महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-049
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महर्षिभिर्ब्रह्मणंप्रति धर्मविषये नानाविधवादिविप्रतिपत्तिप्रदर्शनपूर्वकं तत्प्रयुक्तस्वीयसंशयनिवर्तनप्रार्थना।। 1 ।।
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ऋषय ऊचुः। | 14-49-1x |
को वा स्विदिह धर्माणामनुष्ठेयतमो मतः। व्याहतामिव पश्यामो धर्मस्य विविधां गतिम्।। | 14-49-1a 14-49-1b |
ऊर्द्ध्वं देहाद्वदन्त्येके नैतदस्तीति चापरे। केचित्संशयितं सर्वं निःसंशयमथापरे।। | 14-49-2a 14-49-2b |
अनित्यं नित्यमित्येके नास्त्यस्तीत्यपि चापरे। त्रिधेत्येके द्विधेत्येके व्याकीर्णमिति चापरे।। | 14-49-3a 14-49-3b |
मन्यन्ते ब्राह्मणा एव ब्रह्मज्ञास्तत्त्वदर्शिनः। एकमेके पृथक्चान्ये बहुत्वमिति चापरे।। | 14-49-4a 14-49-4b |
देशकालावुभौ केचिन्नैतदस्तीति चापरे। जटाजिनधराश्चान्ये मुण्डाः केचिदसंवृताः।। | 14-49-5a 14-49-5b |
अश्नानं केचिदिच्छन्ति स्नानमप्यपरे जनाः। मन्यन्ते ब्राह्मणा देवा ब्रह्मज्ञास्तत्त्वदर्शिनः।। | 14-49-6a 14-49-6b |
आहारं केचिदिच्छन्ति केचिच्चानशने रताः। कर्म केचित्प्रशंसन्ति प्रशान्ति चापरे जनाः।। | 14-49-7a 14-49-7b |
केचिन्मोक्षं प्रशंसन्ति केचिद्भोगान्पृथग्विधान्। धनानि केचिदिच्छन्ति निर्धनत्वमथापरे। उपास्य साधनं त्वेके नैतदस्तीति चापरे।। | 14-49-8a 14-49-8b 14-49-8c |
अहिंसानिरताश्चान्ये केचिद्धिंसापरायणाः। पुण्येन यशसा चान्ये नैतदस्तीति चापरे।। | 14-49-9a 14-49-9b |
सद्भावनिरताश्चान्ये केचित्संशयिते स्थिताः। दुःखादन्ये सुखादन्ये ध्यानमित्यपरे जनाः।। | 14-49-10a 14-49-10b |
यज्ञ इत्यपरे विप्राः प्रदानमिति चापरे। तपस्त्वन्ये प्रशंसन्ति स्वाध्यायमपरे जनाः।। | 14-49-11a 14-49-11b |
ज्ञानं संन्यासमित्येके स्वभावं भूतचिन्तकाः। सर्वमेके प्रशंसन्ति न सर्वमिति चापरे।। | 14-49-12a 14-49-12b |
एवं व्युत्थापिते धर्मे बहुधा विप्रबोधिते। निश्चयं नाधिगच्छामः श्रेयः किमिति सत्तम।। | 14-49-13a 14-49-13b |
इदं श्रेय इदं श्रेय इत्येवं व्युस्थितो जनः। यो हि यस्मिन्रतो धर्म स तं पूजयते सदा।। | 14-49-14a 14-49-14b |
तेन नोऽविहिता प्रज्ञा मनश्च बहुलीकृतम्। एतदाख्यातमिच्छामः श्रेयः किमिति सत्तम।। | 14-49-15a 14-49-15b |
अतः परं तु यद्गुह्यं तद्भवान्वक्तुमर्हति। सत्वक्षेत्रज्ञयोश्चापि सम्बन्धः केन हेतुना।। | 14-49-16a 14-49-16b |
एवमुक्तः स तैर्विप्रैर्भगवाँल्लोकभावनः। तेभ्यः शशंस धर्मात्मा याथातथ्येन बुद्धिमान्।। | 14-49-17a 14-49-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि एकोनपञ्चशोऽध्यायः।। 49 ।। |
14-49-1 न कर्मणेति कुर्वन्नेवेह कर्माणीत्युभयविधश्रुतिदर्शनान्मुह्यामहे इति भावः।।
14-49-2 ऊर्ध्वं देहात् देहनाशादूर्ध्वमपि आत्मास्तीत्येके वदन्तीति सम्बन्धः। नैतदिति लोकायताः। सर्वं संशयितमिति स्याद्वादिनः सप्तभङ्गीनयज्ञाः। निःसंशयमिति प्रातिस्विकं सर्वं तैर्तिकाः।।
14-49-3 अनित्यं सर्वं सृष्टिप्रलययुक्तमिति तार्किकादयः। नित्यं प्रवाहनित्यमिति मीमांसकाः। नास्तीति शून्यवादिनः। अस्ति परंतु क्षणिकमिति सौगताः।।
14-49-6 अस्नानं नैष्ठिकब्रह्मचर्यम्। स्नानं गार्हस्थ्यम्।।
14-49-8 साधनं ध्यानादिकमुपास्य कृत्वापि नैतदस्तीति पश्चात्सर्वमपवदन्ति।।
14-49-9 पुण्येन पुण्यार्थमेव यतेतेत्यन्ये। एतत्पुण्यं नास्त्येवेत्यन्ये लोकायताः।।
14-49-10 संशयिते कृतमस्ति नवेति संदिग्धे पथि। दुःखात् दुःखनिवृत्त्यर्थं सुखात्सुखप्राप्त्यर्थं ध्यानं कर्तव्यम्। निष्काममेवेत्यपरे।।
14-49-11 सत्यमेके प्रशंसन्ति असत्यमिति चापरे इति थ.पाठः।।
14-49-12 ज्ञानं संन्यासं संन्यासैकप्राप्यम्। भूतचिन्तकाः वस्तुतत्त्वविचारकाः। स्वभावं साधनपौष्कल्यम्। साधनपौष्कल्यस्वाभाव्यादेव ज्ञानमुत्पद्यते आश्रमान्तरेपि न संन्यासमात्रेणेत्याहुः।।
14-49-15 अविहिता अशिक्षिता। आख्यातं त्वयेति शेषः।।
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