महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-116
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति भकगवद्भक्तिसौशील्याद्यभावे ब्राह्मणानामपि अग्निहोत्रस्वाध्यायाध्ययनादिसत्कर्मणामपि वैफल्यस्य शूद्राणामपि भक्त्यादिमतां स्वोचितकिंचित्कर्मणामपि साफल्यस्य च कथनम्।। 1 ।।
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युधिष्ठिर उवाच। | 14-116-1x |
कीदृशा ब्राह्मणाः पुण्या भावशुद्धाः सुरेश्वर। यत्कर्म सफलं नेति कथयस्य ममानघ।। | 14-116-1a 14-116-1b |
भगवानुवाच। | 14-116-2x |
शृणु पाण्डव तत्सर्वं ब्राह्मणानां यथाक्रमम्। सफलं निष्फलं चैव तेषां कर्म ब्रवीमि ते।। | 14-116-2a 14-116-2b |
त्रिदण्डधारणं मौनं जटाधारणमुण्डनम्। वल्कलाजिनसंवासो व्रतचर्याऽभिषेचनम्।। | 14-116-3a 14-116-3b |
अग्निहोत्रं गृहे वासः स्वाध्यायं दारसत्क्रिया। सर्वाण्येतानि वै मिथ्या यदि भावो न निर्मलः।। | 14-116-4a 14-116-4b |
अग्निहोत्रं वृथा राजन्वृथा वेदास्तथैव च। शीलेन देवास्तुष्यन्ति श्रुतयस्तत्र कारणम्।। | 14-116-5a 14-116-5b |
क्षान्तः दान्तं जितक्रोधं जितात्मानं जितेन्द्रियम्। तमग्र्यं ब्राह्मणं मन्ये शेषाः शूद्रा इति स्मृताः।। | 14-116-6a 14-116-6b |
अग्निहोत्रव्रतपरान्स्वाध्यायनिरताञ्शुचीन्। उपवासरतान्दान्तांस्तादेवा ब्राह्मणान्विदुः।। | 14-116-7a 14-116-7b |
न जात्या पुजीतो राजन्गुणाः कल्याणकारणाः। चण्डालमपि वृत्तस्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 14-116-8a 14-116-8b |
मनश्शौचं कर्मशौचं कुलशौचं च भारत। शरीरशौचं वाक्छौचं शौचं पञ्चविधं स्मृतम्।। | 14-116-9a 14-116-9b |
पञ्चस्वेतेषु शौचेषु हृदिं शौचं विशिष्यते। हृदयस्य च शौचेन स्वर्गं गच्छन्ति मानवाः।। | 14-116-10a 14-116-10b |
अग्निहोत्रपरिभ्रष्टः प्रसक्तः क्रयविक्रयैः। वर्णसङ्करकर्ता च ब्राह्मणो वृषलैः समः।। | 14-116-11a 14-116-11b |
यस्य वेदश्रुतिर्नष्टा कर्षकश्चापि यो द्विजः। विकर्मसेवी कौन्तेय स वै वृषल उच्यते।। | 14-116-12a 14-116-12b |
वृषो हि धर्मो विज्ञेयस्तस्य यः कुरुते लयम्। वृषलं तं विदुर्देवा निकृष्टं श्वपचादपि।। | 14-116-13a 14-116-13b |
स्तुतिभिर्ब्रह्मगीताभिर्यः शूद्रं स्तौति मानवः। न तु मां स्तौति पापात्मा स तु चण्डालतः समः।। | 14-116-14a 14-116-14b |
श्वदृतौ तु यथा क्षीरं ब्रह्म वै वृषले तथा। दुष्टतामेति तत्सर्वं शुना लीढं हविर्यथा।। | 14-116-15a 14-116-15b |
अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसान्यायविस्तरः। धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।। | 14-116-16a 14-116-16b |
यान्युक्तानि मया सम्यग्विद्यास्थानानि भारत। उत्पन्नानि पवित्राणि भुवनार्थं तथैव च।। | 14-116-17a 14-116-17b |
तस्मात्तानि न शूद्रस्य स्प्रष्टव्यानि युधिष्ठिर। सर्वं त्रीण्यपवित्राणि पञ्चामेध्यानि भारत। | 14-116-18a 14-116-18b |
श्वा च शूद्रः श्वपाकश्च अपवित्राणि पाण्डव।। गायकः कुक्कुटो यूपो ह्युदक्या वृषलीपतिः। | 14-116-19a 14-116-19b |
प?ञ्चैते स्युरमेध्याश्च स्प्रष्टव्या न कदातन। स्पृष्ट्वैतानष्ट वै विप्रः सचेलो जलमाविशेत्।। | 14-116-20a 14-116-20b |
मद्भक्ताञ्शूद्रसामान्यादवमन्यन्ति ये नराः। नरकेष्वेव तिष्ठन्ति वर्षकोटिं नराधमाः।। | 14-116-21a 14-116-21b |
चण्डालमपि मद्भक्तं नावमन्येत बुद्धिमान्। अवमानात्पतन्त्येव नरके रौरवे नराः।। | 14-116-22a 14-116-22b |
मम भक्तस्य भक्तेषु प्रीतिरभ्यधिका मम। तस्मान्मद्भक्तभक्ताश्च पूजनीया विशेषतः।। | 14-116-23a 14-116-23b |
कीटपक्षिमृगाणां च मयि संन्यस्तचेतसाम्। ऊर्ध्वामेव गतिं विद्धि किं पुनर्ज्ञानिनां नृणाम्।। | 14-116-24a 14-116-24b |
पत्रं वाऽप्यथवा पुष्पंक फलं वाऽप्यप एव वा। ददाति मम शूद्रो यच्छिरसा धारयामि तत्।। | 14-116-25a 14-116-25b |
विप्रानेवार्चयेद्भक्त्या शूद्रप्रायांश्च मत्प्रियान्। तेषां तेनैव रूपेण पूजां गृह्णामि भारत।। | 14-116-26a 14-116-26b |
वेदोत्तेनैव मार्गेण सर्वभूतहृदि स्थितम्। मामर्चयन्ति ये पिप्रा मत्सायुज्यं व्रजन्ति ते।। | 14-116-27a 14-116-27b |
मद्भक्तानां हितायैव प्रादुर्भावः कृतो मया। प्रदुर्भावकृता काचिदर्चनीया युधिष्ठिर।। | 14-116-28a 14-116-28b |
आसामन्यतमां मूर्तिं यो मद्भक्त्या समर्चति। तेनैव परितुष्टोऽहं भविष्यामि न संशयः।। | 14-116-29a 14-116-29b |
मृदा च मणिरत्नैश्च ताम्रेण रजतेन च। कृत्वा प्रतिकृतिं कुर्यादर्चनां काञ्चनेन वा। पुण्यं दशगुणं विद्यादेतेषामुत्तरोत्तरम्।। | 14-116-30a 14-116-30b 14-116-30c |
जपकामो भवेद्राजा विद्याकामो द्विजोत्तमः। वैश्यो वा धनकामस्तु शूद्रः सुखफलप्रियः। सर्वकामाः स्त्रियो वाऽपि सर्वान्कामानवाप्नुयुः।। | 14-116-31a 14-116-31b 14-116-31c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि षोडशाधिकशततमोऽध्यायः।। 116 |
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