-58
समाहिता महानद्यः पीतलोहितवालुकाः।
तस्मिन्गृहवरे रम्ये मणिशक्रसवालुकाः॥ 2-57-59
मत्तबर्हिणनादाश्च कोकिलाश्च मदावहाः।
बभूवुः परमोपेताः सर्वे जगति पर्वताः॥ 2-57-60
तत्रैव गजयूथानि तत्र गोमहिषास्तथा।
निवासाश्च कृतास्तत्र वराहा मृगपक्षिणाम्॥ 2-57-61
विश्वकर्मकृतः शैलः प्राकारस्तत्र वेश्मनि।
व्यक्तकिष्कुशतोद्यामः सुधारससमप्रभः॥ 2-57-62
तेन ते च महाशैलाः सरितश्च सरांसि च।
परिक्षिप्तानि वै तस्य वनान्युपवनानि च॥ ॥ 2-57-63