महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-029
← आश्वमेधिकपर्व-028 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-029 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-030 → |
कृष्णेनार्जुनंप्रति यागीयहिंसाया अधर्म्यत्वाभावप्रतिपादकाध्वर्युयतिसंवादानुवादः।। 1 ।।
|
ब्राह्मण उवाच। | 14-29-1x |
गन्धान्न जिघ्रामि रासान्न वेद्मि रूपं न पश्यामि न च स्पृशामि। न चापि शब्दान्विविधाञ्शृणोमि न चापि सङ्कल्पमुपैमि कञ्चित्।। | 14-29-1a 14-29-1b 14-29-1c 14-29-1d |
अर्थानिष्टान्कामयते स्वभावः सर्वान्द्वेष्यान्प्रद्विषते स्वभावः। कामद्वेषानुद्भवतः स्वभावा- त्प्राणापानौ जन्तुदेहान्निवेश्य।। | 14-29-2a 14-29-2b 14-29-2c 14-29-2d |
तेभ्यश्चान्यांस्तेषु नित्यांश्च भावा- न्भूतात्मानं अक्षयेऽहं शरीरे। तस्मिंस्तिष्ठन्नास्मि सक्तः कथंचि- त्कामक्रोधाभ्यां जरया मृत्युना च।। | 14-29-3a 14-29-3b 14-29-3c 14-29-3d |
अकामयानस्य च सर्वकामा- नविद्विषाणस्य च सर्वदोषान्। न मे स्वभावेषु भवन्ति लेपा- स्तोयस्य बिन्दोरिव पुष्करेषु।। | 14-29-4a 14-29-4c 14-29-4d 14-29-4c |
नित्यस्य चैतस्य भवन्ति नित्या निरीक्ष्यमाणस्य बहून्स्वभावान्। न सज्जते कर्मसु भोगजालं दिवीव सूर्यस्य मयूखजालम्।। | 14-29-5a 14-29-5b 14-29-5c 14-29-5d |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। अध्वर्युयतिसंवादं तं निबोध यशस्विनि।। | 14-29-6a 14-29-6b |
प्रोक्ष्यमाणं पशुं दृष्ट्वा यज्ञकर्मण्यथाब्रवीत्। यतिरध्वर्युमासीनो हिंसोयमिति कुत्सयन्।। | 14-29-7a 14-29-7b |
तमध्वर्युः प्रत्युवाच नायं छागो विनश्यति। श्रेयसा योक्ष्यते जन्तुर्यज्ञाच्छ्रुतिरियं तथा।। | 14-29-8a 14-29-8b |
यो ह्यस्य पार्थिवो भागः पृथिवीं स गमिष्यति। यदस्य वारिजं किञ्चिदपस्तत्सम्प्रवेक्ष्यति।। | 14-29-9a 14-29-9b |
सूर्यं चक्षुर्दिशः श्रोत्रे प्राणोऽस्य दिवमेव च। आगमे वर्तमानस्य नमे दोषोस्ति कश्चन।। | 14-29-10a 14-29-10b |
यतिरुवाच। | 14-29-11x |
प्राणैर्वियोगे च्छागस्य यदि श्रेयः प्रपश्यसि। छागार्थे वर्तते यज्ञो भवतः किं प्रयोजनम्।। | 14-29-11a 14-29-11b |
अनु त्वां मन्यते माता अनु त्वां मन्यते पिता। मन्त्रविज्ञानमुन्नीय परिवर्ते विशेषतः।। | 14-29-12a 14-29-12b |
एवमेवानुमन्येरंस्तान्भवान्द्रष्टुमर्हति। तेषामनुमतिं श्रुत्वा शक्या कर्तुं विचारणा।। | 14-29-13a 14-29-13b |
अध्वर्युरुवाच। | 14-29-14x |
प्राणा अप्यस्य च्छागस्य प्रापितास्ते स्वयोनिषु। शरीरं केवलं शिष्टं निश्चेष्टमिति मे मतिः।। | 14-29-14a 14-29-14b |
इन्धनस्य तु तुल्येन शरीरेणि विचेतसा। हिंसा हि यष्टुकामानामिन्धनं पशुसंज्ञितम्।। | 14-29-15a 14-29-15b |
