महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-083
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अर्जुनेनास्वानुसरणवशान्मगधदेशगमनम्।। 1 ।। तत्र जरासंधपौत्रस्य मेघसंधेः पराजयपूर्वकं तत्रतत्र म्लेच्छादिपराजयः।। 2 ।।
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वैशम्पायन उवाच। | 14-83-1x |
स तु वाजी समुद्रान्तां पर्येत्य वसुधामिमाम्। निवृत्तोऽभिमुखो राजन्येन वारणसाह्वयम्।। | 14-83-1a 14-83-1b |
अनुगच्छंश्च तुरगं निवृत्तोऽथ किरीटभृत्। यदृच्छया समापेदे पुरं राजगृहं तदा।। | 14-83-2a 14-83-2b |
तमभ्याशगतं दृष्ट्वा सहदेवात्मजः प्रभो। क्षत्रधर्मे स्थितो वीरः समरायाजुहाव ह।। | 14-83-3a 14-83-3b |
ततः पुरात्स निष्क्रम्य रथी धन्वी शरी तली। मेघसन्धिः पदातिं तं धनंजयमुपाद्रवत्।। | 14-83-4a 14-83-4b |
आसाद्य च महातेजा मेघसन्धिर्धनंजयम्। बालभावान्महाराज प्रोवाचेदं न कौशलात्।। | 14-83-5a 14-83-5b |
किमयं चार्यते वाजी स्इत्रीमध्य इव भारत। हयमेनं हरिष्यामि प्रयतस्व विमोक्षणे।। | 14-83-6a 14-83-6b |
अदत्तानुनयो युद्धे यदि त्वं पितृभिर्मम। करिष्यामि तवातिथ्यं प्रहर प्रहरामि च।। | 14-83-7a 14-83-7b |
इत्युक्तः प्रत्युवाचैनं प्रहसन्निव पाण्डवः। विघ्नकर्ता मया वार्य इति मे व्रतमाहितम्।। | 14-83-8a 14-83-8b |
भ्रात्रा ज्येष्ठेन नृपते तवापि विदितं ध्रुवम्। प्रहरस्व यथाशक्ति न मन्युर्विद्यते मम।। | 14-83-9a 14-83-9b |
इत्युक्तः प्राहरत्पूर्वं पाण्डवं मगधेस्वरः। किरञ्शरसहस्राणि वर्षाणीव सहस्रदृक्।। | 14-83-10a 14-83-10b |
ततो गाण्डीवभृच्छूरो गाण्डीवप्रहितैः शरैः। चकार मोघांस्तान्बाणान्सयत्नान्भरतर्षभ।। | 14-83-11a 14-83-11b |
स मोघं तस्य बाणौघं कृत्वा वानरकेतनः। शरात्मुमोच ज्वलितान्दीप्तास्यानिव पन्नगान्।। | 14-83-12a 14-83-12b |
ध्वजे पताकादण्डेषु रथे यन्त्रे हयेषु च। अन्येषु च रथाङ्गेषु न शरीरे न सारथौ।। | 14-83-13a 14-83-13b |
संरक्ष्यमाणः पार्थेन शरीरे सव्यसाचिना। मन्यमानः स्ववीर्यं तन्मागधः प्राहिणोच्छरान्।। | 14-83-14a 14-83-14b |
ततो गाण्डीवधन्वा तु मागधेन भृशाहतः। बभौ वसन्तसमये पलासः पुष्पितो यथा।। | 14-83-15a 14-83-15b |
अवध्यमानः सोऽभ्यघ्नन्मागधः पाण्डवर्षभम्। तेन तस्थौ स कौरव्य लोकवीरस्य दर्शने।। | 14-83-16a 14-83-16b |
सव्यसाची तु संक्रुद्धो विकृष्य बलवद्धनुः। हयांश्चकार निर्जीवान्सारथेश्च शिरोऽहरत्।। | 14-83-17a 14-83-17b |
धनुश्चास्य महच्चित्रं क्षुरेण प्रचकर्त ह। हस्तावापं पताकां च ध्वजं चास्यन्यपातयत्।। | 14-83-18a 14-83-18b |
स राजा व्यथितो व्यश्वो विधनुर्हतसारथिः। गदामादाय कौन्तेयमभिद्रद्राव वेगवान्।। | 14-83-19a 14-83-19b |
तस्यापतत एवाशु गदां हेमपरिष्कृताम्। शरैश्चकर्त बहुधा बहुभिर्गृध्रवाजितैः।। | 14-83-20a 14-83-20b |
सा गदा शकलीभूता विशीर्णिमणिबन्धना। व्याली विमुच्यमानेन पपात धरणीतले।। | 14-83-21a 14-83-21b |
विरथं विधनुष्कं च गदया परिवर्जितम्। `नैच्छत्ताडयितुं धीमानर्जुनः समराग्रणीः।। | 14-83-22a 14-83-22b |
तत एनं विमनसं क्षत्रधर्मे व्यवस्थितम्।।' सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यमब्रवीत्कपिकेतनः।। | 14-83-23a 14-83-23b |
पर्याप्तः क्षत्रधर्मोऽयं दर्शितः पुत्र गम्यताम्। बह्वेतत्समरे कर्म तव बालस्य पार्थिव।। | 14-83-24a 14-83-24b |
युधिष्ठिरस्य संदेशो न हन्तव्या नृपा इति। तेन जीवसि राजंस्त्वमपराद्धोऽपि मे रणे।। | 14-83-25a 14-83-25b |
इति मत्वा तदाऽऽत्मानं प्रत्यादिष्टं स्म मागधः। तथ्यमित्यभिगम्यैनं प्राञ्जलिः प्रत्यपूजयत्।। | 14-83-26a 14-83-26b |
परिजितोस्मि भद्रं ते नाहं योद्धुमिहोत्सहे। यद्यत्कृत्यं मया तेऽद्य तद्ब्रूहि कृतमेव तु।। | 14-83-27a 14-83-27b |
तमर्जुनः समाश्वास्य पुनरेवेदमब्रवीत्। आगन्तव्यं परां चैत्रीमश्वमेधे नृपस्य नः।। | 14-83-28a 14-83-28b |
इत्युक्तः स तथेत्युक्त्वा पूजयमास तं हयम्। फल्गुनं च युधिश्रेष्ठं विदिवत्सहदेवजः।। | 14-83-29a 14-83-29b |
ततो यथेष्टमगमत्पुनरेव स कौरवः। ततः समुद्रतीरेण वङ्गान्पुण्ड्रान्सकेरलान्।। | 14-83-30a 14-83-30b |
तत्रतत्र च भूरीणि म्लेच्छसैन्यान्यनेकशः। विजिग्ये धनुषा राजन्गाण्डीवेन धनंजयः।। | 14-83-31a 14-83-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि त्र्यशीतितमोऽध्यायः।। 83 ।। |
14-83-7 अदत्तानुनयः अशिक्षितः।। 14-83-20 गृध्रवाजितैः गृध्रपक्षयुतैः।।
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