महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-019
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ब्राह्मणेन कृष्णंप्रति जीवस्य गर्भप्रवेशादिप्रतिपादककाश्यपसिद्धसंवादानुवादः।। 1 ।।
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ब्राह्मण उवाच। | 14-19-1x |
शुभानामशुभानां च नेह नाशोस्ति कर्मणाम्। प्राप्यप्राप्यानुपच्यन्ते क्षेत्रेक्षेत्रे तथातथा।। | 14-19-1a 14-19-1b |
यथा प्रसूयमानस्तु फली दद्यात्फलं बहु। तथा स्याद्विपुलं पुण्यं शुद्धेन मनसा कृतम्।। | 14-19-2a 14-19-2b |
पापं चापि तथैव स्यात्पापेन मनसा कृतम्। पुरोधाय मनो हीह कर्मण्यात्मा प्रवर्तते।। | 14-19-3a 14-19-3b |
यथा कर्मसमाविष्टः काममन्युसमावृतः। नरो गर्भं प्रविशति तत्रापि शृणु चोत्तरम्।। | 14-19-4a 14-19-4b |
शुक्रं शोणितसंसृष्टं स्त्रिया गर्भाशयं गतम्। क्षेत्रं कर्मजमाप्नोति शुभं वा यदि वाऽशुभम्।। | 14-19-5a 14-19-5b |
सौक्ष्म्यादव्यक्तयावाच्च न च क्वचन सज्जति। सम्प्राप्य ब्राह्मणः कायं तस्मात्तद्ब्रह्म शाश्वतम्।। | 14-19-6a 14-19-6b |
तद्बीजं सर्वभूतानां तेन जीवन्ति जन्तवः।। | 14-19-7a |
स जीवः सर्वभूतानां गर्भमाविश्य भागशः। दधाति चेतना सद्यः प्राणस्थानेष्ववस्थितः। ततः स्पन्दयतेऽङ्गानि स गर्भश्चेतनान्वितः।। | 14-19-8a 14-19-8b 14-19-8c |
यथा लोहस्य विष्यन्दो निषिक्तो बिम्बविग्रहम्। उपैति तद्वज्जानीहि गर्भे जीवप्रवेशनम्।। | 14-19-9a 14-19-9b |
लोहपिण्डं यथा वह्निः प्रविश्य ह्यतितापयेत्। तथा त्वमपि जानीहि गर्भे जीवोपपादनम्। | 14-19-10a 14-19-10b |
यथा च दीपः शरणं दीप्यमानः प्रकाशयेत्। एवमेव शरीराणि प्रकाशयति चेतनः।। | 14-19-11a 14-19-11b |
यद्यच्च कुरुते कर्म शुभं वा यदि वाऽशुभम्। पूर्वदेहकृतं सर्वमवश्यमुपभुज्यते।। | 14-19-12a 14-19-12b |
ततस्तु क्षीयते चैव पुनश्चान्यत्प्रचीयते। यावत्तु मोक्षयोगस्थं धर्मं नैवावबुध्यते।। | 14-19-13a 14-19-13b |
तत्ते धर्मं प्रवक्ष्यामि सुखी भवति येन वै। आवर्तमानो जातीषु यथाऽन्योन्यासु सत्तम।। | 14-19-14a 14-19-14b |
दानं व्रतं ब्रह्मचर्यं यथोक्तव्रतधारणम्। दमः प्रशान्तता चैव भूतानां चानुकम्पनम्।। | 14-19-15a 14-19-15b |
संयमश्चानृशंस्य च परस्वादानवर्जनम्। व्यलीकानामकरणं भूताना मनसा भुवि।। | 14-19-16a 14-19-16b |
मातापित्रोश्च शुश्रूषा देवतातितिपूजनम्। गुरुपूजा घृणा शौचं नित्यमिन्द्रयसंयमः।। | 14-19-17a 14-19-17b |
प्रवर्तनं शुभानां च तत्सतां व्रतमुच्यते। ततो धर्मः प्रभवति यः प्रजाः पाति शाश्वतीः।। | 14-19-18a 14-19-18b |
`सद्भिराचरितो धर्मः सदाचारे प्रतिष्ठितः। उभयार्थो भवत्येव स्वर्गार्थो मोक्षतस्तथा।।'।। | 14-19-19a 14-19-19b |
