महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-103
← आश्वमेधिकपर्व-102 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-103 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-104 → |
कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति वृषभगृहशय्यादिदानप्रशंसनम्।। 1 ।। तथा गोब्राह्मणरक्षणादिनानाधर्मकथनम्।। 2 ।।
|
वैशंपायन उवाच। | 14-103-1x |
वासुदेवेन दानेषु कथितेषु यथाक्रमम्। अवितृप्तश्च धर्मेषु केशवं पुनरब्रवीत्।। | 14-103-1a 14-103-1b |
देव धर्मामृतमिदं शृण्वतोपि परंतप। न विद्यते सुरश्रेष्ठ मम तृप्तिर्हि माधव।। | 14-103-2a 14-103-2b |
अनडुत्संप्रदानस्य यत्फलं तु विधीयते। तत्फलं कथयस्वेह तव भक्तस्य मेऽच्युत।। | 14-103-3a 14-103-3b |
यानिचान्यानिदानानित्वया नोक्तानि कानिचित्।। तान्याचक्ष्व सुरश्रेष्ठ तेषां चानुक्रमात्फलम्।। | 14-103-4a 14-103-4b |
भगवानुवाच। | 14-103-5x |
पवित्रत्वात्सुपुण्यत्वात्पावनत्वात्तथैव च। शृणु धर्मामृतं श्रेष्ठं दत्तस्यानडुहः फलम्।। | 14-103-5a 14-103-5b |
दशधेनुसमोऽनड्वानेकोपि कुरुपुङ्गव। मेदोमांसविपुष्टाङ्गो नीरोगः कोपवर्जितः।। | 14-103-6a 14-103-6b |
युवा भद्रः सुशीलश्च सर्वदोषविवर्जितः। धुरं धारयति क्षिप्रं दत्तो विप्राय पाण्डव।। | 14-103-7a 14-103-7b |
स तेन पुण्यदानेन वर्षकोटिं युधिष्ठिर। यथाकामं महादेजा गवां लोके महीयते।। | 14-103-8a 14-103-8b |
यश्च दद्यादनडुहौ द्वौ युक्तौ च धुरंधरौ। सुवृत्ताय दरिद्राय श्रोत्रियाय विशेषतः। तस्य यत्पुण्यमाख्यातं तच्छृणुष्व युधिष्ठिर।। | 14-103-9a 14-103-9b 14-103-9c |
सहस्रगोप्रदानेन यत्प्रोक्तं फलमुत्तमम्।। तत्पुण्यफलमाप्नोति याति लोकान्स मामकान्।। | 14-103-10a 14-103-10b |
यावन्ति चैव रोमाणि तयोरनुडुहोर्नृप। तावद्वर्षसहस्राणि मम लोके महीयते।। | 14-103-11a 14-103-11b |
दरिद्रायैव दातव्यं न समृद्धाय पाण्डव। वर्षाणां हि तटाकेषु फलं नैव पयोधिषु।। | 14-103-12a 14-103-12b |
यस्तु दद्यादनडुहं दरिद्राय द्विजातये। स तेन पुण्यदानेन पुतात्मा कुरुपुङ्गव।। | 14-103-13a 14-103-13b |
विमानं दिव्यमारूढो दिव्यरूपी यथासुखम्। मम लोकेषु रमते यावदाभूतसंप्लुवम्।। | 14-103-14a 14-103-14b |
गृहं दीपप्रभायुक्तं शय्यासनविभूषितम्। भाजनोपस्करैर्युक्तं धनधान्यैरलङ्कृतम्। दासीगोभूमिसंयुक्तमन्यूनं सर्वसाधनैः।। | 14-103-15a 14-103-15b 14-103-15c |
ब्राह्मणाय दरिद्राय श्रोत्रियाय युधिष्ठिर। दद्यात्सदक्षिणं यस्तु तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-16a 14-103-16b |
