महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-100
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति सुकृतिदुष्कृतिजनप्राप्यवैवस्वतपुरमार्गादिप्रतिपादनपूर्वकं तेषां तद्गमनप्रकारानुवर्णनम्।। 1 ।।
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युधिष्ठिर उवाच। | 14-100-1x |
देवदेवेश दैत्यघ्नि परं कौतूहलं हि मे। एतत्कथय सर्वज्ञ त्वद्भक्तस्य च केशव। मानुषस्य च लोकस्य धर्मलोकस्य चान्तरम्।। | 14-100-1a 14-100-1b 14-100-1c |
कीदृशं किंप्रमाणं वा किमधिष्ठानमेव च। तरन्ति मानुषा देव केनोपायेन माधव।। | 14-100-2a 14-100-2b |
त्वगस्थिमांसनिर्मुक्ते पञ्चभूतविवर्जिते। कथयस्व महादेव सुखदुःखमशेषतः।। | 14-100-3a 14-100-3b |
जीवस्य कर्मलोकेषु कर्मभिस्तु शुभाशुभैः। अनुबद्धस्य तैः पाशैर्नीयमानस्य दारुणैः।। | 14-100-4a 14-100-4b |
मृत्युदूतैर्दुराधर्षैर्घोरैर्घोरपरक्रमैः। वध्यस्याक्षिप्यमाणस्य विद्रुतस्य यमाज्ञया।। | 14-100-5a 14-100-5b |
पुण्यपापकृदातिष्ठेत्सुखदुःखमशेषतः। यमदूतैर्द्रुराधर्षैर्नीयते वा कथं पुनः। किं वा तत्र गता देव कर्म कुर्वन्ति मानवाः।। | 14-100-6a 14-100-6b 14-100-6c |
कथं धर्मपरा यान्ति देवताद्विजपूजकाः। कतं वा पापकर्माणो यान्ति प्रेतपुरं नराः।। | 14-100-7a 14-100-7b |
किं रूपं किं प्रमाणं वा वर्णः को वाऽस्य केशव। जीवस्य गच्छतो नित्यं यमलोकं ब्रवीहि मे।। | 14-100-8a 14-100-8b |
भगवानुवाच। | 14-100-9x |
शृणु राजन्यथावृतं यन्मां त्वं परिपृच्छसि। तत्तेऽहं कथयिष्यामि मद्भक्तस्य नरेश्वर।। | 14-100-9a 14-100-9b |
षडशीतिसहस्राणि योजनानां युधिष्ठिर। मानुष्यस्य च लोकस्य यमलोकस्य चान्तरम्।। | 14-100-10a 14-100-10b |
न तत्र वृक्षच्छाया वा न तटाकं सरोपि वा। न वाप्यो दीर्घिका वाऽपि न कूपो वा युधिष्ठिर।। | 14-100-11a 14-100-11b |
न मण्टपं सभा वाऽपि न प्रपा न निकेतनम्। न पर्वतो नदी वाऽपि न भूमेर्विवरं क्वचित्।। | 14-100-12a 14-100-12b |
न ग्रामो नाश्रमो वाऽपि नोद्यानं वा वनानि च। न किंचिदाश्रयस्थानं पथि तस्मिन्युधिष्ठिर।। | 14-100-13a 14-100-13b |
जन्तोर्हि प्राप्तकालस्य वेदनार्तस्य वै भृशम्। कारणैस्त्यक्तदेहस्य प्राणैः कण्ठगतैः पुनः।। | 14-100-14a 14-100-14b |
शरीराच्चाल्यते जीवो ह्यवशो मातरिश्वना। निर्गतो वायुभूतस्तु षट्कोशात्तु कलेवरात्।। | 14-100-15a 14-100-15b |
शरीरमन्यत्तद्रूपं तद्वर्णं तत्प्रमाणतः। अदृश्यं तत्प्रविष्टस्तु सोप्यदृष्टोऽथ केनचित्।। | 14-100-16a 14-100-16b |
