महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-110
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रत्यापद्धर्मकथनम्।। 1 ।। तथा प्रशस्ताप्रशस्तब्राह्मणलक्षणकथनम्।। 2 ।। तथा सामान्यतो नानाधर्मकथनपूर्वकं ब्राह्मण्यसिद्धिपर्रकारकथनम्।। 3 ।। तथा गुर्वाचार्योपाध्यायलक्षणकथनम्।। 4 ।।
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युधिष्ठिर उवाच। | 14-110-1x |
समुच्चयं च धर्माणां भोज्याभोज्यं तथैव च। श्रुतं मया त्वत्प्रसादादापद्धर्मं ब्रवीहि मे।। | 14-110-1a 14-110-1b |
भगवानुवाच। | 14-110-2x |
दुर्भिक्षे राष्ट्रसंबाधेऽप्याशौचे मृतसूतके। धर्मकालेऽध्वनि तथा नियमो येन लुप्यते।। | 14-110-2a 14-110-2b |
दूराध्वगमनात्खिन्नो द्विजालाभेऽथ शूद्रतः। अकृतन्नं तु यत्किंचिद्गृह्णीयादात्मवृत्तये।। | 14-110-3a 14-110-3b |
आतुरो दुःखितो वाऽपि तथाऽऽर्तो वा बुभुक्षितः। भुञ्जन्नविधिना विप्रः प्रायश्चित्तीयते न च।। | 14-110-4a 14-110-4b |
निमन्त्रितस्तु यो विप्रो विदिवद्धव्यकव्ययोः। मांसादीन्यपि भुञ्जानः प्रायश्चित्तीयते न च।। | 14-110-5a 14-110-5b |
अष्टौ तान्यव्रतघ्नानि आपो मूलं घृतं पयः। हविर्ब्राह्मणकाम्या च गुरोर्वचनमौषधम्।। | 14-110-6a 14-110-6b |
अशक्तो विधिवत्कर्तुं प्रायश्चित्तानि यो नरः। विदुषां वचनेनापि दानेनापि विशुद्ध्यति।। | 14-110-7a 14-110-7b |
अनृतावृतुकाले वा दिवा रात्रौ तथाऽपि वा। प्रोषितस्तु स्त्रियं गच्छेत्प्रायश्चित्तीयते न च।। | 14-110-8a 14-110-8b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-110-9x |
प्रशस्याः कीदृशा विप्रा निन्द्याश्चापि सुरेश्वर। अष्टकायाश्च कः कालस्तन्मे कथय सुव्रत।। | 14-110-9a 14-110-9b |
भगवानुवाच। | 14-110-10x |
सत्यसन्धं द्विजं दृष्ट्वा स्थानाद्वेपति भास्करः। एष मे मण्डलं भित्त्वा याति ब्रह्म सनातनम्।। | 14-110-10a 14-110-10b |
कुलीनः कर्मकृद्वैद्यस्तथा चाप्यानृशंस्यवान्। श्रीमानृजउः सत्यवादी पात्रं सर्व इमे द्विजाः।। | 14-110-11a 14-110-11b |
एते चाग्रासनस्थास्ते भुञ्जानाः प्रथमं द्विजाः। तस्यां पङ्क्त्यां तु ये वान्ये तान्पुनत्येव दर्शनात्।। | 14-110-12a 14-110-12b |
मद्भक्ता ये द्विजश्रेष्ठा मद्भक्ता मत्परायणाः। तान्पङ्क्तिपावनान्विद्धि पूज्यांश्चैव विशेषतः।। | 14-110-13a 14-110-13b |
निन्द्याञ्शृणु द्विजान्राजन्नपि वा वेदपारगान्। ब्राह्मणच्छद्मना लोके चरतः पापकारिणः।। | 14-110-14a 14-110-14b |
अनग्निरनधीयानः प्रतिग्रहरुचिस्तु यः। यतस्ततस्तु भुञ्जानस्तं विद्याद्ब्रह्मदूषकम्।। | 14-110-15a 14-110-15b |
मृतसूतकपुष्टाङ्गो यश्च शूद्रान्नभुग्द्विजः। अहं चापि न जानामि गतिं तस्य नराधिप।। | 14-110-16a 14-110-16b |
शूद्रान्नरसपुष्टाङ्गोऽप्यधीयानो हि नित्यशः। जपतो जुह्वतो वाऽपि गतिरूर्ध्वं न विद्यते।। | 14-110-17a 14-110-17b |
आहिताग्निश्च यो विप्रः शूद्रान्नान्न निवर्तते। पञ्च तस्य प्रणश्यन्ति आत्मा ब्रह्म त्रयोऽग्नयः।। | 14-110-18a 14-110-18b |
शूद्रप्रेषणकर्तुश्च ब्राह्मणस्य विशेषतः। भूमावन्नं प्रदातव्यं श्वसृगालसमो हि सः।। | 14-110-19a 14-110-19b |
प्रेतभूतं तु यः शूद्रं ब्राह्ममो ज्ञानदुर्बलः।। अनुगच्छेन्नीयमानं त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्।। | 14-110-20a 14-110-20b |
त्रिरात्रे तु ततः पूर्णे नदीं गत्वा समुद्रगाम्। प्राणायामशतं कृत्वा घृतं प्राश्य विशुद्ध्यति।। | 14-110-21a 14-110-21b |