देवाः पितृगणाश्चैव ह्यग्नयो ऋषयस्तथा। प्रयच्छन्ति प्रहृष्टा वै यानमादित्यसन्निभम्।। | 14-103-17a 14-103-17b |
तेन गच्छेच्छ्रिया युक्तो ब्रह्मलोकमनुत्तमम्। स्त्रीसहस्रावृते रम्ये भवने तत्र काञ्चने। मोदते ब्रह्मलोकस्थो यावदाभूतसप्लवम्।। | 14-103-18a 14-103-18b 14-103-18c |
शय्यं प्रस्तरणोपेतां यः प्रयच्छति पाण्डव। अर्चयित्वा द्विजं भक्त्या वस्त्रमाल्यानुलेपनैः। भोजयित्वा विचित्रान्नं तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-19a 14-103-19b 14-103-19c |
धेनुदानस्य यत्पुण्यं विधिदत्तस्य पाण्डव। तत्पुण्यं तमनुप्राप्य पितृलोके महीयते।। | 14-103-20a 14-103-20b |
शिल्पमध्ययनं वाऽपि विद्यां मन्त्रौषधानि च। यः प्रयच्छति विप्राय तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-21a 14-103-21b |
आहिताग्निसहस्रस्य पूजितस्यैव यत्फलम्। तत्पुण्यफलमाप्नोति यस्तु शय्यां प्रयच्चति।। | 14-103-22a 14-103-22b |
छन्दोभिः संप्रयुक्तेन विमानेन विराजता। सप्तर्षिलोकान्व्रजति पूज्यते ब्रह्मवादिभिः।। | 14-103-23a 14-103-23b |
चतुर्युगानि वै त्रिंशत्क्रीडित्वा तत्र देववत्। इह मानुष्यके लोके विप्रो भवति वेदवित्।। | 14-103-24a 14-103-24b |
विश्रामयति यो विप्रं श्रान्तमध्वनि कर्शितम्। कविनश्यति तदा पापं तस्य वर्षकृतं नृप।। | 14-103-25a 14-103-25b |
अथ प्रक्षालयेत्पादौ तस्य तोयेन भक्तिमान्। दशवर्षकृतं पापं व्यपोहति न संशयः।। | 14-103-26a 14-103-26b |
घृतेन वाऽथ तैलेन पादौ तस्य तु पूजयेत्। तद्द्वादसमारूढं पापमाशु व्यपोहति।। | 14-103-27a 14-103-27b |
धेनुकाञ्चनदत्तस्य यत्पुण्यं समुदाहृतम्। तत्पुण्यफलमाप्नोति यस्त्वेनं विप्रमर्चयेत्।। | 14-103-28a 14-103-28b |
स्वागतेन तु यो विप्रं पूजयेदासनेन च। प्रत्युत्थानेन वा राजन्स देवानां प्रियो भवेत्।। | 14-103-29a 14-103-29b |
स्वागतेनाग्नयो राजन्नासनेन शतक्रतुः। प्रत्युत्थानेन पितरः प्रीति यान्त्यतिथिप्रियाः।। | 14-103-30a 14-103-30b |
अग्निशक्रपितॄणां च तेषां प्रीत्या नराधिप। संवत्सरकृतं पापं तस्य सद्यो विनश्यति।। | 14-103-31a 14-103-31b |
यः प्रयच्छति विप्राय आसनं माल्यभूषितम्। स याति मणिचित्रेण रथेनेन्द्रनिकेतनम्।। | 14-103-32a 14-103-32b |
पुरन्दरासने तत्र दिव्यनारीविभूषितः। षष्टिं वर्षसहस्राणि क्रीडत्यप्सरसां गणैः।। | 14-103-33a 14-103-33c |
वाहनं यः प्रयच्छेत ब्राह्मणाय युधिष्ठिर। स याति रत्नचित्रेण वाहनेन सुरालयम्।। | 14-103-34a 14-103-34b |
