महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-010
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इन्द्रण गन्धर्वमुखात्स्वेन याजनाय बृहस्पतिवरणं चोदितेनापि मरुत्तेन तदनङ्गीकारे यज्ञविघाताय साटोपं यज्ञवाटं प्रत्यागमनम्।। 1 ।। संवर्तेन मरुत्तप्रार्थनया विद्याबलेनेन्द्रादीनां संस्तम्भनम्।। 2 ।। ततः संवर्तानुवर्तिनेन्द्रेण सभानिर्मापणादिना यज्ञनिर्वर्तनपूर्वकं देवेः सह हविर्ग्रहणम्।। 3 ।। व्यासेनैव युधिष्ठिरंप्रति मरुत्तयज्ञप्रवृत्तिप्रकारकथनपूर्वकं तच्छिष्टद्रव्याहरमएनाश्वमेधकरणविधानम्।। 4 ।।
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इन्द्र उवाच। | 14-10-1x |
एवमेतद्ब्रह्मबलं गरीयो न ब्राह्मणात्किञ्चिदन्यद्ररीयः। आविक्षितस्य तु बलं न मृष्ये वज्रमस्मै प्रहरिष्यामि घोरम्।। | 14-10-1a 14-10-1b 14-10-1c 14-10-1d |
धृतराष्ट्र गच्छ प्रहितो मरुत्तं संवर्तेन सङ्गतं तं वदस्व बृहस्पतिं त्वमुपशिक्षस्व राज- न्वज्रं वा ते प्रहरिष्यामि घोरम्।। | 14-10-2a 14-10-2b 14-10-2c 14-10-2d |
व्यास उवाच। | 14-10-3x |
ततो गत्वा धृतराष्ट्रो नरेन्द्रं प्रोवाचेदं वचनं वासवस्य।। | 14-10-3a 14-10-3b |
गन्धर्वं मां धृतराष्ट्रं निबोध त्वामागतं वक्तुकामं नरेन्द्र। ऐन्द्रं वाक्यं शृणु मे राजसिंह यत्प्राह लोकाधिपतिर्महात्मा।। | 14-10-4a 14-10-4b 14-10-4c 14-10-4d |
बृहस्पतिं याजकं त्वं वृणीष्व वज्रं वा ते प्रहरिष्यामि घोरम्। वचश्चेदेतन्न करिष्यसे मे प्राहैतदेतावदचिन्त्यकर्मा।। | 14-10-5a 14-10-5b 14-10-5c 14-10-5d |
मरुत्त उवाच। | 14-10-6x |
त्वं चैवैतद्वेत्थ पुरन्दरश्च विश्वेदेवा वसवश्चाश्विनौ च। मित्रद्रोहे निष्कृतिर्नास्ति लोके महत्पापं ब्रह्महत्यासमं तत्।। | 14-10-6a 14-10-6b 14-10-6c 14-10-6d |
बृहस्पतिर्याजयतां महेन्द्रं देवश्रेष्ठं वज्रभृतां वरिष्ठम्। संवर्तो मां याजयिताऽद्य राज- न्न ते वाक्यं तस्य वा रोचयामि।। | 14-10-7a 14-10-7b 14-10-7c 14-10-7d |
गन्धर्व उवाच। | 14-10-8x |
घोरो नादः श्रूयतां वासवस्य नभस्तले गर्जतो राजसिंह। व्यक्तं वज्रं मोक्ष्यते ते महेन्द्रः क्षेमं राजंश्चिन्त्यतामेष कालः।। | 14-10-8a 14-10-8b 14-10-8c 14-10-8d |
व्यास उवाच। | 14-10-9x |
इत्येवमुक्तो धृतराष्ट्रेण राज- ञ्श्रुत्वा नादं नदतो वासवस्य। तपोनित्यं धर्मविदां वरिष्ठं संवर्तं तं ज्ञापयामास कार्यम्।। | 14-10-9a 14-10-9b 14-10-9c 14-10-9d |
मरुत्त उवाच। | 14-10-10x |
पश्यात्मानं प्लवमानं त्वमारा- दध्वा दूरं तेन न दृश्यतेऽद्य। प्रपद्येऽहं शर्म विप्रेन्द्र त्वत्तः प्रयच्छ तस्मादभयं विप्रमुख्य।। | 14-10-10a 14-10-10b 14-10-10c 14-10-10d |
अयमायाति वे वज्री दिशो विद्योतयन्दस। अमानुषेण घोरेणि सदस्यास्त्रासिता हि नः।। | 14-10-11a 14-10-11b |