अनाथं ब्राह्मणं प्रेतं ये वहन्ति द्विजोत्तमाः। पदेपदेऽश्वमेधस्य फलं ते प्राप्नुवन्ति हि।। | 14-110-22a 14-110-22b |
न तेषामशुभं किंचित्पापं वा शुभकर्मणाम्। जलावगाहनादेव सद्यः शौचं विधीयते।। | 14-110-23a 14-110-23b |
शूद्रवेश्मनि विप्रेणि क्षीरं वा यदि वा दधि। निवृत्तेन न भोक्तव्यं विद्धि शूद्रान्नमेव तत।। | 14-110-24a 14-110-24b |
विप्राणां भोक्तुकामानामत्यन्तं चान्नकाङ्क्षिणाम्। यो विघ्नं कुरुते मर्त्यस्ततो नान्योस्ति पापकृत्।। | 14-110-25a 14-110-25b |
सर्वे च वेदाः सहषङ्भिरङ्गैः साङ्ख्यं पुराणं च कुले च जन्म। नैतानि सर्वाणि गतिर्भवन्ति शीलव्यपेतस्य नृप द्विजस्य।। | 14-110-26a 14-110-26b 14-110-26c 14-110-26d |
ग्रहोपरागे विषुवेऽयनान्ते पित्र्ये मघासु स्वसुते च जाते। गयेषु पिण्डेषु च पाण्डुपुत्र दत्तं भवेन्निष्कसहस्रतुल्यम्।। | 14-110-27a 14-110-27b 14-110-27c 14-110-27d |
वैशाखमासस्य तु या तृतीयाऽ- नवद्याऽसौ कार्तिकशुक्लपक्षे। नभस्यमासस्य च कृष्णपक्षे त्रयोदशी पञ्चदशी न माघे।। | 14-110-28a 14-110-28b 14-110-28c 14-110-28d |
रहस्यमेतत्पितरो वदन्ति।। | 14-110-29d |
यस्त्वेकपङ्क्त्यां विषमं ददाति स्नेहाद्भयाद्वा यदि वाऽर्थहेतोः। क्रूरं दुराचारमनात्मवन्तं ब्रह्मघ्नमेनं कवयो वदन्ति।। | 14-110-30a 14-110-30b 14-110-30c 14-110-30d |
धनानि येषां विपुलानि सन्ति नित्यं रमन्ते परलोकमूढाः। तेषामयं शत्रुवरघ्नलोको नान्यत्सुखं देहसुखे रतानाम्।। | 14-110-31a 14-110-31b 14-110-31c 14-110-31d |
ये चैव मुक्तास्तपसि प्रयुक्ताः स्वाध्यायशीला जरयन्ति देहम्। जितेन्द्रिया भूतहिते निविष्ट- स्तेषामसौ चापि परश्च लोकः।। | 14-110-32a 14-110-32b 14-110-32c 14-110-32d |
ये चैव विद्यां न तपो न दानं न चापि मूढाः प्रजने यतन्ते। न चापि गच्छन्ति सुखानि भोगां- स्तेषामयंक चापि परश्च नास्ति।। | 14-110-33a 14-110-33b 14-110-33c 14-110-33d |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-110-34x |
नारायण पुराणेश लोकावास नमोस्तु ते। श्रोतुमिच्छामि कार्त्स्न्येन धर्मसारसमुच्चयम्।। | 14-110-34a 14-110-34b |
भगवानुवाच। | 14-110-35x |
धर्मसारं महाप्राज्ञि मनुना प्रोक्तमादितः। प्रवक्ष्यामि मनुप्रोक्तं पौराणां श्रुतिसंहितम्।। | 14-110-35a 14-110-35b |
अग्निचित्कपिला सत्री राजा भिक्षुर्महोदधिः। दृष्टमात्रात्पुनत्येते तस्मात्पश्येत तान्सदा।। | 14-110-36a 14-110-36b |
गौरकस्यैव दातव्या न बहूनां युधिष्ठिर। सा गौर्विक्रयमापन्ना दहत्यासप्तमं कुलम्।। | 14-110-37a 14-110-37b |
बहूनां न प्रदातव्या गौर्वस्त्रं शयनं स्त्रियः। तादृग्भूतं तु तद्दानं दातारं नोपतिष्ठति।। | 14-110-38a 14-110-38b |
आक्रम्य ब्राह्मणैर्भुक्तमनार्याणां च वेश्मनि। गोभिश्च पुण्यं तत्तेषां राजसूयाद्विशिष्यते।। | 14-110-39a 14-110-39b |
मा ददात्विति यो ब्रूयाद्ब्राह्मणेषु च गोषु च। तिर्यग्योनिशतं गत्वा चण्डालेषूपजायते।। | 14-110-40a 14-110-40b |
ब्राह्मणस्वं च यद्दैवं दरिद्रस्यैव यद्धनम्। गुरोश्चापि हृतं राजन्स्वर्गस्थानपि पातयेत्।। | 14-110-41a 14-110-41b |
धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः। द्वितायं धर्मशास्त्राणि तृतीयं लोकसंग्रहः।। | 14-110-42a 14-110-42b |
आसमुद्राच्च यत्पूर्वादासमुद्राच्च पश्चिमात्। हिमाद्रिविन्ध्ययोर्मध्यमार्यावर्तं प्रचक्षते।। | 14-110-43a 14-110-43b |
सरावतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्। तद्देवनिर्मितं देशं ब्रह्मवर्तं प्रचक्षते।। | 14-110-44a 14-110-44b |
यस्मिन्देशे य आचारः पारंपर्यक्रमागतः। वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते।। | 14-110-45a 14-110-45b |
कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पाञ्चालाः शूरसेनयः। एते ब्रह्मर्षिदेशास्तु ब्रह्मावर्तादनन्तराः।। | 14-110-46a 14-110-46b |
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं चारित्रं च गृह्णीयुः पृथिव्यां सर्वमानवाः।। | 14-110-47a 14-110-47b |
हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं यत्प्राग्विशसनादपि। प्रत्यगेव प्रयागात्तु मध्यदेशः प्रकीर्तितः।। | 14-110-48a 14-110-48b |
कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः। स ज्ञेयो याज्ञिको देशो म्लेच्छदेशस्ततः परम्।। | 14-110-49a 14-110-49b |
एतान्विज्ञाय देशांस्तु संश्रयेरन्द्विजातयः। शूद्रस्तु यस्मिन्कस्मिन्वा निवसेद्वृत्तिकर्शितः।। | 14-110-50a 14-110-50b |
आचारः प्रथमो धर्मो ह्यहिंसा सत्यमेव च। दानं चैव यथाशक्ति नियमाश्च यमैः सह।। | 14-110-51a 14-110-51b |
वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्। कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च।। | 14-110-52a 14-110-52b |
गर्भहोमैर्जातकर्मनामचौलोपनायनैः। स्वाध्यायैस्तद्व्रतैश्चैव विवाहस्नातकव्रतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।। | 14-110-53a 14-110-53b 14-110-53c |
धर्मोर्थौ यदि न स्यातां शुश्रुषा वाऽपि तद्विधा। विद्या तस्मिन्नवप्तव्या शुभं बीजमिवोषरे।। | 14-110-54a 14-110-54b |
लौकिकं वैदिकं वाऽपि तथाऽऽध्यात्मिकमेव वा। यस्माज्ज्ञानमिदं प्राप्तं तं पूर्वमभिवादयेत्।। | 14-110-55a 14-110-55b |
सव्येन सव्यं संगृह्य दक्षिणेन तु दक्षिणम्। न कुर्यादेकहस्तेन गुरोः पादाभिवादनम्।। | 14-110-56a 14-110-56b |
निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि। अध्यापयति चैवेनं स विप्रो गुरुरुच्यते।। | 14-110-57a 14-110-57b |
कृत्वोपनयनं वेदान्योध्यापयति नित्यशः। सकल्पान्सरहस्यांश्च स चोपाध्याय उच्यते।। | 14-110-58a 14-110-58b |
साङ्गांश्च वेदानध्याप्य शिक्षयित्वा व्रतानि च। विवृणोति च मन्त्रार्थानाचार्यः सोभिधीयते।। | 14-110-59a 14-110-59b |
उपाध्यायाद्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। पितुः शतगुणं माता गौरवेणातिरिच्यते।। | 14-110-60a 14-110-60b |
एतेषामपि सर्वेषां गरीयान्ज्ञानदो गुरुः। गुरोः परतरं किंचिन्न भूतं न भविष्यति।। | 14-110-61a 14-110-61b |
तस्मात्तेषां वशे तिष्ठिच्छुश्रूषापरमो भवेत्। अवमानाद्धि तेषां तु नरकं स्यान्न संशयः।। | 14-110-62a 14-110-62b |
हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान्विद्याहीनान्वयोधिकान्। रूपद्रविणहीनांश्च जातिहीनांस्च नाक्षिपेत्।। | 14-110-63a 14-110-63b |
शपता यत्कृतं पुण्यं शप्यमानं तु गच्छति। शप्यमानस्य यत्पापं शपन्तमनुगच्छति।। | 14-110-64a 14-110-64b |
नास्तिक्यं वेदनिन्दां च देवतानां च कुत्सनम्। द्वेषं डंभं च मानं च क्रोधं तैक्ष्ण्यं विवर्जयेत्।। | 14-110-65a 14-110-65b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि दशाधिकशततमोऽध्यायः।। 110 |
आश्वमेधिकपर्व-109 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-111 |