सोन्तरात्मा देहवतामष्टाङ्गो यस्तु संचरेत्। छेदनाद्भेदनाद्दाहात्ताडनाद्वा न नश्यति। | 14-100-17a 14-100-17b |
नाना रूपधरैर्घौरैः प्रचण्डेश्चण्डसाधनैः। नीयमानो दुराधर्षैर्यमदूतैर्यमाज्ञया।। | 14-100-18a 14-100-18b |
पुत्रदारमयैः पाशैः संनिरूद्धोऽवशो बलात्। स्वकर्मभिश्चानुगतः कृतैः सुकृतदुष्कृतैः।। | 14-100-19a 14-100-19b |
आक्रन्दमानः करुणं बन्धुभिर्दुःखपीडितैः। त्यक्त्वा बन्धुजनं सर्वं निरपेक्षस्तु गच्छति।। | 14-100-20a 14-100-20b |
मातृभिः पितृभिश्चैव भ्रातृभिर्मातुलैस्तथा। दारैः पुत्रैर्वयस्यैश्च रुदद्भिस्त्यज्यते पुनः।। | 14-100-21a 14-100-21b |
अदृश्यमानस्तैर्दीनैरश्रुपूर्णमुखेक्षणैः। स्वशरीरं परित्यज्य वायुभूतस्तु गच्छति।। | 14-100-22a 14-100-22b |
अन्धकारमपारं तं महाघेरं तमोवृतम्। दुःखान्तं दुष्प्रतारं च दुर्गमं पापकर्मणाम्।। | 14-100-23a 14-100-23b |
दुःसहायं दुरन्तं च दुर्निरीक्षं दुरासदम्। दुरापमतिदुःखं च पापिष्ठानां नरोत्तम।। | 14-100-24a 14-100-24b |
ऋषिभिः कथ्यमानं तत्पारंपर्येण पार्थिव। त्रासं जनचति प्रायः श्रूयमाणं कथास्वपि।। | 14-100-25a 14-100-25b |
अवश्यं चैव गन्तव्यं तदध्वानं युधिष्ठिर। प्राप्तकालेन संत्यज्य बन्धून्भोगान्धनानि च।। | 14-100-26a 14-100-26b |
जरायुजैरण्डजैश्च स्वेदजैरुद्भिदैस्तथा। जङ्गमैः स्थिरसंज्ञैश्च गन्तव्यं यमसादनम्।। | 14-100-27a 14-100-27b |
देवासुरैर्मनुष्याद्यैर्वैवस्वतवशानुगैः। स्त्रीपुंनपुंसकैश्चापि पृथिव्यां जीवसंज्ञितैः।। | 14-100-28a 14-100-28b |
मध्यमैर्युवभिर्वाऽपि बालैर्वृद्धैस्तथैव च। जातमात्रैश्च गर्भस्थैर्गन्तव्यः स महापथः।। | 14-100-29a 14-100-29b |
पूर्वाह्णे वाऽपराह्णे वा सन्ध्याकालेऽथवा पुनः। प्रदोषे वाऽर्धरात्रे वा प्रत्युषे वाऽप्युपस्थिते।। | 14-100-30a 14-100-30b |
प्रवासस्थैर्वनस्थैर्वा पर्वतस्थैर्जले स्थितैः। क्षेत्रस्थैर्वा नभःस्थेर्वा गृहमध्यगतैरपि।। | 14-100-31a 14-100-31b |
भुञ्जद्भिर्वा पिबद्भिर्वा खादद्भिर्वा नरोत्तम। आसीनैर्वा स्थितैर्वापि शयनीयगतैरपि। जाग्रद्भिर्वा प्रसुप्तैर्वा गन्तव्यः स महापथः।। | 14-100-32a 14-100-32b 14-100-32c |
मृत्युदूतैर्दुराधर्षैः प्रचण्डैश्चण्डसासनैः। आक्षिप्यमाणा ह्यवशाः प्रयान्ति यमसादनम्।। | 14-100-33a 14-100-33b |
क्वचिद्भीतैः क्वचिन्मत्तैः प्रस्खलद्भिः क्वचित्क्वचित्। क्रन्दद्भिर्वेदनार्तैस्तु गन्तव्यं यमसादनम्।। | 14-100-34a 14-100-34b |