संवर्त उवाच। | 14-10-12x |
भयं शक्राद्व्येतु ते राजसिंह प्रणोत्स्येऽहं भयमेतत्सुघोरम्। संस्तम्भिन्या विद्यया क्षिप्रमेव मा भैस्त्वमस्याभिभवात्प्रतीतः।। | 14-10-12a 14-10-12b 14-10-12c 14-10-12d |
अहं संस्तम्भयिष्यामि मा भैस्त्वं शक्रतो नृप। यर्वेषामेव देवानां क्षयितान्यायुधानि मे।। | 14-10-13a 14-10-13b |
दिशो वज्रं व्रजतां वायुरेतु वर्षं भूत्वा वर्षतां काननेषु। आपः प्लवन्त्वन्तरिक्षे वृथा च सौदामनी दृश्यते माऽपि भैस्त्वम्।। | 14-10-14a 14-10-14b 14-10-14c 14-10-14d |
वह्निर्देवस्त्रातु वा सर्वतस्ते कामान्सर्वान्वर्षतु वासवो वा। वज्रं तथा स्थापयतां वधाय महाघोरं पुवमानं जलौघैः।। | 14-10-15a 14-10-15b 14-10-15c 14-10-15d |
मरुत्त उवाच। | 14-10-16x |
घोरः शब्दः श्रूयते वै महास्वनो वज्रस्यैष सहितो मारुतेन। आत्मा हि मे प्रव्यथते मुहुर्मुहु- र्न मे स्वास्थ्यं जायते चाद्य विप्र।। | 14-10-16a 14-10-16b 14-10-16c 14-10-16d |
संवर्त उवाच। | 14-10-17x |
वज्रादुग्राद्व्येतु भयं तवाद्य वातो भूत्वा व्रजतु नरेन्द्र वज्रम्। भयं त्वक्त्वा वरमन्यं वृणीष्व कं ते कामं तपसा साधयामि।। | 14-10-17a 14-10-17b 14-10-17c 14-10-17d |
मरुत्त उवाच। | 14-10-18x |
इन्द्रः साक्षात्सहसाऽभ्येतु विप्र हविर्यज्ञे प्रतिगृह्णातु चैव। स्वंस्वं हविश्चैव जुषन्तु देवा हुतं सोमं प्रतिगृह्णन्तु चैव।। | 14-10-18a 14-10-18b 14-10-18c 14-10-18d |
संवर्त उवाच। | 14-10-19x |
अयमिन्द्रो हरिभिरायाति राज- न्देवैः सर्वैस्त्वरितैः स्तूयमानः। मन्त्राहूतो यज्ञमिमं मयाऽद्य पश्यश्वैनं मन्त्रविस्रस्तकायम्।। | 14-10-19a 14-10-19b 14-10-19c 14-10-19d |
व्यास उवाच। | 14-10-20x |
ततो देवैः सहितो देवराजो रथे युङ्क्त्वा तान्हरीन्वाजिमुख्यान्। आयाद्यज्ञमथ राज्ञः पिपासु- राविक्षितस्याप्रमेयस्य सोमम्।। | 14-10-20a 14-10-20b 14-10-20c 14-10-20d |
तमायान्तं सहितं देवसङ्घैः प्रत्युद्ययौ सपुरोधा मरुत्तः। चक्रे पूजां देवराजाय चाग्र्यां यथाशास्त्रं विधिवत्प्रीयमाणः।। | 14-10-21a 14-10-21b 14-10-21c 14-10-21d |
संवर्त उवाच। | 14-10-22x |
सुस्वागतं ते पुरुहूतेह विद्व- न्यज्ञोऽप्ययं सन्निहिते त्वयीन्द्र। शोशुभ्यते बलवृत्रघ्न भूयः पिबस्व सोमं सुतमुद्यतं मया।। | 14-10-22a 14-10-22b 14-10-22c 14-10-22d |
मरुत्त उवाच। | 14-10-23x |
शिवेन मां पश्य नमश्च तेऽस्तु प्राप्तो यज्ञः सफलं जीवितं मे। अयं यज्ञं कुरुते मे सुरेन्द्र बृहस्पतेरवरो जन्मना च। | 14-10-23a 14-10-23b 14-10-23c 14-10-23d |
इन्द्र उवाच। | 14-10-24x |
जानामि ते गुरुमेनं तपोधनं बृहस्पतेरनुजं तिग्मतेजसम् यस्याह्वानादागतोऽहं नरेन्द्र प्रीतिर्मेऽद्य त्वयि मन्युः प्रनष्टः।। | 14-10-24a 14-10-24b 14-10-24c 14-10-24d |