स तत्र कामं क्रीडित्वा सेव्यमानोप्सरोगणैः। इह राजा भवेद्राजन्नात्र कार्या विचारणा।। | 14-103-35a 14-103-35b |
पादपं पल्लवाकीर्णं पुष्पतिं फलितं तथा। गन्धमाल्यैरथाभ्यर्च्य वस्त्राभरणभूषितम्।। | 14-103-36a 14-103-36b |
यः प्रयच्छति विप्राय श्रोत्रियाय सदक्षिणम्। भोजयित्वा यथाकामं तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-37a 14-103-37b |
जांबूनदविचित्रेण विमानेन विराजता। पुरन्दरपुरं याति जयशब्दरवैर्युतः।। | 14-103-38a 14-103-38b |
ततः शक्रपुरे रम्ये तस्य कल्पकपादपः। ददाति चेप्सितं सर्वं मनसा यद्यदिच्छति।। | 14-103-39a 14-103-39b |
यावन्ति तस्य पत्राणि पुष्पाणि च फलानि च। तावद्वर्षसहस्राणि शक्रलोके महीयते।। | 14-103-40a 14-103-40b |
शक्रलोकावतीर्णश्च मानुष्यं लोकमागतः। रथाश्वगजसंपूर्णं पुरं राज्यं च वक्ष्यति।। | 14-103-41a 14-103-41b |
स्थापयित्वा तु मद्भक्त्या यो मत्प्रतिकृति नरः। आलयं विधिवत्कृत्वा पूजाकर्म च कारयेत्। स्वयं वा पूजयेद्भक्त्या तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-42a 14-103-42b 14-103-42c |
अश्वमेधसहस्रस्य यत्पुण्यं समुदाहृतम्। तत्फलं समवाप्नोति मत्सालोक्यं प्रपद्यते। न जाने निर्गमं तस्य मम लोकाद्युधिष्ठिर।। | 14-103-43a 14-103-43b 14-103-43c |
देवालये विप्रगृहे गोवाटे चत्वरेऽपि वा। प्रज्वालयति यो दीपं तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-44a 14-103-44b |
आरुद्य काञ्चनं यानं द्योतयन्सर्वतो दिशम्। गच्छेदादित्यलोकं स सेव्यमानः सुरोत्तमैः।।छ | 14-103-45a 14-103-45b |
तत्र प्रकामं क्रीडित्वा वर्षकोटिं महातपाः। इह लोके भवेद्विप्रो वेदवेदाङ्गपारगः।। | 14-103-46a 14-103-46b |
देवालयेषु वा राजन्ब्राह्मणावसथेषु वा। चत्वरे वा चतुष्के वा रात्रौ वा यदि वा दिवा।। | 14-103-47a 14-103-47b |
नानागन्धर्ववाद्यानि धर्मश्रावणिकानि च। यस्तु कारयते भक्त्या मद्गतेनान्तरात्मना।। | 14-103-48a 14-103-48b |
तस्य देवा नरश्रेष्ठ पितरश्चापि हर्षिताः। सुप्रीताः संप्रयच्चन्ति विमानं कामगं सुखम्।। | 14-103-49a 14-103-49b |
स च तेन पिमानेन याति देवपुरं नरः। तत्र दिव्याप्सरोभिस्तु सेव्यमानः प्रमोदते।। | 14-103-50a 14-103-50b |
देवलोकावतीर्णस्तु सोस्मिँल्लोके नराधिप। वेदवेदाङ्गतत्वज्ञो भोगवान्ब्राह्मणो भवेत्।। | 14-103-51a 14-103-51b |
चत्वरे वा सभायां वा विस्तीर्णि वा सभाङ्गणे। कृत्वाऽग्निकुण्डं विपुलं स्थण्डिलं वा युधिष्ठिर।। | 14-103-52a 14-103-52b |
