महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-109
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति भोजनविधिकथनम्।। 1 ।। तथा गोग्रासदानप्रकारकथनम्।। 2 ।। तथा तिलप्रशंसनपूर्वकं तेषां मिक्षूणां च ब्राह्मणेन स्वयं यन्त्रे निपीडनप्रतिषेधनम्।। 3 ।।
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युधिष्ठिर उवाच। | 14-109-1x |
अन्नदानफलं श्रुत्वा प्रीतोस्मि मधुसूदन। भोजनस्य विधिं वक्तुं देवदेव त्वमर्हसि।। | 14-109-1a 14-109-1b |
भगवानुवाच। | 14-109-2x |
बोजनस्य द्विजातीनां विधानं शृणु पाण्डव। स्नातः शुचिः शुचौ देशे निर्जने हुतपावकः।। | 14-109-2a 14-109-2b |
मण्डलं कारयित्वा च चतुरश्रं द्विजोत्तमः। क्षत्रियश्चेत्ततो वृत्तं वैश्योऽर्धेन्दुसमाकृतिम्।। | 14-109-3a 14-109-3b |
आर्द्रपादस्तु भुञ्जीयात्प्राङ्मुखश्चासने शुचौ। पादाभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा पादेनैकेन वा पुनः।। | 14-109-4a 14-109-4b |
नैकवासास्तु भुञ्जीयान्न चान्तर्धाय वा द्विजः। न भिन्नपात्रे भुञ्जीत पर्णपृष्ठे तथैव च।। | 14-109-5a 14-109-5b |
अन्नं पूर्वं नमस्कुर्यात्प्रहृष्टेनान्तरात्मना। नान्यदालोकयेदन्नान्न जुगुप्सेन तत्परः।। | 14-109-6a 14-109-6b |
जुगुप्सितं च यच्चान्नं राक्षसा एव भुञ्जते। पाणिना जलमुद्धृत्य कुर्यादन्नं प्रदक्षिणम्।। | 14-109-7a 14-109-7b |
अपेयं तद्विजानीयात्पीत्वा चान्द्रायणं चरेत्। परिवेषजलादन्यत्पेयमेव तु मन्त्रवत्।। | 14-109-8a 14-109-8b |
पञ्च प्राणाहुतीः कुर्यात्समन्त्रं तु पृथक्पृथक्।। | 14-109-9a |
यथा रसं न जानाति जिह्वा प्रामाहुतौ नृप। तथा समाहितः कुर्यात्प्राणाहुतिमतन्द्रिकतः।। | 14-109-10a 14-109-10b |
विदित्वाऽन्नमथान्नादं पञ्च प्राणांश्च पाण्डव। यः कुर्यादाहुतीः पञ्च तेनेष्टाः पञ्चवायवः।। | 14-109-11a 14-109-11b |
अतोऽन्यथा तु भुञ्जानो ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः। तेनान्नेनासुरान्प्रेतान्राक्षसांस्तर्पयिष्यति।। | 14-109-12a 14-109-12b |
वक्त्रप्रमाणान्पिण्डांश्च ग्रसेदेकैकशः पुनः। वक्त्राधिकं तु यत्पिण्डमात्मोच्छिष्टं तदुच्यते।। | 14-109-13a 14-109-13b |
पिण्डावशिष्टमन्यच्च वक्त्रान्निस्सृतमेव च। अभोज्यं तद्विजानीयाद्भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-109-14a 14-109-14b |
स्वमुच्छिष्टं तु यो भुङ्क्ते यो भुङ्क्ते मुक्तभोजनम्। चान्द्रायणं चरेन्कृच्छ्रं प्राजापत्यमथापि वा।। | 14-109-15a 14-109-15b |
स्त्रीपात्रभुङ्नरः पापः स्त्रीणामुच्छिष्टभुक्तथा। तया सह च यो भुङ्क्ते स भुङ्क्ते मद्यमेव हि। न तस्य निष्कृतिर्दृष्टा मुनिभिस्तत्वदर्शिभिः।। | 14-109-16a 14-109-16b 14-109-16c |
पिबतः पतिते तोये भोजने मुखनिस्सृते। अभोज्यं तद्विजानीयाद्भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-109-17a 14-109-17b |
पीतशेषं तु तन्नाम न पेयं पाण्डुनन्दन। पिबेद्यदि हि तन्मोहाद्द्विजश्चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-109-18a 14-109-18b |
पानीयानि पिबेद्यते तत्पात्रं द्विजसत्तमः। अनुच्छिष्टं भवेत्तावद्यावद्भूमौ न निक्षिपेत्।। | 14-109-19a 14-109-19b |
मौनी वाऽप्यथवा भूमौ नावलोक्य दिशस्तथा। भुञ्जीत विधिवद्विप्रो न चोच्छिष्टं प्रदापयेत्।। | 14-109-20a 14-109-20b |