निर्भर्त्स्यमानैरुद्विग्रैर्विधूतैर्भयविह्वलैः। तुद्यमानशरीरैश्च गन्तव्यं तर्जितैस्तथा।। | 14-100-35a 14-100-35b |
कण्टकाकीर्णमार्गेण तप्तवालुकपांसुना। दह्यमानैस्तु गन्तव्यं नरैर्दानविवर्जितैः।। | 14-100-36a 14-100-36b |
काष्ठोपलशिलाघातैर्दण्डोल्मुककशाङ्कुशैः। हन्यमानैर्यमपुरं गन्तव्यं धर्मवर्जितैः।। | 14-100-37a 14-100-37b |
मेदःशोणितपूयाद्यैर्वक्त्रैर्गात्रैश्च सव्रणैः। दग्धक्षतजकीर्णैश्च गन्तव्यं जीवघातकैः।। | 14-100-38a 14-100-38b |
वेदनार्तैस्च कूजद्भिर्विक्रोशद्भिश्च विस्वरम्। वेदनार्तैः पतद्भिश्च गन्तव्यं जीवघातकैः।। | 14-100-39a 14-100-39b |
भग्रपादोरुहस्तङ्गैर्भग्रजङ्घाशिरोधरैः। छिन्नकर्णोष्ठनासैश्च गन्तव्यं जीवघातकैः।। | 14-100-40a 14-100-40b |
शक्तिभिर्भिण्डिपालैश्च शङ्कुतोमरसायकैः। तुद्यमानैस्तु शूलाग्रैर्गन्तव्यं जीवघातकैः।। | 14-100-41a 14-100-41b |
श्वभिर्व्याघ्रैर्वृकैः काकैर्भक्ष्यमाणाः समन्ततः। तुद्यमानाश्च गच्छन्ति राक्षसैर्मांसघातिभिः।। | 14-100-42a 14-100-42b |
महिषैश्च मृगैश्चापि सूकरैः पृषतैस्तथा। भक्ष्यमाणैस्तदध्वानं गन्तव्यं मांसखादिभिः।। | 14-100-43a 14-100-43b |
सूचीसुतीक्ष्णतुण्डाभिर्मक्षिकाभिः समन्ततः। तुद्यमानैश्च गन्तव्यं पापिष्ठैर्बालघातकैः।। | 14-100-44a 14-100-44b |
विस्रब्धं स्वामिनं मित्रं स्त्रियं वा घ्रन्ति ये नराः। शस्त्रैर्निर्भिद्यमानैश्च गन्तव्यं यमसादनम्।। | 14-100-45a 14-100-45b |
खादयन्ति च ये जीवान्दुःखमापादयन्ति च। राक्षसैश्च श्वभिश्चैव भक्ष्यमाणा व्रजन्ति च।। | 14-100-46a 14-100-46b |
ये हरन्ति च वस्त्राणि शय्यां प्रावरणानि च। ते यान्ति विद्रुता नग्नाः पिशाचा इव तत्पथं।। | 14-100-47a 14-100-47b |
गाश्च धान्यं हिरण्यं वा बलात्क्षेत्रं गृहं तथा। ये हरन्ति दुरात्मानः परस्वं पापकारिणः।। | 14-100-48a 14-100-48b |
पाषाणैरुल्मुकैर्दण्डैः काष्ठघातैश्च चर्झरैः। हन्यमानैः क्षताकीर्णैर्नन्तव्यं तैर्यमालयम्।। | 14-100-49a 14-100-49b |
ब्रह्मस्वं ये हरन्तीह नरा नरकनिर्भयाः। आक्रोशन्तीह ये नित्यं प्रहरन्ति च ये द्विजान्।। | 14-100-50a 14-100-50b |
शुष्ककण्ठा निबद्धास्ते छिन्नजिह्वाक्षिनासिकाः। पूयशोणितदुर्गन्धा भक्ष्यमाणाश्च जंबुकैः।। | 14-100-51a 14-100-51b |
चण्डालैर्भीषणैश्चण्डैस्तुद्यमानाः समन्ततः। क्रोशन्तः करुणं घोरं गच्छन्ति यमासादनम्।। | 14-100-52a 14-100-52b |
तत्र चापि गताः पापा विष्ठाकूपेष्वनेकशः। जीवन्तो वर्षकोटीस्तु क्लिश्यन्ते वेदनात्ततः।। | 14-100-53a 14-100-53b |