तत्राग्निं चतुरो मासाञ्ज्वालयेद्यस्तु भक्तिमाम्। समाप्तेषु च मासेषु पौष्यादिषु ततो द्विजान्।। | 14-103-53a 14-103-53b |
भोजयेत्पायसं मृष्टं मद्गतेनान्तरात्मना। दक्षिणां च यथाशक्ति ब्राह्म्णेभ्यो निवेदयत्।। | 14-103-54a 14-103-54b |
एवमग्निं तु यः कुर्यान्नित्यमेवार्चयेत्तु माम्। तस्य पुण्यफलं यद्वै तन्निबोध युधिष्ठिर।। | 14-103-55a 14-103-55b |
तेनाहं शङ्करश्चैव पितरो ह्यग्नयस्तथा। यास्यामः परमां प्रीतिं नात्र कार्याविचारणा।। | 14-103-56a 14-103-56b |
षष्टिं वर्षसहस्राणि षष्टिं वर्षशतानि च। सोस्मत्प्रीतिकरः श्रीमान्मम लोके महीयते।। | 14-103-57a 14-103-57b |
मम लोकावतीर्णश्च अस्मिँल्लोके महायशाः। वेदवेदाङ्गविद्विप्रो जायते राजपूजितः।। | 14-103-58a 14-103-58b |
यः करोति नरश्रेष्ठ भरणं ब्राह्मणस्य तु। श्रोत्रियस्याभिजातस्य दरिद्रस्य विशेषतः। तस्य पुण्यफलं यद्वै तन्निबोध युधिष्ठिर।। | 14-103-59a 14-103-59b 14-103-59c |
गवां कोटिप्रदानेन यत्पुण्यं समुदाहृतम्। तत्सर्वफलमाप्नोति वर्षेणैकेन पाण्डव।। | 14-103-60a 14-103-60b |
काञ्चनेन विचित्रेण विमानेनार्कशोभिना। स याति मामकं लोकं दिव्यस्त्रीगणसेवितः।। | 14-103-61a 14-103-61b |
गीयमानो वरस्त्रीभिर्वर्षाणां कोटिविंशतिम्। क्रीडित्वा मामके तत्र सर्वदेवैरभिष्टुतः। मानुष्यमवतीर्णस्तु वेदविद्ब्राह्मणो भवेत्।। | 14-103-62a 14-103-62b 14-103-62c |
करकां कर्णिकां वाऽपि महद्वा जलभाजनम्। यः प्रयच्छति विप्राय तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-63a 14-103-63b |
ब्रह्मकूर्चे तु यत्पीते फलं प्रोक्तं नरादिप। तत्पुण्यफलमाप्नोति जलभाजनदो नरः। सुतृप्तः सर्वसौगन्धः प्रहृष्टेन्द्रियमानसः।। | 14-103-64a 14-103-64b 14-103-64c |
हंससारसयुक्तेन विमानेन विराजता। स याति वारुणं लोकं दिव्यगन्धर्वसेवितम्।। | 14-103-65a 14-103-65b |
पानीयं यः प्रयच्छेद्वै जीवानां जीवनं परम्। ग्रीष्मे च त्रिषु मासेषु तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-66a 14-103-66b |
कपिलाकोटिनानस्य यत्पुण्यं तु विधीयते। तत्पुण्यफलमाप्नोति पानीयं यः प्रयच्छति।। | 14-103-67a 14-103-67b |
पूर्णचन्द्रप्रकासेन विमानेन विराजता। स गच्छेच्चन्द्रभवनं सेव्यमानोप्सरोगणैः।। | 14-103-68a 14-103-68b |
त्रिंशत्कोटियुगं तत्र दिव्यगन्धर्वसेवितः। क्रीडित्वा मानुषे लोके चतुर्वेदी द्विजो भवेत्।। | 14-103-69a 14-103-69b |