संवर्त उवाच। | 14-10-25x |
यदि प्रीतस्त्वमसि वै देवराज तस्मात्स्वयं शाधि यज्ञे विधानम्। स्वयं सर्वान्कुरु भागान्सुरेन्द्र जानात्वयं सर्वलोकश्च देव।। | 14-10-25a 14-10-25b 14-10-25c 14-10-25d |
व्यास उवाच। | 14-10-26x |
एवमुक्तस्त्वाङ्गिरसेन शक्रः समादिदेश स्वयमेव देवान्। सभाः क्रियन्तामावसथाश्च मुख्याः सहस्रशश्चित्रभूताः समृद्धाः।। | 14-10-26a 14-10-26b 14-10-26c 14-10-26d |
क्लृप्ताः स्थूणाः कुरुतारोहणानि गन्धर्वाणामप्सरसां च शीघ्रम्। यत्र नृत्येरन्नप्सरसः समस्ताः स्वर्गोपमः क्रियतां यज्ञवाटः।। | 14-10-27a 14-10-27b 14-10-27c 14-10-27d |
इत्युक्तास्ते चक्रुराशु प्रतीता दिवौकसः शक्रवाक्यान्नरेन्द्र। ततो वाक्यं प्राह राजानमिन्द्रः प्रीतो राजन्पूज्यमानो मरुत्तम्।। | 14-10-28a 14-10-28b 14-10-28c 14-10-28d |
एष त्वयाऽहमिह राजन्समेत्य ये चाप्यन्ते तव पूर्वे नरेन्द्र। सर्वाश्चान्या देवताः प्रीयमाणा हविस्तुभ्यं प्रतिगृह्णन्तु राजन्।। | 14-10-29a 14-10-29b 14-10-29c 14-10-29d |
आग्नेयं वै लोहितमालभन्तां वैश्वदेवं बहुरूपं हि राजन्। निलं चोक्षाणं मेद्यमप्यालभन्तां चलच्छिश्नं सम्प्रदिष्टं द्विजाग्र्याः।। | 14-10-30a 14-10-30b 14-10-30c 14-10-30d |
ततो यज्ञो ववृधे तस्य राज- न्यत्र देवाः स्वयमन्नानि जह्रुः। यस्मिञ्शक्रो ब्राह्मणैः पूज्यमानः सदस्योऽभूद्धरिमान्देवराजः।। | 14-10-31a 14-10-31b 14-10-31c 14-10-31d |
ततः संवर्तश्चैत्यगतो माहात्मा यथा वह्निः प्रज्वलितो द्वितीयः। हवींष्युच्चैराह्वयन्देवसङ्घा- ञ्जुहावाग्नौ मन्त्रवत्सुप्रतीतः।। | 14-10-32a 14-10-32b 14-10-32c 14-10-32d |
ततः पीत्वा बलभित्सोममग्र्यं ये चाप्यन्ते सोमपा देवसङ्घाः। सर्वेऽनुज्ञाताः प्रययुः पार्थिवेन यथाजोषं तर्पिताः प्रीतिमन्तः।। | 14-10-33a 14-10-33b 14-10-33c 14-10-33d |
ततो राजा जातरूपस्य राशी- न्पदेपदे कारयामास हृष्टः। द्विजातिभ्यो विसृजन्भूरि वित्तं रराज वित्तेश इवारिहन्ता।। | 14-10-34a 14-10-34b 14-10-34c 14-10-34d |
ततो वित्तं विविधं सन्निधाय यथोत्साहं कारयित्वा च कोशम्। अनुज्ञातो गुरुणां संनिवृत्त्य शशास गामखिलां सागरान्ताम्।। | 14-10-35a 14-10-35b 14-10-35c 14-10-35d |
एवंगुणः सम्बभूवेह राजा यस्य क्रतौ तत्सुवर्णं प्रभूतम्। तत्त्वं समादाय नरेन्द्र वित्तं यजस्व देवांस्तपनीयैर्विधानैः।। | 14-10-36a 14-10-36b 14-10-36c 14-10-36d |
वैशम्पायन उवाच। | 14-10-37x |
ततो राजा पाण्डवो हृष्टरूपः श्रुत्वा वाक्यं सत्यवत्याः सुतस्य। मनश्चक्रे तेन वित्तेन यष्टुं ततोऽमात्यैर्मन्त्रयामास भूयः।। | 14-10-37a 14-10-37b 14-10-37c 14-10-37d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि दशमोऽध्यायः।। 10 ।। |
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