ततश्च मुक्ताः कालेन लोके चास्मिन्नराधमाः। विष्ठाक्रिमित्वं गच्छन्ति जन्मकोटिशतं नृप।। | 14-100-54a 14-100-54b |
विद्यमानधनैर्यैस्तु लोभडंभानृतान्वितैः। श्रोत्रियेभ्यो न दत्तानि दानानि कुरुपुङ्गव।। | 14-100-55a 14-100-55b |
ग्रीवापाशनिबद्धास्ते हन्यमानाश्च राक्षसैः। क्षुत्पिपासाश्रमार्तास्तु यान्ति प्रेतपुरं नराः।। | 14-100-56a 14-100-56b |
अदत्तदाना गच्छन्ति शुष्ककण्ठास्यतालुकाः। अन्नं पानीयसहितं प्रार्थयन्तः पुनःपुनः।। | 14-100-57a 14-100-57b |
स्वामिन्बुभक्षातृष्णार्ता गन्तुं नैवाद्य शक्नुमः। ममान्नं दीयतां स्वामिन्पानीयं दीयतां मम। इति ब्रुवन्तस्तैर्दूतैः प्राप्यन्ते वै यमालयम्।। | 14-100-58a 14-100-58b 14-100-58c |
वैशंपायन उवाच। | 14-100-59x |
तच्छ्रुत्वा वचनं विष्णोः पपात भुवि पाण्डवः। निस्संज्ञो भयसंत्रस्तो मूर्छया समभिप्लुतः।। | 14-100-59a 14-100-59b |
ततो लब्ध्वा शनैः संज्ञां समाश्वस्तोच्युतेन सः। नेत्रे प्रक्षाल्य तोयेन भूयः केशवमब्रवीत्।। | 14-100-60a 14-100-60b |
भीतोस्म्यहं महादेव श्रुत्वा मार्गस्य विस्तरम्। केनोपायेन तं मार्गं तरन्ति पुरुषाः सुखम्।। | 14-100-61a 14-100-61b |
भगवानुवाच। | 14-100-62x |
इह ये धार्मिका लोके जीवगातविवर्जिताः। गुरुशुश्रूषणे युक्ता देवब्राह्मणपूजकाः।। | 14-100-62a 14-100-62b |
अस्मान्मानुष्यलोकात्ते समार्याः सहबान्धवाः। यमध्वानं तु गच्छन्ति यथावत्तं निबोध मे।। | 14-100-63a 14-100-63b |
ब्राह्मणेभ्यः प्रदानानि नानारूपाणि पाण्डव। ये प्रयच्छन्ति विप्रेभ्यस्ते सुखं यान्ति तत्फलम्।। | 14-100-64a 14-100-64b |
अन्नं ये च प्रयच्छन्ति ब्राह्मणेभ्यः सुसंस्कृतम्। क्षोत्रियेभ्यो विशेषेण प्रीत्या परमया युताः।। | 14-100-65a 14-100-65b |
ते विमानैर्महात्मानो यान्ति चित्रैर्यमालयम्। सेव्यमाना वरस्त्रीभिरप्सरोभिर्महापथम्।। | 14-100-66a 14-100-66b |
ये च नित्यं प्रभाषन्ते सत्यं निष्कल्मषं वचः। ते च यान्त्यमलाभ्राभैर्विमानैर्वृषयोजितैः।। | 14-100-67a 14-100-67b |
कपिलाद्यानि पुण्यानि गोप्रदानानि ये नराः। ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छन्ति श्रोत्रियेभ्यो विशेषतः।। | 14-100-68a 14-100-68b |
ते यान्त्यमलवर्णाभैर्विमानैर्वृषयोजितैः। वैवस्वतपुरं प्राप्य ह्यप्सरोभिर्निषेविताः।। | 14-100-69a 14-100-69b |
उपानहौ च च्छत्रं च शयनान्यासनानि च। विप्रेभ्यो ये प्रयच्छन्ति वस्त्राण्याभरणानि च।। | 14-100-70a 14-100-70b |