अहिंसा सर्वधर्माणामिति वृद्धानुशासनम्। यदहिंस्रं भवेत्कर्म तत्कार्यमिति विद्महे।। | 14-29-16a 14-29-16b |
अहिंसेति प्रतिज्ञेयं यदि वक्ष्याम्यतः परम्। शक्यं बहुविधं वक्तुं भवता कार्यदूषणम्।। | 14-29-17a 14-29-17b |
अहिंसा सर्वभूतानां नित्यमस्मासु रोचते। प्रत्यक्षतः साधयामो न परोक्षमुपास्महे।। | 14-29-18a 14-29-18b |
अध्वर्यरुवाच। | 14-29-19x |
भूमेर्गन्धगुणान्भुङ्क्ष्व पिबस्यापोमयान्रसान्। ज्योतिषां पश्यते रूपं स्पृशस्यनिलजान्गुणान्।। | 14-29-19a 14-29-19b |
शृणोष्याकाशजाञ्शब्दान्मनसा मन्यसे मतिम्। सर्वाण्येतानि भूतानि प्राणा इति च मन्यसे।। | 14-29-20a 14-29-20b |
प्राणादाने निवृत्तोसि हिंसायां वर्तते भवान्। नास्ति चेष्टा विना हिंसां किं वा त्वं मन्यसे द्विज।। | 14-29-21a 14-29-21b |
यतिरुवाच। | 14-29-22x |
अक्षरं च क्षरं चैव द्वैधीभावोऽयमात्मनः। अक्षरं तत्र सद्भावः स्वभावः क्षर उच्यते।। | 14-29-22a 14-29-22b |
प्राणो जिह्वा मनः सत्त्वं सद्भावो रजसा सह। भावैरेतैर्विमुक्तस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः।। | 14-29-23a 14-29-23b |
समस्य सर्वभूतेषु निर्ममस्य जितात्मनः। समन्तात्परिमुक्तस्य न भयं विद्यते क्वचित्।। | 14-29-24a 14-29-24b |
अध्वर्युरुवाच। | 14-29-25x |
सद्भिरेवेह संवादः कार्यो मतिमतांवर। भवतो हि मतं श्रुत्वा प्रतिभाति मतिर्मम।। | 14-29-25a 14-29-25b |
भगवन्भगवद्बुद्ध्या प्रतिबुद्धो ब्रवीम्यहम्। व्रतं मन्त्रकृतं कर्तुर्नापराधोस्ति मे द्विज।। | 14-29-26a 14-29-26b |
ब्राह्मण उवाच। | 14-29-27x |
उपपत्त्या यतिस्तूष्णीं वर्तमानस्ततः परम्। अध्वर्युरपि निर्मोहः प्रचचार महामखे।। | 14-29-27a 14-29-27b |
एवमेतादृशं मोक्षं सुसूक्ष्मं ब्राह्मणा विदुः। विदित्वा चानुतिष्ठन्ति क्षेत्रज्ञेनार्थदर्शिना।। | 14-29-28a 14-29-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेदिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः।। 29 ।। |
14-29-2 सर्वानेतान्द्वेष्टि चैव स्वभाव इति क.ट.पाठः। जन्तुदेहानिहैत्येति क.ट.पाठः।। 14-29-3 नास्ति शक्यः कथंचिदिति क.ट.थ.पाठः।। 14-29-12 अत्र त्वां मन्यतां भ्राता पिता माता सखेति च। मन्त्रयस्वैनमुन्नीय परवन्तं विशेषत इति झ.द.पाठः।। 14-29-19 भूमेरिति नानुपहत्य भूतानि भोगः सम्भवतीति न्यायाज्जीवतोऽपरिहार्यैव हिंसेत्यर्थः।। 14-29-21 किं कथं त्वं मन्यसेऽहिंसामिति शेषः।। 14-29-26 मतं मन्तुं क्रतुं कर्तुमिति थ.पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-028 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-030 |