एवं सत्सु सदा पश्येत्तत्रछाप्येषा ध्रुवा स्थितिः। आचारो धर्ममाचष्टे यस्मिन्सन्तो व्यवस्थिताः।। | 14-19-20a 14-19-20b |
तेषु तत्कर्म निक्षिप्तं यः स धर्मः सनातनः। यस्तं समभिपद्येत न स दुर्गतिमाप्नुयात्।। | 14-19-21a 14-19-21b |
अतो नियम्यते लोकः प्रच्यवन्धर्मवर्त्मसु। यश्च योगी च मुक्तश्च स ऐतेभ्यो विशिष्यते।। | 14-19-22a 14-19-22b |
वर्तमानस्य धर्मेण पुरुषस्य यथा तथा। संसारतारणं ह्यस्य कालेन महता भवेत्।। | 14-19-23a 14-19-23b |
एवं पूर्वकृतं कर्म सर्वो जन्तुः प्रपद्यते। सर्वं तत्कारणं येन निकृतोऽप्यमिहागतः।। | 14-19-24a 14-19-24b |
शरीरग्रहणं चास्य केन पूर्वं प्रकल्पितम्। इत्येवं संशये लोके तच्च वक्ष्याम्यतः परम्।। | 14-19-25a 14-19-25b |
शरीरमात्मनः कृत्वा सर्वलोकपितामहः। त्रैलोक्यमसृजद्ब्रह्मा कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम्।। | 14-19-26a 14-19-26b |
ततः प्रधानमसृजच्चेतनां तु शरीरिणाम्। यया सर्वमिदं व्याप्तं यां लोके परमां विदुः।। | 14-19-27a 14-19-27b |
इदं तत्क्षरमित्युक्तं परं त्वमृतमक्षरम्। त्रयाणां मिथुनं सर्वमेकैकस्य पृथक्पृथक्।। | 14-19-28a 14-19-28b |
असृजत्सर्वभूतानि पूर्वदृष्टः प्रजापतिः। स्थावराणि च भूतानि इत्येषा पौर्विकी श्रुतिः।। तस्य कालपरीमाणमकरोत्स पितामहः। भूतेषु परिवृत्तिं च पनरावृत्तिमेव च।। | 14-19-29a 14-19-29b 14-19-30a 14-19-30b |
यथा तु कश्चिन्मेधावी दृष्टात्मा पूर्वजन्मनि। यत्प्रवक्ष्यामि तत्सर्वं यथावदुपपद्यते।। | 14-19-31a 14-19-31b |
सुखदुःखे यथा सम्यगनित्ये यः प्रपश्यति। कायं चामेध्यसंस्थानं विनाशं कर्मसंहितम्।। | 14-19-32a 14-19-32b |
यच्च किञ्चित्सुखं तच्च दुःखं दृष्टमिति स्मरन्। संसारसागरं घोरं तरिष्यति सुदुस्तरम्।। | 14-19-33a 14-19-33b |
जनीमरणरोगैश्च समाविष्टः प्रधानवित्। चेतनाव्तसु चैतन्यं समं भूतेषु पश्यति।। | 14-19-34a 14-19-34b |
निर्विद्यते ततः कश्चिन्मार्गमाणः परं पदम्। तस्योपदेशं वक्ष्यामि याथातथ्येन सत्तम।। | 14-19-35a 14-19-35b |
शाश्वतस्याव्ययस्याथ् यदस्य ज्ञानमुत्तमम्। प्रोच्यमानं मया विप्र निबोधदमशेषतः।। | 14-19-36a 14-19-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि एकोविंशोऽध्यायः।। 19 ।। |
14-19-2 फली वृक्षः। 14-19-8 तथापि तेजसा सम्यक्प्राणस्थाने इति थ. पाठः।। 14-19-9 यथा स्वर्णद्रवः स्वल्पोति कृत्स्नां ताम्रप्रतिमां स्वर्णमयीमिव करोत्येवं गर्भे जीवप्रवेशनं। शरीरे सूक्ष्मस्यापि चैतन्यस्य व्याप्तिरित्याद्यस्य परिहारः।। 14-19-28 क्षरं जडम्।।
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