सदा चात्यशनं नाद्यान्नातिहीनं च कर्हिचित्। यथाऽन्नेन व्यथा न स्यात्तथा भुञ्जीत नित्यशः।। | 14-109-21a 14-109-21b |
उदक्यामपि चण्डालं श्वानं सूकरमेव वा। भुञ्जानो यदि वा पश्येत्तदन्नं च परित्यजेत्। भुञ्जानो ह्यत्यजन्मोहाद्द्विजश्चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-109-22a 14-109-22b 14-109-22c |
केशकीटोपपन्नं च मुखमारुतवीजितम्। अभोज्यं तद्विजानीयाद्भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-109-23a 14-109-23b |
उत्थाय च पुनः स्पृष्टं पादस्पृष्टं च लङ्घितम्। अन्नं तद्राक्षसं विद्यात्तस्मात्तत्परिवर्जयेत्।। | 14-109-24a 14-109-24b |
राक्षसोच्छिष्टभुग्विप्रः सप्त पूर्वान्परानपि। नरके रौरवे घोर स पितॄन्पातयिष्यति।। | 14-109-25a 14-109-25b |
तस्मिन्नाचमनं कुर्याद्यस्मिन्पात्रे स भुक्तवान्। यद्युत्तिष्ठत्यनाचान्तो भुक्तवानासनात्ततः। स्नानं सद्यः प्रकुर्वीत सोन्यथाऽप्रयतो भवेत्।। | 14-109-26a 14-109-26b 14-109-26c |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-109-27x |
तृणमुष्टिविधानं च तृणमाहात्म्यमेव च। इक्षोः सोमसमुद्भूतिं वक्तुमर्हसि मानदः।। | 14-109-27a 14-109-27b |
भगवानुवाच। | 14-109-28x |
पितरो वृषभा ज्ञेयो गावो लोकस्य मातरः। तासां तु पूजया राजन्पूजिताः पितृदेवताः।। | 14-109-28a 14-109-28b |
सभा प्रपा गृहाश्चापि देवतायतनानि च। शुद्ध्यन्ति शकृता यासांकिं भूतमधिकं ततः।। | 14-109-29a 14-109-29b |
ग्रासमुष्टिं परगवे दद्यात्संवत्सरं तु यः। अकृत्वा स्वयमाहारं प्राप्तस्तत्सार्वकालिकम्।। | 14-109-30a 14-109-30b |
गावो मे मातरः सर्वाः पितरश्चैव गोवृषाः। ग्रासमुष्टिं मया दत्तं प्रतिगृह्णीत मातरः।। | 14-109-31a 14-109-31b |
इत्युक्त्वाऽनेन मन्त्रेण गायत्र्या वा समाहितः। अभिमन्त्र्य ग्रासमुष्टिं तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-109-32a 14-109-32b |
यत्कृतं दुष्कृतं तेन ज्ञानतोऽज्ञानतोपि वा। तस्य नश्यति तत्सर्वं दुःखप्नं च विनश्यति।। | 14-109-33a 14-109-33b |
तिलाः पिवित्राः पापघ्ना नारायणसमुद्भवाः। तिलाञ्श्राद्धे प्रशंसनति दानमेतदनुत्तमम्।। | 14-109-34a 14-109-34b |
तिलान्दद्यात्तिलान्भक्ष्यात्तिलानप्रातरुपस्पृशेत्। तिलंतिलमिति ब्रूयात्तिलाः पापहरा हि ते।। | 14-109-35a 14-109-35b |
क्रीत्वा प्रतिगृहीत्वा वा न विक्रेया द्विजातिभिः। भोजनाभ्यञ्जनाद्दानाद्योन्यत्तु कुरुते तिलैः। कृमिर्भूत्वा श्वविष्ठायां पितृभिः सह मज्जति।। | 14-109-36a 14-109-36b 14-109-36c |
तिलान्नपीडयेद्विप्रो यन्त्रचक्रे स्वयं नृप। पीडयन्हि द्विजो मोहान्नरकं याति रौरवम्।। | 14-109-37a 14-109-37b |
इक्षुवंशोद्भवः सोमः सोमवंशोद्भवा द्विजाः। इक्षुं न पीडयेत्तस्मादिक्षुघात्यात्मघातकः।। | 14-109-38a 14-109-38b |
इक्षुदण्डसहस्राणामेकैकेन युधिष्ठिर। ब्रह्महत्यामवाप्नोति द्विजश्चेद्यन्त्रपीडकः। तस्मान्न पीडयेदिक्षुं यन्त्रचक्रे द्विजोत्तमः।। | 14-109-39a 14-109-39b 14-109-39c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि नवाधिकशततमोऽध्यायः।। 109 ।। |
आश्वमेधिकपर्व-108 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-110 |