शिरोभ्यङ्गप्रदानेन तेजस्वी प्रियदर्शनः। सुभगो रूपवाञ्शूरः पण्डितश्च भवेद्द्विजः।। | 14-103-70a 14-103-70b |
वस्त्रदायी तु तेजस्वी सर्वत्र प्रियदर्शनः। सुभगो भवति श्रीमान्स्त्रीणां नित्यं मनोरमः।। | 14-103-71a 14-103-71b |
उपानहौ च च्छत्रं च यो ददाति नरोत्तमः। स याति रथमुख्येन काञ्चनेन विराजता। शक्रलोकं महातेजाः सेव्यमानोप्सरोगणैः।। | 14-103-72a 14-103-72b 14-103-72c |
काष्ठपादुकदा यान्ति विमानैर्वृक्षनिर्मितैः। धर्मराजपुरं रम्यं सेव्यमानाः सुरोत्तमैः।। | 14-103-73a 14-103-73b |
दन्तकाष्ठप्रादनेन प्रियवाक्यो भवेन्नरः। सुगन्धवदनः श्रीमान्मेदासौभाग्यसंयुतः।। | 14-103-74a 14-103-74b |
क्षीरं दधि घृतं वाऽपि गुडं मधुरसं तथा। ये प्रयच्छन्ति विप्रेभ्यः परां भक्तिमुपागताः।। | 14-103-75a 14-103-75b |
ते वृषैरश्वयानैश्च श्वेतस्रग्दामभूषिताः। उपगीयमाना गन्धर्वैर्यान्तीश्वरपुरं नराः।। | 14-103-76a 14-103-76b |
तत्र दिव्याप्सरोभिस्तु सेव्यमाना यथासुखम्। षष्टिवर्षसहस्राणि मोदन्ते देवसन्निभाः।। | 14-103-77a 14-103-77b |
ततः कालावतीर्णाश्च जायन्ते त्विह मानवाः।। प्रभूतधनधान्याश्च भोगवन्तो नरोत्तमाः।। | 14-103-78a 14-103-78b |
वैशाखे मासि वैशाखे दिवसे पाण्डुनन्दन। वैवस्वतं समुद्दिश्य परां भक्तिमुपागताः।। | 14-103-79a 14-103-79b |
अभ्यर्च्य विधिवद्विप्रांस्तिलान्गुडसमन्वितान्। ये प्रयच्छन्ति विप्रेभ्यस्तेषां पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-80a 14-103-80b |
गोप्रदानेन यत्पुण्यं विधिवत्पाण्डुनन्दन। तत्पुण्यं समनुप्राप्तो यमलोके महीयते। ततश्चापि च्युतः कालादिह राजा भविष्यति।। | 14-103-81a 14-103-81b 14-103-81c |
तस्मिन्नेव दिने विप्रान्भोजयित्वा सुदक्षिणम्। तोयपूर्णानि दिव्यानि भाजनानि दिशन्ति ये।। | 14-103-82a 14-103-82b |
ते यान्त्यादित्यवर्णाभैर्विमानैर्वरुणालयम्। तत्र दिव्याङ्गनाभिस्तु रमन्ते कामकामिनः।। | 14-103-83a 14-103-83b |
ततोऽवतीर्णाः कालेन ते चास्मिन्मानुषे पुनः। भोगवन्तो द्विजश्रेष्ठ भविष्यन्ति न संशयः।। | 14-103-84a 14-103-84b |
अनन्तराशी यश्चापि वर्तते व्रतवत्सदा। सत्यवाक्क्रोधरहितः शुचिः स्नानरतः सदा। स विमानेन दिव्येन याति शक्रपुरं नरः।। | 14-103-85a 14-103-85b 14-103-85c |
तत्र दिव्याप्सरोभिस्तु वर्षकोटिं महातपाः। क्रीडित्वा मानुषे लोके जायते वेदविद्द्विजः।। | 14-103-86a 14-103-86b |
एकभुक्तेन यश्चापि वर्षमेकं तु वर्तते। ब्रह्मचारी जितक्रोधः सत्यशौचसमन्वितः। स विमानेन दिव्येन याति शक्रपुरं नरः।। | 14-103-87a 14-103-87b 14-103-87c |
