महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-018
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ब्राह्मणेन कृष्णंप्रति प्राणिनां जननमरणादिप्रतिपादकसिद्धकश्यपसंवादनुवादः।। 1 ।।
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वासुदेव उवाच। | 14-18-1x |
ततस्तस्योपसङ्गृह्य पादौ प्रश्नान्सुदुर्वचान्। पप्रच्छ तांश्च धर्मान्स प्राह धर्मभृतांवरः।। | 14-18-1a 14-18-1b |
काश्यप उवाच। | 14-18-2x |
कथं शरीराच्च्यवते कथं चैवोपपद्यते। कथं कष्टाच्च संसारात्संसरन्परिमुच्यते।। | 14-18-2a 14-18-2b |
आत्मानं वा कथं युक्त्वा तच्छरीरं विमुञ्चति। शरीरे च विनिर्मुक्तो कथमन्यत्प्रपद्यते।। | 14-18-3a 14-18-3b |
कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नरः। उपभुङ्क्ते क्व वा कर्म विदेहस्योपतिष्ठते।। | 14-18-4a 14-18-4b |
ब्राह्मण उवाच। | 14-18-5x |
एवं सञ्चोदितः सिद्धः प्रश्नांस्तान्प्रत्यभाषत। आनुपूर्व्येण वार्ष्णेय तन्मे निगदतः शृणुः।। | 14-18-5a 14-18-5b |
सिद्ध उवाच। | 14-18-6x |
`अस्मिन्नेवाशु फलदा आयुष्यास्तु क्रियाःस्मृताः। आयुःकीर्तिकराणीह यानि कृत्यानि सेवते। शरीरग्रहणेऽन्यस्मिंस्तेषु क्षीणेषु सर्वशः।। | 14-18-6a 14-18-6b 14-18-6c |
आयुःक्षयपरीतात्मा विपरीतानि सेवते। बुद्धिर्व्यावर्तते चास्य विनाशे प्रत्युपस्थिते।। | 14-18-7a 14-18-7b |
सत्त्वं बलं च कालं चाविदित्वा चात्मनस्तथा। अतिवेलमुपाश्नाति स्वविरुद्धान्यनात्मवान्।। | 14-18-8a 14-18-8b |
यदाऽयमतिकष्टानि सर्वाण्युपनिषेवते। अत्यर्थमपि वा भुङ्क्ते न वा भुङ्क्ते कदाचन।। | 14-18-9a 14-18-9b |
दुष्टान्नामिषपानं च यदन्योन्यविरोधि च। गुरु चाप्यमितं भुङ्क्ते नातिजीर्णे दिवा पुनः।। | 14-18-10a 14-18-10b |
व्यायाममतिमात्रं च व्यावाय चोपसेवते। सततं कर्मलोभाद्वा प्राप्तं वेगं विधारयेत्।। | 14-18-11a 14-18-11b |
रसाभियुक्तमन्नं वा दिवास्वप्नं च सेवते। अपक्वानागते काले स्वयं दोषान्प्रकोपयेत्।। | 14-18-12a 14-18-12b |
स्वदोषकोपनाद्रोगं लभते मरणान्तिकम्। अपि वोद्बन्धनादीनि परीतानि व्यवस्यति।। | 14-18-13a 14-18-13b |
तस्य तैः कारणैर्जन्तोः शरीरं च्यवते तदा। जीवितं प्रोच्यमानं तद्यथावदुपधारय।। | 14-18-14a 14-18-14b |
ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः। शरीरमनुपर्येत्य सर्वान्प्राणान्रुणद्धि वै।। | 14-18-15a 14-18-15b |
अत्यर्थं बलवानूष्मा शरीरे परिकोपितः। भिनत्ति जीवस्थानानि तानि कर्मणि विद्धि च।। | 14-18-16a 14-18-16b |
ततः सवेदनः सद्यो जीवः प्रच्यवते क्षरन्। शरीरं त्यजते जन्तुश्छिद्यमानेषु मर्मसु। वेदनाभिः परीतात्मा तद्विद्धि द्विजसत्तम।। | 14-18-17a 14-18-17b 14-18-17c |
जनीमरणसंविग्राः सततं सर्वजन्तवः। दृश्यन्ते संत्यजन्तश्च शरीराणि द्विजर्षभ।। गर्भसंक्रमणे चापि गर्भाणापुपसर्पणे। तादृशीमेव लभते वेदनां मानवः पुनः।। | 14-18-18a 14-18-18b 14-18-19c 14-18-19b |
भिन्नसंधिरथ क्लेदमद्भिः स लभते नरः।। | 14-18-20a |
यथा पञ्चसु भूतेषु सम्भूतत्वं नियच्छति। शैत्यात्प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः।। | 14-18-21a 14-18-21b |
