महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-044
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ब्रह्मणा महर्षीन्प्रति स्वस्वजातिषु श्रेष्ठवस्तु प्रतिपादनपूर्वकं ज्ञानस्याविनाशित्वकथनेन तस्यैव श्रेयःसाधनत्वोक्तिः।। 1 ।।
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ब्रह्मोवाच। | 14-44-1x |
यदादिमध्यपर्यन्तं ग्रहणोपायमेव च। नामलक्षणसंयुक्तं सर्वं वक्ष्यामि तत्त्वतः।। | 14-44-1a 14-44-1b |
अहः पूर्वं ततो रात्रिर्मासाः शुक्लादयः स्मृताः। श्रवणादीनि ऋक्षाणि ऋतवः शिशिरादयः।। | 14-44-2a 14-44-2b |
भूमिरादिस्तु गन्धानां रसानामाप एव च। रूपाणामादिरग्निस्तु स्पर्शादिर्वायुरुच्यते।। | 14-44-3a 14-44-3b |
शब्दस्यादिस्तथाऽऽकाशमेष भूतकृतो गुणः। अतः परं प्रवक्ष्यामि भूतानामादिमुत्तमम्।। | 14-44-4a 14-44-4b |
आदित्यो ज्योतिषामादिरग्निर्भूतादिरुच्यते। सावित्री सर्वविद्यानां देवतानां प्रजापतिः।। | 14-44-5a 14-44-5b |
ओङ्कारः सर्ववेदानां वचसां प्राण एव च। यदस्मिन्नियतं लोके सर्वं सावित्रमुच्यते।। | 14-44-6a 14-44-6b |
गायत्री च्छन्दसामादिः प्रजानां सर्ग उच्यते। गावश्चतुष्पदामादिर्मनुष्याणां द्विजातयः।। | 14-44-7a 14-44-7b |
श्येनः पतत्रिणामादिर्यज्ञानां हुतमुत्तमम्। प्रसर्पिणां तु सर्वेषां ज्येष्ठः सर्पो द्विजोत्तमाः।। | 14-44-8a 14-44-8b |
कृतमादिर्युगानां च सर्वेषां नात्र संशयः। हिरण्यं सर्वरत्नानामोषधीनां यवास्तथा।। | 14-44-9a 14-44-9b |
सर्वेषां भक्ष्यभोज्यानामन्नं परममुच्यते। द्रवाणां चैव सर्वेषां पेयानामाप उत्तमाः।। | 14-44-10a 14-44-10b |
स्थावराणां तु भूतानां सर्वेषामविशेषतः। ब्रह्मक्षेत्रं सदा पुण्यं प्लक्षः प्रवरजः स्मृतः।। | 14-44-11a 14-44-11b |
अहं प्रजापतीनां च सर्वेषां नात्र संशयः। मम विष्णुरचिन्त्यात्मा स्वयंभूरिति संस्मृतः।। | 14-44-12a 14-44-12b |
पर्वतानां महामेरुः सर्वेषामग्रजः स्मृतः। दिशां च प्रदिशां चोर्ध्वं दिक्पूर्वा प्रथमा तथा।। | 14-44-13a 14-44-13b |
तथा त्रिपथगा गङ्गा नदीनामग्रजा स्मृता। तथा सरोदपाननां सर्वेषां सागरोऽग्रजः।। | 14-44-14a 14-44-14b |
देवदानवभूतानां पिशाचोरगरक्षसाम्। नरकिन्नरयक्षाणां सर्वेषामीश्वरः प्रभुः।। | 14-44-15a 14-44-15b |
आदिर्विश्वस्य जगतो विष्णुर्ब्रह्ममयो महान्। ततः परतरं यस्मात्त्रैलोक्ये नेह विद्यते।। | 14-44-16a 14-44-16b |
आश्रमाणां च सर्वेषां गार्हस्थ्यं नात्र संशयः। लोकानामादिरव्यक्तं सर्वस्यान्तस्तदेव च।। | 14-44-17a 14-44-17b |
अहान्यस्तमयान्तानि उदयान्ता च शर्वरी। सुखस्यान्तं सदा दुःखं दुःखस्यान्तं सदा सुखम।। | 14-44-18a 14-44-18b |
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः। संयोगाश्च वियोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।। | 14-44-19a 14-44-19b |
सर्वं कृतं विनाशान्तं जातस्य मरणं ध्रुवम्। अशाश्वतं हि लोकेऽस्मिन्सदा स्थावरजङ्गमम्।। | 14-44-20a 14-44-20b |
इष्टं दत्तं तपोऽधीतं व्रतानि नियमाश्च ये। सर्वमेतद्विनाशान्तं ज्ञानस्यान्तो न विद्यते।। | 14-44-21a 14-44-21b |
तस्माज्ज्ञानेन शुद्धेन प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः। निर्ममो निरहंकारो मुच्यते सर्वपाप्मभिः।। | 14-44-22a 14-44-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि चतुश्चत्वारिशोऽध्यायः।। 44 ।। |
14-44-2 श्रविष्ठादीनि सर्वाणिति क.ट.थ.पाठः।। 14-44-3 रूपाणां ज्योतिरादित्य इति झ.पाठः।। 14-44-8 हुतं अग्नौ ब्राह्मणे वा देवतोद्देशेन दत्तम्।। 14-44-11 ब्रह्मवृक्षः सदा पुण्यः इति क.थ.पाठः।। 14-44-14 सरोदपाननां सरसां कूपादीनां च। संधिरार्षः। तथाचाश्वो वाहनानां सर्वेषां सागरोग्रज इति क.पाठः।। 14-44-15 ईश्वरः रुद्रः।।
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