ते यान्त्यश्वैर्वृषैर्वाऽपि कुञ्जरैरप्यलङ्कृताः। धर्मराजपुरं रम्यं सौवर्णच्छत्रशोभिताः।। | 14-100-71a 14-100-71b |
ये च भक्ष्याणि दास्यन्ति भोज्यं पेयं तथैव च। स्निग्धान्नान्यापि विप्रेभ्यः श्रद्धया परया युताः।। | 14-100-72a 14-100-72b |
ते यान्ति काञ्चनार्यानैः सुखं वैवस्वतालयम्। वरस्त्रीभिर्यथाकामं सेव्यमानाः सहस्रशः।। | 14-100-73a 14-100-73b |
ये च क्षीरं प्रयच्छन्ति घृतं दधि गुडं मधु। ब्राह्मणेभ्यः प्रयत्नेन श्रद्दधानाः सुसंस्कृताः।। | 14-100-74a 14-100-74b |
चक्रवाकप्रयुक्तैस्तु यानै रुक्ममयैः शुभैः। यान्ति गन्धर्ववादित्रैः सेव्यमाना यमालयम्।। | 14-100-75a 14-100-75b |
ये फलानि प्रयच्छन्ति पुष्पाणि सुरभीणि च। हंसयुक्तैर्विमानैस्तु यान्ति धर्मपुरं नराः।। | 14-100-76a 14-100-76b |
ये प्रयच्छन्ति विप्रेभ्यो विचित्रान्नं घृताप्लुतम्। ते व्रजनत्यमलाभ्राभैर्विमानैर्वायुवेगिभिः। पुरं तत्प्रेतनाथस्य नानाजनसमाकुलम्। | 14-100-77a 14-100-77b 14-100-77c |
पानीयं ये प्रयच्छन्ति सर्वभूतप्रजीवनम्। ते सुतृप्ताः सुखं यान्ति भवनैर्हंसचोदितैः।। | 14-100-78a 14-100-78b |
ये तिलं तिलधेनुं वा धृतधेनुमथापि च। श्रोत्रियेभ्यः प्रयच्छन्ति सौम्यभावसमन्विताः।। | 14-100-79a 14-100-79b |
सूर्यमण्डलसंकाशैर्यानैस्ते यान्ति निर्मलैः। गीयमानैस्तु गन्धर्वैर्वैवस्वतपुरं नृप।। | 14-100-80a 14-100-80b |
येषां वाप्यश्च कूपाश्च तटाकानि सरांसि च। दीर्घिकाः पुष्करिण्यश्च सजलाश्च जलाशयाः।। | 14-100-81a 14-100-81b |
यानैस्ते यान्ति चन्द्राभैर्दिव्यघण्टानिनादितैः। चामरैस्तालवृन्तैश्च वीज्यमाना महाप्रभाः। नित्यतृप्ता महात्मानो गच्छन्ति यमसादनम्।। | 14-100-82a 14-100-82b 14-100-82c |
येषां देवगृहाणीह चित्राण्यायतनानि च। मनोहराणि कान्तानि दर्शनीयानि भान्ति च।। | 14-100-83a 14-100-83c |
ते व्रजन्त्यमलाभ्राभैर्विमानैर्वायुवेगिभिः। पुरं तत्प्रेतनाथस्य नानाजनपदाकुलम्।। | 14-100-84a 14-100-84b |
वैवस्वतं च पश्यन्ति सुखचित्तं सुखस्थितम्। यमेन पूजिता यान्ति देवसालोक्यतां ततः।। | 14-100-85a 14-100-85b |
देवानुद्दिश्य लोकेषु प्रपासु करकोद्धृतम्। शीतलं सलिलं रम्यं तृषितेभ्यो दिशन्ति ये। ते तु तृप्ति परां यान्ति प्राप्य सौख्यं महापथम्।। | 14-100-86a 14-100-86b 14-100-86c |
काष्ठपादुकदा यान्ति तदध्वानं सुखं नराः। सौवर्णमणिपीठे तु पादं कृत्वा स्थोत्तमे।। | 14-100-87a 14-100-87b |
आरामान्वृक्षषण्डांश्च रोपयन्ति च ये नराः। संवर्धयन्ति चाव्यग्रं फलपुष्पोपशोभितम्।। | 14-100-88a 14-100-88b |
