महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-048
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ब्रह्मणा महर्षीन्प्रति योगिनां चातुर्विध्यादिकथनपूर्वकं मुमुक्षुवेद्यनानार्थकथनम्।। 1 ।।
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ब्रह्मोवाच। | 14-48-1x |
केचिद्ब्रह्ममयं वृक्षं केचिद्ब्रह्ममयं वनम्। केचित्परममव्यक्तं केचित्परमनामयम्। मन्यन्ते सर्वमप्येतदव्यक्तप्रभवाव्ययम्।। | 14-48-1a 14-48-1b 14-48-1c |
उच्छ्वासमात्रमपि चेद्योऽन्तकाले समो भवेत्। आत्मानमुपसङ्म्य सोमृतत्वाय कल्पते।। | 14-48-2a 14-48-2b |
निमेषमात्रमपि चेत्संयम्यात्मानमात्मनि। गच्छत्यात्मप्रसादेन विदुषां प्राप्तिमव्ययाम्।। | 14-48-3a 14-48-3b |
प्राणायामैरथ प्राणान्संयम्य स पुनःपुनः। दशद्वादशभिर्वापि चतुर्विंशात्समन्ततः।। | 14-48-4a 14-48-4b |
एवं पूर्वं प्रसन्नात्मा लभते यद्यदिच्छति। अव्यक्तात्सत्वमुद्रिक्तममृतत्वाय कल्पते।। | 14-48-5a 14-48-5b |
सत्वात्परतरं नान्यत्प्रशंसन्तीह तद्विदः। अनुमानाद्विजानीमः पुरुषं सत्वसंश्रयम्। न शक्यमन्यथा गन्तुं पुरुषं द्विजसत्तमाः।। | 14-48-6a 14-48-6b 14-48-6c |
क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम्। ज्ञानं त्यागोथ संन्यासः सात्विकं वृत्तमिष्यते।। | 14-48-7a 14-48-7b |
एतेनैवानुमानेन मन्यन्ते वै मनीषिणः। सत्वं च पुरुषश्चैव तत्र नास्ति विचारणा।। | 14-48-8a 14-48-8b |
आहुरेके च विद्वांसो ये ज्ञाने सुप्रतिष्ठिताः। क्षेत्रज्ञसत्वयोरैक्यमित्येतन्नोपपद्यते।। | 14-48-9a 14-48-9b |
पृथग्भूतस्तथा नित्यमित्येतदविचारितम्। पृथग्भावश्च विज्ञेयः सहजश्चापि तत्त्वतः।। | 14-48-10a 14-48-10b |
तथैवैकत्वनानात्वमिष्यते विदुषां नयः। मशकोदुम्बरे चैक्यं पृथक्त्वमपि दृश्यते।। | 14-48-11a 14-48-11b |
मत्स्यो यथाऽन्यः स्यादप्सु सम्प्रयोगस्तथा तयोः। सम्बन्धस्तोयबिन्दूनां पर्णैः कोकनदस्य च।। | 14-48-12a 14-48-12b |
गुरुरुवाच। | 14-48-13x |
इत्युक्तवन्तस्ते विप्रास्तदा लोकपितामहम्। पुनः संशयमापन्नाः पप्रच्छुर्मुनिसत्तमाः।। | 14-48-13a 14-48-13b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्व णि अनुगीतापर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।। 48 ।। |
14-48-2 भोक्तुः कालेन वै भवेदिति ट.पाठः।। 14-48-13 उक्तं विद्यते येषु ते उक्तवन्तः उक्तमर्थं सम्यगवधृतवन्त इत्यर्थः।।
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