महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-071
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कृष्णादिभिः प्रत्युद्गम्यमानैर्युधिष्ठिरादिभिः स्वर्णभारपुरस्कारेण हास्तिनपुरप्रवेशः।। 1 ।। ततस्तत्रोपागतेन व्यासेन युधिष्ठिरंप्रत्यश्वमेधप्रशंसनपूर्वकं तत्करणविधानम्।। 2 ।। युधिष्ठिरेणाश्वमेधे स्वयं दीक्षास्वीकारं प्रार्थितेन कृष्णेन सहेतुकथनं तम्प्रत्येव दीक्षास्वीकारविधानम्।। 3 ।।
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वैशम्पायन उवाच। | 14-71-1x |
तान्समीपगताञ्श्रुत्वा पाण्डवाञ्शत्रुकर्शनः। वासुदेवः सहामात्यः प्रययौ ससुहृद्गणः। ते समेत्य यथान्यायं प्रत्युद्याता दिदृक्षया।। | 14-71-1a 14-71-1b 14-71-1c |
ते समेत्य तथाधर्मं पाण्डवा वृष्णिभिः सह। विविशुः सहिता राजन्पुरं वारणसाह्वयम्।। | 14-71-2a 14-71-2b |
विशतस्तस्य सैन्यस्य खुरनेमिस्वनेन ह। द्यावापृथिव्यौ खं चैव सर्वमासीत्समावृतम्।। | 14-71-3a 14-71-3b |
ते कोशानग्रतः कृत्वा विविशुः स्वं पुरं तदा। पाण्डवाः प्रीतमनसः सामात्याः ससुहृद्गणाः।। | 14-71-4a 14-71-4b |
ते समेत्य यथान्यायं धृतराष्ट्रं जनाधिपम्। कीर्तयन्तः स्वनामानि तस्य पादौ ववन्दिरे।। | 14-71-5a 14-71-5b |
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञाता गान्धारीं सुबलात्मजाम्। कुन्तीं च राजशार्दूल तदा भरतसत्तम।। | 14-71-6a 14-71-6b |
विदुरं यूजयित्वा च वैश्यापुत्रं समेत्य च। पूज्यमानाः स्म ते वीरा व्यरोचन्त विशाम्पते।। | 14-71-7a 14-71-7b |
ततस्तत्परमाश्चर्यं विचित्रं महदद्भुतम्। शुश्रुवुस्ते तदा वीराः पितुस्ते जन्म भारत।। | 14-71-8a 14-71-8b |
तदुपश्रुत्य तत्कर्म वासुदेवस्य धीमतः। पूजार्हं पूजयामासुः कृष्णं देवकीनन्दनम्।। | 14-71-9a 14-71-9b |
ततः कतिपयाहस्य व्यासः सत्यवतीसुतः। आजगाम महातेजा नगरं नागसाह्वयम्।। | 14-71-10a 14-71-10b |
तस्य सर्वे यथान्यायं पूजा चक्रुः कुरूद्वहाः। सह वृष्ण्यन्धकव्याघ्रैरुपासांचक्रिरे तदा।। | 14-71-11a 14-71-11b |
तत्र नानाविधाकाराः कथाः समभिकीर्त्य वै। युधिष्ठिरो धर्मसुतो व्यासं वचनमब्रवीत्।। | 14-71-12a 14-71-12b |
भवत्प्रसादाद्भगवन्यदिदं रत्नमाहृतम्। उपयोक्तुं तदिच्छामि वाजिमेधे महाक्रतौ।। | 14-71-13a 14-71-13b |
तमनुज्ञातुमिच्छामि भवता मुनिसत्तम। त्वदधीना वयं सर्वे कृष्णस्य च महात्मनः।। | 14-71-14a 14-71-14b |
व्यास उवाच। | 14-71-15x |
अनुजानामि राजंस्त्वां क्रियतां यदनन्तरम्। यजस्व वाजिमेधेन विधिवद्दक्षिणावता।। | 14-71-15a 14-71-15b |
अश्वमेधो हि राजेन्द्र पावनः सर्वपाप्मनाम्। तेनेष्ट्वा त्वं विपात्मा वै भविता नात्र संशयः।। | 14-71-16a 14-71-16b |
इत्युक्तः स तु धर्मात्मा कुरुराजो युधिष्ठिरः। अश्वमेधस्य कौरव्य चकाराहरणे मतिम्।। | 14-71-17a 14-71-17b |
समनुज्ञाप्य तत्सर्वं कृष्मद्वैपायनं नृपः। वासुदेवमथाभ्येत्य वाग्मी वचनमब्रवीत्।। | 14-71-18a 14-71-18b |
देवकी सुप्रजा देवी त्वया पुरुषसत्तम। यद्ब्रूयां त्वां महाबाहो तत्कृथास्त्वमिहाच्युत।। | 14-71-19a 14-71-19b |
त्वत्प्रभावार्जितान्भोगानश्नीम यदुनन्दन। पराक्रमेण बुद्ध्या च त्वयेयं निर्जिता मही।। | 14-71-20a 14-71-20b |
दीक्षयस्व त्वमात्मानं त्वं हि नः परमो गुरुः। त्वयीष्टवति दाशार्ह विपाप्मा भविता ह्यहम्।। | 14-71-21a 14-71-21b |
त्वं हि यज्ञो गुरुश्च त्वं धर्मज्ञस्त्वं प्रजापतिः। त्वं गतिः सर्वभूतानामिति मे निश्चिता मतिः।। | 14-71-22a 14-71-22b |
वासुदेव उवाच। | 14-71-23x |
त्वमेवैतन्महाबाहो कर्तुमर्हस्यरिंदम। त्वं गतिः सर्वभूतानामिति मे निश्चिता मतिः।। | 14-71-23a 14-71-23b |
त्वं चाद्यि कुरुवीराणां धर्मेण हि विराजसे। गुणीभूताः स्म ते राजंस्त्वं नो राजन्गुरुर्मतः। यजस्व मदनुज्ञातः प्राप्य एष क्रतुस्त्वया।। | 14-71-24a 14-71-24b 14-71-24c |
युनक्तु नो भवान्कार्ये यत्र वाञ्छसि भारत। सत्यं ते प्रतिजानामि सर्वं कर्तास्मि तेऽनघ।। | 14-71-25a 14-71-25b |
भीमसेनार्जुनौ चैव तथा माद्रवतीसुतौ। इष्टवन्तो भविष्यन्ति त्वयीष्टवति पार्थिवे।। | 14-71-26a 14-71-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः।। 71 ।। |
14-71-7 वैश्यापुत्रं युयुत्सुम्।। 14-71-16 पावनः नाशकः।।
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