वृक्षच्छायासु रम्यासु शीतलासु स्वलङ्कृताः। यान्ति ते वाहनैर्दिव्यैः पूज्यमाना मुहुर्मुहुः। | 14-100-89a 14-100-89b |
सेव्यमानाः सुरूपाभिरुत्तमाभिः प्रयत्नतः। स्त्रीभिः कनकवर्णाभिर्यथाकामं यथासुखम्।। | 14-100-90a 14-100-90b |
अश्वयानं तु गोयानं हस्तियानमथापि च। ये प्रयच्छन्ति विप्रेभ्यो विमानैः कनकोपमैः।। | 14-100-91a 14-100-91b |
सुवर्णं रजतं वाऽपि विद्रुमं मौक्तिकं तथा। ये प्रयच्छन्ति ते यान्ति विमानैः कनकोज्ज्वलैः। ते व्रजन्ति वरस्त्रीभिः सेव्यमाना यथासुखम्।। | 14-100-92a 14-100-92b 14-100-92c |
भूमिदा यान्ति तं लोकं सर्वकामैः सुतर्पिताः। उदितादित्यसंकाशैर्विमानैर्वृषयोजितैः।। | 14-100-93a 14-100-93b |
कन्यां ये च प्रयच्छन्ति विप्राय श्रोत्रियाय च। दिव्यकन्यावृता यान्ति विमानैस्ते यमालयम्।। | 14-100-94a 14-100-94b |
सुगन्धान्गन्धसंयोगान्पुष्पाणि सुरभीणि च। प्रयच्छन्ति द्विजाग्रेभ्यो भक्तया परमया युताः।। | 14-100-95a 14-100-95b |
सुगन्धाः धर्मपुरं यानैर्विचित्रैरप्यलङ्कृताः।। यान्ति धर्मपुरं यानैर्विचित्रैरप्यलङ्कृताः।। | 14-100-96a 14-100-96b |
दीपया यान्ति यानैश्च द्योतयन्तो दिशो दश। आदित्यसदृशाकारैर्दीप्यमाना इवाग्नयः।। | 14-100-97a 14-100-97b |
गृहावसथदातारो गृहैः काञ्चनवेदिकैः। व्रजन्ति बालसूर्याभैर्धर्मराजपुरं नराः।। | 14-100-98a 14-100-98b |
जलभाजनदातारः कुण्डिकाकरकप्रदाः। पूज्यमाना वरस्त्रीभिर्यान्ति तृप्ता महागजैः।। | 14-100-99a 14-100-99b |
पादाभ्यङ्गं शिरोभ्यह्गं पानं पादोदकं तथा। ये प्रयच्छन्ति विप्रेभ्यस्ते यान्त्यश्वैर्यमालयम्।। | 14-100-100a 14-100-100b |
विश्रामायन्ति ये विप्राञ्श्रान्तानध्वनि कर्शितान्। चक्रवाकप्रयुक्तेन यान्ति यानेन तेऽपि च।। | 14-100-101a 14-100-101b |
स्वागतेन च यो विप्रान्पूजयेदासनेन च। स गच्छति तदध्वानं सुखं परमनिर्वृतः।। | 14-100-102a 14-100-102b |
नमो ब्रह्मण्यदेवेति यो मां दृष्ट्वाऽभिवादयेत्। व्रतीवं प्रयतो नित्यं स सुखं तत्पदं व्रजेत्।। | 14-100-103a 14-100-103b |
नमः सर्वसहाभ्यश्चेत्यभिख्याय दिनेदिने। नमस्करोति नित्यं गां स सुखं याति तत्पथं।। | 14-100-104a 14-100-104b |
नमोस्तु प्रियदत्तायेत्येवंवादी दिनेदिने। भूमिमाक्रमते प्रातः सयनादुत्थितश्च यः।। | 14-100-105a 14-100-105b |
सर्वकामैः स तृप्तात्मा सर्वभूषणभूषितः। याति यानेन दिव्येन सुकं वैवस्वतालयम्।। | 14-100-106a 14-100-106b |
