महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-003
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व्यासेन युधिष्ठिरंप्रति पुरुषकर्मणामीश्वरप्रेरणायत्ततया दोषानापादकत्वकथनपूर्वकं तदभ्युपगमेनापि पापापनोदायाश्वमेधादिविधानम्।। 1 ।। युधिष्ठिरेण स्वस्य तावद्द्रव्याभावनिवेदने व्यासेन तंप्रति हिमवति गिरौ विद्यमानमरुत्तयागावशिष्टद्रव्यानयनेनाश्वमेधकरणचोदना।। 2 ।।
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व्यास उवाच। | 14-3-1x |
युधिष्ठिर तव प्रज्ञा न सम्यगिति मे मतिः। न हि कश्चित्स्वयं मर्त्यः स्ववशः कुरुते क्रियाम्।। | 14-3-1a 14-3-1b |
ईश्वरेण च युक्तोऽयं साध्वसाधु च मानवः। करोत्यसुकरं कर्म तत्रका परिदेवना।। | 14-3-2a 14-3-2b |
आत्मानं मन्यसे चाथ पापकर्माणमन्ततः। शृणु तत्र यथा पापमपकृत्येत भारत।। | 14-3-3a 14-3-3b |
तपोभिः क्रतुभिश्चैव दानेन च युधिष्ठिर। तरन्ति नित्यं पुरुषा ये स्म पापानि कुर्वते।। | 14-3-4a 14-3-4b |
यज्ञेन तपसा चैव दानेन च नराधिप। पूयन्ते नरशार्दूल नरा दुष्कृतकारिणः।। | 14-3-5a 14-3-5b |
असुराश्च सुराश्चैव पुण्यहेतोर्मखक्रियाम्। प्रवर्तन्ते महात्मानस्तस्माद्यज्ञः परायणम्।। | 14-3-6a 14-3-6b |
यज्ञैरेव महात्मानो बभूवुरधिकाः सुराः। ततो देवाः क्रियावन्तो दानवानभ्यधर्षयन्।। | 14-3-7a 14-3-7b |
राजसूयाश्वमेधौ च सर्वमेधं च भारत। नरमेधं च नृपते त्वमाहर युधिष्ठिर।। | 14-3-8a 14-3-8b |
यजस्व वाजिमेधेन विधिवद्दक्षिणावता। बहुकामान्नवित्तेन रामो दाशरथिर्यथा।। | 14-3-9a 14-3-9b |
यथा च भरतो राजा दौष्यन्तिः पृथिवीपतिः। शाकुन्तलो महावीर्यस्तव पूर्वपितामहः।। | 14-3-10a 14-3-10b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-3-11x |
असंशयं वाजिमेधः पारयेत्पृथिवीमपि। अभिप्रायस्तु मे कश्चित्तं त्वं श्रोतुमिहार्हसि।। | 14-3-11a 14-3-11b |
इमं ज्ञातिवधं कृत्वा सुमहान्तं द्विजोत्तम। `अहमाराधयिष्यामि कथं शोकपरायणः।' दानमल्पं न शक्नोमि दातुं वित्तं च नास्ति मे।। | 14-3-12a 14-3-12b 14-3-12c |
न तु बालानिमान्दीनानुत्सहे वसु याचितुम्। तथैवाद्रविणान्कृच्छ्रे वर्तमानान्नृपात्मजान्।। | 14-3-13a 14-3-13b |
स्वयं विनाश्य पृथिवीं यज्ञार्थं द्विजसत्तम। करमाहारयिष्यामि कथं शोकपरायणः।। | 14-3-14a 14-3-14b |
दुर्योधनापराधेनि वसुधायां नराधिपाः। प्रनष्टा योजयित्वाऽस्मानकीर्त्या मुनिसत्तम।। | 14-3-15a 14-3-15b |
दुर्योधनेन पृथिवी क्षपिता जयकारणात्। कोशश्चापि विशीर्णोसौ धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।। | 14-3-16a 14-3-16b |
पृथिवी दक्षिणा चात्र वाजिमेधे महाक्रतौ। विद्वद्भिः परिदृष्टोऽयं शिष्टो विधिविपर्ययः।। | 14-3-17a 14-3-17b |
न च प्रतिनिधिं कर्तुं चिकीर्षामि तपोधन। अत्र मे भगवन्सम्यक्साचिव्यं कर्तुमर्हसि।। | 14-3-18a 14-3-18b |
एवमुक्तस्तु पार्थेन कृष्णद्वैपायनस्तदा। मुहूर्तमनुसञ्चिन्त्य धर्मराजानमब्रवीत्।। | 14-3-19a 14-3-19b |
कोशश्चापि विशीर्णोऽयं परिपूर्णो भविष्यति। विद्यते द्रविणं पार्थ गिरौ हिमवति स्थितम्।। | 14-3-20a 14-3-20b |
उत्सृष्टं ब्राह्मणैर्यज्ञे मरुत्तस्य महीपते। तदानयस्व कौन्तेय पर्याप्तं तद्भविष्यति।। | 14-3-21a 14-3-21b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-3-22x |
कथं यज्ञे मरुत्तस्य द्रविणं तत्समाचितम्। कस्मिंश्च काले स नृपो बभूव ददतांवर।। | 14-3-22a 14-3-22b |
व्यास उवाच। | 14-3-23x |
यदि शुश्रूषसे पार्थ शृणु कारंधमं नृपम्। यस्मिन्काले महावीर्यः स राजाऽऽसीन्महाधनः।। | 14-3-23a 14-3-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि तृतीयोऽध्यायः।। 3 ।। |
14-3-18 प्रतिनिधिमनुकल्पम्।।
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