यः स पञ्चसु भूतेषु प्राणापाने व्यवस्थितः। स गच्छत्यूर्ध्वगो वायुः कृच्छ्रान्मुक्त्वा शरीरिणः। शरीरं च जहात्येवं निरुच्छ्वासश्च दृश्यते।। | 14-18-22a 14-18-22b 14-18-22c |
स निरूष्मा निरुच्छ्वासो निःश्रीको गतचेतनः। कर्मणा सम्परित्यक्तो मृत इत्युच्यते नरः।। | 14-18-23a 14-18-23b |
स्रोतोभिर्यैर्विजानाति इन्द्रियार्थाञ्शरीरभृत्। तैरेव न विजानाति प्राणानाहारसम्भवान्।। | 14-18-24a 14-18-24b |
तत्रैव कुरुते काये यः स जीवः सनातनः।। | 14-18-25a |
तथा यद्यद्भवेन्मुक्तं सन्निपाते क्वचित्क्वचित्। तत्तन्मर्म विजानीहि शास्त्रदृष्टं हि तत्तथा।। | 14-18-26a 14-18-26b |
तेषु मर्मसु भिन्नेषु ततः स समुदीरयन्। आविश्य हृदयं जन्तोः सत्त्वं चाशु रुणद्धि वै।। | 14-18-27a 14-18-27b |
ततः सचेतनो जन्तुर्नाभिजानाति किञ्चन। तमसा संवृतज्ञानः संवृतेष्वेव मर्मसु। स जीवो निरदिष्ठानश्चाल्यते मातरिश्वना।। | 14-18-28a 14-18-28b 14-18-28c |
ततः स तं महोच्छ्वासं भृशमुच्छ्वस्य दारुणम्। निष्क्रमन्कम्पयत्याशु तच्छरीरमचेतनम्।। | 14-18-29a 14-18-29b |
स जीवः प्रच्युतः कायात्कर्मभिः स्वैः समावृतः। अङ्कितः स्वैः शुभैः पुण्यैः पापैर्वाऽप्युपपद्यते।। | 14-18-30a 14-18-30b |
ब्राह्मणा ज्ञानसम्पन्ना यथावच्छ्रुतनिश्चयाः। इतरं कृतपुण्यं वा तं विजानन्ति लक्षणैः।। | 14-18-31a 14-18-31b |
यथान्धकारे खद्येतं दीप्यमानं ततस्ततः। चक्षुष्मन्तः प्रपश्यन्ति तथा च ज्ञानचक्षुषः।। | 14-18-32a 14-18-32b |
पश्यन्त्येवंविधं सिद्धा जीवं दिव्येन चक्षुषा। च्यवन्तं जायमानं च योनिं चानुप्रवेशितम्।। | 14-18-33a 14-18-33b |
तस्य स्थानानि दृष्टानि विविधानीह शास्त्रतः। कर्मभूमिरियं भूमिर्यत्र तिष्ठन्ति जन्तवः।। | 14-18-34a 14-18-34b |
ततः शुभाशुभं कृत्वा लभन्ते सर्वदेहिनः। इहैवोच्चावचान्भोगान्प्राप्नुवन्ति स्वकर्मभिः।। | 14-18-35a 14-18-35b |
इहैवाशुभकर्माणः कर्मभिर्निरयं गताः। अवाग्गतिरियं कष्टा यत्र पच्यन्ति मानवाः। तस्मात्सुदुर्लभो मोक्षो रक्ष्यश्चात्मा ततो भृशम्।। | 14-18-36a 14-18-36b 14-18-36c |
ऊर्ध्वं तु जन्तवो गत्वा येषु स्थानेष्ववस्थिताः। कीर्त्यमानानि तानीह तत्त्वतः संनिबोध मे।। | 14-18-37a 14-18-37b |
तच्छ्रुत्वा नैष्ठिकीं बुद्धिं बुद्ध्येथाः कर्मनिश्चयम्। तारारूपाणि सर्वाणि यत्रैतच्चन्द्रमण्डलम्।। | 14-18-38a 14-18-38b |
यत्र विभ्राजते लोके स्वभासा सूर्यमण्डलम्। स्थानान्येतानि जानीहि जनानां पुण्यकर्मणाम्।। | 14-18-39a 14-18-39b |
कर्मक्षयाच्च ते सर्वे च्यवन्ते वै पुनः पुनः। तत्रापि च विशेषोस्ति दिवि नीचोच्चमध्यमः।। | 14-18-40a 14-18-40b |
न च तत्रापि संतोषो दृष्ट्वा दीप्ततरां श्रियम्। इत्येता गतयः सर्वाः पृथक्ते समुदीरिताः।। | 14-18-41a 14-18-41b |
उपपत्तिं तु वक्ष्यामि गर्भस्याहमतः परम्। तथावत्तां निगदतः शृणुष्वावहितो द्विज।। | 14-18-42a 14-18-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि अष्टादशोऽध्यायः।। 18 ।। |
14-18-10 दुष्टान्नं विषमान्नं विते क.ट.पाठः।। 14-18-12 अपक्वाशं गते काले स्वयं दोषप्रकोपनमिति क.ठ.थ.पाठः।। 14-18-19 गर्भसङ्क्रमणे गर्भस्थदेहप्रवेशे।। 14-18-21 श्लेष्मा प्रकुपित इति क.थ.पाठः।। 14-18-24 स्नोतोभिरिन्द्रियैः।।
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