अनत्तराशिनो ये तु डंभानृतविवर्जिताः। तेऽपि सारसयुक्तेन यान्ति यानेन वै सुखम्।। | 14-100-107a 14-100-107b |
ये चाप्येकेन भुक्तेन डंभानृतविवर्जिताः। हंसयुक्तैर्विमानैस्तु सुखं यान्ति यमालयम्।। | 14-100-108a 14-100-108b |
चतुर्थेन च भुक्तेन वर्तन्ते ये जितेन्द्रियाः। यान्ति ते धर्मनगरं यानैर्बर्हिणयोजितैः।। | 14-100-109a 14-100-109b |
तृतीयदिवसेनेह भुञ्जते ये जितेन्द्रियाः। तेऽपि हस्तिरथं यान्ति तत्पथं कनकोज्ज्वलैः।। | 14-100-110a 14-100-110b |
षष्ठान्नकालिको यस्तु वर्षमेकं तु वर्तते। कामक्रोधवनिर्मुक्तः शुचिर्नित्यं जितेन्द्रियः। स याति कुञ्जरस्थैस्तु जयशब्दरवैर्युतः।। | 14-100-111a 14-100-111b 14-100-111c |
पक्षोपवासिनो यान्ति यानैः शार्दूलयोजितैः। धर्मराजपूरं रम्यं दिव्यस्त्रीगणसेवितम्।। | 14-100-112a 14-100-112b |
ये च मासोपवासं वै कुर्वते संयतेन्द्रियाः। तेऽपि सूर्यादयप्रख्यैर्यान्ति यानैर्यमालयम्।। | 14-100-113a 14-100-113b |
अग्निप्रवेशं यश्चापि कुरुते मद्गतात्मना। स यात्यग्निप्रकाशेन विमानेन यमालयम्।। | 14-100-114a 14-100-114b |
गोकृते स्त्रीकृते चैव हत्वा विप्रकृतेऽपि च। ते यान्त्यमरकन्याभिः सेव्यमाना रविप्रभाः।। | 14-100-115a 14-100-115b |
ये च कुर्वन्ति मद्भक्तास्तीर्थयात्रां जितेन्द्रियाः। ते पन्थानं महात्मानो यानैर्यान्ति सुनिर्वृताः।। | 14-100-116a 14-100-116b |
ये यजन्ति द्विजश्रेष्ठाः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः। हंससारससंयुक्तैर्यानैस्ते यान्ति तत्पथम्।। | 14-100-117a 14-100-117b |
परपीडामकृत्वैव भृत्यान्बिभ्रति ये नराः। तत्पथं ससुखं यान्ति विमानैः काञ्चनोज्ज्वलैः।। | 14-100-118a 14-100-118b |
ये समाः सर्वभूतेषु जीवानामभयप्रदाः। क्रोधलोभविनिर्मुक्ता निगृहीतेन्द्रियास्तथा। | 14-100-119a 14-100-119b |
पूर्णचन्द्रप्रतीकाशैर्विमानैस्ते महाप्रभाः। यान्ति वैवस्वतपुरं देवगन्धर्वसेविताः।। | 14-100-120a 14-100-120b |
ये मामेकान्तभावेन देवं त्र्यंबकमेव वा। पूजयन्ति नमस्यन्ति स्तुवन्ति च दिनेदिने। धर्मराजपुरं यान्ति यानैस्तेऽर्कसमप्रभैः।। | 14-100-121a 14-100-121b 14-100-121c |
पूजितास्तत्र धर्मेण स्वयं माल्यादिभिः शुभैः। यान्त्येव धर्मलोकं वा रुद्रलोकमथापि वा।। | 14-100-122a 14-100-122b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि शततमोऽध्यायः।। 100 ।। |
आश्वमेधिकपर्व-099 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-101 |