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द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-049
वेदव्यासः
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श्रीहरेर्जमदग्निगृहे रामनाम्नाऽवतरणम्।। 1।। परशुरामेण कार्तवीर्यार्जुनहननम्।। 2।।। त्रिस्सप्तकृत्वः क्षत्रियान्निहत्य तद्रक्तजलैः स्वपितॄणां तर्पणम्।।3।। काश्यपायाखण्डभूमण्डलं दत्त्वा साल्वेनायोधने कुमारीणां वाण्या तं विसृज्य शस्त्रन्यासपूर्वकं तपश्चरणम्।। 4।।

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भीष्म उवाच।। 2-49-1x
तथा भृगुकुले जन्म यदर्थं च महात्मनः।
जामदग्न्य इति ख्यातः प्रादुर्भावश्च वैष्णवः।।
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जमदग्निसुतो राजन्त्रामो नाम स वीर्यवान्।
हेहयान्तकरो राजन्स रामो बलिनां वरः।।
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कार्तावीर्यो महावीर्यो बलेनाप्रतिमस्तदा।
रामेण जामदग्न्येन हतो विषममाचरन्।।
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तं कार्तवीर्यं राजानं हेहयानामरिन्दमम्।
रथस्थं पार्थिवं रामः पातयित्वाऽवधीद्रणे।।
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जम्भस्य यज्ञं हत्वा स ऋत्विजश्चैव संस्तरे।
जम्भस्य मूर्ध्नि भेत्ता च हन्ता च शतदुन्दुभेः।।
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स एष कृष्णो गोविन्दो जातो भृगुषु वीर्यवान्।
सहस्रबाहुमुद्धर्तुं सहस्रजितमाहवे।।
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क्षत्रियाणां चतुष्पष्टिमयुतानि महायशाः।
सरस्वत्यां समेतानि एष वै धनुषाऽजयत्।।
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ब्रह्मद्विषां धे तस्मिन्महस्राणि चतुर्दश।
पुनर्जघान शूराणामतिक्रूरो रथर्षभः।।
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ततो राज्ञां सहस्रं स भङ्क्ता पूर्वमरिन्दमः।
सहस्रं मुसलेनाहन्सहस्रमुदकृन्तत।।
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चतुर्दशसहस्राणि कृणदूममपाययत्।
शिष्टान्ब्रह्मद्विषो जित्वा ततोऽस्नायत भार्गवः
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रामरामेत्यमिक्रुष्टो ब्राह्मणैः क्षत्रियार्दितैः।
निघ्नञ्शतसहस्राणि रामः परशुनाभिभूः।।
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न ह्यमृष्यत तां वाचमार्तैर्भृशमुदीरिताम्।
भृगो रामाभिधावेति यदाऽक्रन्दन्द्विजातयः।।
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काश्मीरान्दरदान्कुन्तीन्क्षुद्रकान्मालवाञ्छवान्।
चेदिकाशिकरूशांश्च ऋषिकान्क्रथकैशिकान्।।
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अङ्गान्वङ्गान्कलिङ्गांश्च मागधान्काशिकोसलान्।
रात्रायणान्वीतिहोत्रान्किरातान्कार्तिकावतान्।।
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एतानन्यांश्च राजन्यान्देशेदेशे सहस्रशः।
निकृत्य निशितैर्बाणैः सम्प्रदाय विवस्वते।।
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कीर्णा क्षत्रियकोटीभिर्मेरुमन्दरभूषणा।
त्रिः सप्तकृत्वः पृथिवी तेन निःक्षत्रिया कृता।।
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कृत्वा निःक्षत्रियां चैव भार्गवः स महायशाः।
इन्द्रगोपकवर्णस्य जीवञ्जीवनिभस्य च।।
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पूरयित्वा च सरितः क्षतजस्य सरांसि च।
चकार तर्पणं वीरः पितॄणां तासु तेषु च।।
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सर्वानष्टादश द्वीपान्वशमानीय भार्गवः।
सोऽश्वमेधसहस्राणि नरमेधशतानि च।।
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इष्ट्वा सागरपर्यन्तां काश्यपाय महीं ददौ।
तस्याग्रेणानुपर्येति भूमिं कृत्वा विपांसुलाम्।।
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ततः कालकृतां सत्यां भार्गवाय महात्मने।
गाधामप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः।।
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वेदिमष्टादशोत्सेधां हिरण्यस्यातिपौरुषीम्।
रामेण जामदग्न्येन प्रतिजग्राह काश्यपः।।
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एवमिष्ट्वा महाबाहुः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः।
अन्यद्वर्षशतं रामः सौभे साल्वमयोधयत्।।
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ततः स भृगुशार्दूलस्तं सौभं योधयन्प्रभुः।
सुबन्धुरं रथं राजन्नास्थाय भरतर्षभ।।
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नग्निकानां कुमारीणां गायन्तीनामुपाशृणोत्।
रामराम महाबाहो भृगूणां कीर्तिवर्धन।।
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त्यज शस्त्राणि सर्वाणि न त्वं सौभं वधिष्यसि।
शङ्खचक्रगदापाणिर्देवानामभयङ्गरः।।
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युधि प्रद्युम्नसाम्बाभ्यां कृष्णः सौभं वधिष्यति।
तच्छ्रुत्वा पुरुषव्याघ्रस्तत एव वनं ययौ।।
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न्यस्य सर्वाणि शस्त्राणि कालकाङ्क्षी महायशाः।
रथं सर्वायुधं चैव शरान्परशुमेव च।।
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धनूंष्यप्सु प्रतिष्ठाप्य रामस्तेपे परं तपः।
ह्रियं प्रज्ञां श्रियं कीर्तिं लक्ष्मीं चामित्रकर्शनः।।
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पञ्चाधिष्ठाय धर्मात्मा तं रथं विससर्ज ह।
आदिकाले प्रवृत्तं तु व्यभजत्करमीश्वरः।।
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नाघ्नतं श्रद्धया सौभं न ह्यशक्तो महायशाः।
जामदग्न्य इति ख्यातो यस्त्वयं भगवानुपिः।
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सोऽस्य भागस्तपस्तेपे भार्गवो लोकविश्रुतः।। 2-49-32a
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
अर्घाहरणपर्वणि एकोनपञ्चाशोऽध्यायः।। 49।।
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