दशकोटिसहस्राणि क्रीडित्वाऽप्सरसां गणैः। इह मानुष्यके लोके वेदविद्ब्राह्मणो भवेत्।। | 14-103-88a 14-103-88b |
चतुर्थकाले यो भुङ्क्ते ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। वर्तते चैकवर्षं तु तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-89a 14-103-89b |
चित्रबर्हिणयुक्तेन विचित्रध्वजशोभिना। याति यानेन दिव्येन स महेन्द्रपुरं नरः।। | 14-103-90a 14-103-90b |
अकृशाभिर्वरस्त्रीभिः सेव्यमानो यथासुखम्। ततो द्वादशकोटिं स समाः सम्यक्प्रमोदते।। | 14-103-91a 14-103-91b |
शक्रलोकावतीर्णस्तु लोके चास्मिन्नराधिप। भवेद्वै ब्राह्मणो विद्वान्क्षमावान्वेदपारगः।। | 14-103-92a 14-103-92b |
षष्ठकाले तु योऽश्नाति वर्षमेकमकल्मषः। ब्रह्मचर्यव्रतैर्युक्तः शुचि क्रोधविवर्जितः। तपोयुक्तस्य तस्याथ शृणुष्व फलमुत्तमम्।। | 14-103-93a 14-103-93b 14-103-93c |
अत्यादित्यप्रकाशेन विमानेनार्कसंनिभः। स याति मम लोकान्वै दिव्यनारीनिषेवितः।। | 14-103-94a 14-103-94b |
तत्र साध्यैर्मरुद्भिस्तु पूज्यमानो यथासुखम्। पश्यन्नेव सदा मां तु क्रीडत्यप्सरसां गणैः।। | 14-103-95a 14-103-95b |
पक्षोपवासं यश्चापि कुरुते मद्गतात्मना। समाप्ते तु व्रते तस्मिंस्तर्पयेच्छ्रोत्रियान्द्विजान्।। | 14-103-96a 14-103-96b |
सोपि गच्छति दिव्येन विमानेन महातपाः। द्योतयनप्रभया व्योम मम लोकं प्रपद्यते। स तत्र मोदते कामं कामरूपी यथासुखम्।। | 14-103-97a 14-103-97b 14-103-97c |
त्रिंशत्कोटिसमा राजन्क्रीडित्वा तत्र देववत्। इह मानुष्यके लोके पूजनीयो द्विजो भवेत्। त्रयाणामपि वेदानां साङ्गानां पारगे भवेत्।। | 14-103-98a 14-103-98b 14-103-98c |
यश्च मासोपवासं वै कुरुते मद्गतात्मना। जितेन्द्रियो जितक्रोधोजितधीः स्नानतत्परः।। | 14-103-99a 14-103-99b |
समाप्ते नियमे तत्र भोजयित्वा द्विजोत्तमान्। दक्षिणां च ततो दद्यात्प्रहृष्टेनान्तरात्मना।। | 14-103-100a 14-103-100b |
स गच्छति महातेजा ब्रह्मलोकमनु****म्। सिंहयुक्तेन यानेन दिव्यस्त्रीगणसेवितः।। | 14-103-101a 14-103-101b |
स तत्र ब्रह्मणो लोके दिव्यर्षिगणसेवितः। शतकोटिसमा राजन्यथाकामं प्रमोदते।। | 14-103-102a 14-103-102b |
ततः कालावतीर्णश्च सोस्मिँल्लोके द्विजो भवेत्। षडङ्गविच्चतुर्वेदी त्रिंशज्जन्मान्यरोगवान्।। | 14-103-103a 14-103-103b |
यस्त्यक्त्वा सर्वकर्माणि शुचिः क्रोधविवर्जितः। महाप्रस्तानमेकाग्नो याति मद्गतमानसः।। | 14-103-104a 14-103-104b |
स गच्छेदिन्द्रसदनं विमानेन महातपाः। महामणिविचित्रेण सौवर्णन विराजता।। | 14-103-105a 14-103-105b |
शतकोटिसमास्तत्र सुराधिपतिपूजितः। नाकपृष्ठे निवसति दिव्यस्त्रीगणसेवितः।। | 14-103-106a 14-103-106b |
शक्रलोकावतीर्णश्च मानुषेषूपजायते। राज्ञां राजा महातेजाः सर्वलोकार्चितः प्रभुः।। | 14-103-107a 14-103-107b |
प्रायोपवेशं यश्चापि कुरुते मद्गतात्मना। नमो ब्रह्मण्यदेवायेत्युक्त्वा मन्त्रं समाहितः। अन्तःस्वस्थो जितक्रोधस्तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-103-108a 14-103-108b 14-103-108c |
कामगः कामरूपी च बालसूर्यसमप्रभः। स विमानेन दिव्येन याति लोकाननामयान्।। | 14-103-109a 14-103-109b |
स्वर्गत्स्वर्गं महातेजा गत्वा चैव यथासुखम्। मम लोकेषु रमते यावदाभूतसंप्लवम्।। | 14-103-110a 14-103-110b |
अग्निप्रवेशं यश्चापि कुरुते मद्गतात्मना। सोपि यानेन दिव्येन मम लोकं प्रपद्यते।। | 14-103-111a 14-103-111b |
तत्र सर्वगुणोपेतः पश्यन्नेव स मां सदा। त्रिंशत्कोटिसमा राजन्मोदते मम संनिधौ। ततोऽवतीर्णः कालेन वेदविद्ब्राह्मणो भवेत्।। | 14-103-112a 14-103-112b 14-103-112c |
कर्षणं साधयन्यस्तु मां प्रपन्नः शुचिव्रतः। नमो ब्रह्मण्यदेवायेत्येतन्मन्त्रमुदाहरन्।। | 14-103-113a 14-103-113b |
बालसूर्यप्रकाशेन विमानेन विराजता। मम लोकं समासाद्य वर्षकोटिं प्रमोदते। मम लोकावतीर्णश्च सोस्मिँल्लोके नृपो भवेत्।। | 14-103-114a 14-103-114b 14-103-114c |
निवेशयति मन्मूर्त्यामात्मानं मद्गतः शुचिः। रुद्रदक्षिणमूर्त्यां वा चतुर्दश्यां विशेषतः।। | 14-103-115a 14-103-115c |
सिद्धैर्ब्रह्मर्षिभिश्चैव देवलोकैश्च पूजितः। गन्धर्वैर्भूतसङ्घैश्च गीयमानो महातपाः।। | 14-103-116a 14-103-116b |
प्रविशेत्स महातेजा मां वा शङ्करमेव वा। न स्यात्पुनर्भवो राजन्नात्र कार्या विचारणा।। | 14-103-117a 14-103-117b |
गोकृते स्त्रीकृते चैव गुरुविप्रकृतेऽपि वा। हन्यन्ते ये तु राजेन्द्र शक्रलोकं व्रजन्ति ते।। | 14-103-118a 14-103-118b |
तत्र जांबूनदमये विमाने कामगामिनि। मन्वन्तरं प्रमोदन्ते दिव्यनारीनिषेविताः।। | 14-103-119a 14-103-119b |
| 14-103-120a 14-103-120b |
| 14-103-121a 14-103-121b 14-103-121c 14-103-121d |
| 14-103-122a 14-103-122b |
| 14-103-123a 14-103-123b |
| 14-103-124a 14-103-124b |
| 14-103-125a 14-103-125b |
|
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि त्र्यधिकशततमोऽध्यायः।।
आश्वमेधिकपर्व-102 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-104 |