महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-101
← आश्वमेधिकपर्व-100 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-101 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-102 → |
कृष्णेन युधिष्टिरंप्रति जलदानान्नदानफलप्रशंसनम्।। 1 ।। तथाऽतिथिलक्षणकथनपूर्वकं तत्पूजाफलकथनम्।। 2 ।।
|
वैशंपायन उवाच। | 14-101-1x |
श्रुत्वा यमपुराध्वानं जीवानां गमनं तथा। धर्मपुत्रः प्रहृष्टात्मा केशवं पुनरब्रवीत्।। | 14-101-1a 14-101-1b |
देवदेवेश दैत्यघ्न ऋषिसङ्घैरभिष्टुत। भगवन्भवहञ्श्रीमन्सहस्रादित्यसन्निभ।। | 14-101-2a 14-101-2b |
सर्वसंभव धर्मज्ञ सर्वधरमप्रवर्तक। सर्वदानफलं सौम्य कथयस्व ममाच्युत।। | 14-101-3a 14-101-3b |
दानं देयं कथं कृष्ण कीदृशाय द्विजाय वै। कीदृशं वा तपः कृत्वा तत्फलं कुत्र भुज्यते।। | 14-101-4a 14-101-4b |
एवमुक्तो हृषीकेशो धर्मपुत्रेण धीमता। उवाच धर्मपुत्राय पुण्यान्धर्मान्महोदयान्।। | 14-101-5a 14-101-5b |
शृणुष्वावहितो राजन्पूतं पापघ्नमुत्तमम्। सर्वदानफलं सौम्य न श्राव्यं पापकर्मणम्।। | 14-101-6a 14-101-6b |
यच्छ्रुत्वा पुरुषः स्त्री वा नष्टपापः समाहितः। तत्क्षणात्पूततां याति पापकर्मरतोपि वा।। | 14-101-7a 14-101-7b |
एकाहमपि कौन्तेय भूमावुत्पादितं जलम्। सप्त तारयते पूर्वान्वितृष्णा यत्र गौर्भवेत्।। | 14-101-8a 14-101-8b |
पानीयं परमं लोके जीवानां जीवनं स्मृतम्। पानीयस्य प्रदानेन तृप्तिर्भवति पाण्डव। पानीयस्य गुणा दिव्याः परलोके गुणावहाः।। | 14-101-9a 14-101-9b 14-101-9c |
तत्र पुष्पोदकी नाम नदी परमपावनी। कामान्ददाति राजेन्द्र तोयदानां यमालये।। | 14-101-10a 14-101-10b |
शीतलं सलिलं ह्यत्र ह्यक्षय्यममृतोपमम्। शीततोयप्रदादॄणां भवेन्नित्यं सुखावहम्।। | 14-101-11a 14-101-11b |
ये चाप्यतोयदातारः पूयस्तेषां विधीयते। | 14-101-12a |
प्रणश्यत्यंबुपानेन बुभुक्षा च युधिष्ठिर। तृपीषस्य न चान्नेन पिपासाऽपि प्रणश्यति। तस्मात्तोयं सदा देयं तृषितेभ्यो विजानता। | 14-101-13a 14-101-13b 14-101-13c |
अग्नेर्मूर्तिः क्षितेर्योनिरमृतस्य स संभवः। अतोंभः सर्वभूतानां मूलमित्युच्यते बुधैः।। | 14-101-14a 14-101-14b |
अद्भिः सर्वाणि भूतानि जीवन्ति प्रभवन्ति च। तस्मात्सर्वेषु दानेषु तोयदानं विशिष्यते।। | 14-101-15a 14-101-15b |
सर्वदानतपोयज्ञैर्यत्प्राप्यं फलमुत्तमम्। तत्सर्वं तोयदानेन प्राप्यते नात्र संशयः।। | 14-101-16a 14-101-16b |
ये प्रयच्छन्ति विप्रेभ्यस्त्वन्नदातं सुसंस्कृतम्। तैस्तु दत्ताः स्वयं प्राणा भवन्ति भरतर्षभ।। | 14-101-17a 14-101-17b |
अन्नाद्रक्तं च शुक्लं च अन्ने जीवः प्रतिष्ठितः। इन्द्रियाणि च बुद्धिश्च पुष्णन्त्यन्नेन नित्यशः। अन्नहीनानि सीदन्ति सर्वभूतानि पाण्डव।। | 14-101-18a 14-101-18b 14-101-18c |
तेजो बलं च रूपं च सत्वं वीर्यं धृतिर्द्युतिः। ज्ञानं मेधा तथाऽऽयुश्च सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम्।। | 14-101-19a 14-101-19b |
देवमानवर्तिर्यक्षु सर्वलोकेषु सर्वदा। सर्वकालं हि सर्वेषां सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम्।। | 14-101-20a 14-101-20b |
अन्नं प्रजापते रूपमन्नं प्रजननं स्मृतम्। सर्वभूतमयं चान्नं जीवश्चान्नमयः स्मृतः।। | 14-101-21a 14-101-21b |
अन्नेनाधिष्ठितः प्राण अपानो व्यान एव च। उदानश्च समानश्च धारयन्ति शरीरिणम्।। | 14-101-22a 14-101-22b |
शयनोत्थानगमनग्रहणाकर्षणानि च सर्वसत्वकृतं क्रम चान्नादेव प्रवर्तते।। | 14-101-23a 14-101-23b |
चतुर्विधानि भूतानि जङ्गमानि स्थिराणि च। अन्नाद्भवन्ति राजेन्द्र सृष्टिरेषा प्रजापतेः।। | 14-101-24a 14-101-24b |
विद्यास्थानानि सर्वाणि सर्वयज्ञाश्च पावनाः। अन्नाद्यस्मात्प्रवर्तन्ते तस्मादन्नं परं स्मृतम्।। | 14-101-25a 14-101-25b |
देवा रुद्रादयः सर्वे पितरोऽप्यग्नयस्तथा। यस्मादन्नेन तुष्यन्ति तस्मादन्नं विशिष्यते।। | 14-101-26a 14-101-26b |
यस्मादन्नात्प्रजाः सर्वाः कल्पेकल्पेऽसृजत्प्रभुः। तस्मादन्नात्परं दानं न भूतं न भविष्यति।। | 14-101-27a 14-101-27b |
यस्मादन्नात्प्रवर्तन्ते धर्मार्थौ काम एव च। तस्मादन्नात्परं दानं नामुत्रेह च पाण्डव।। | 14-101-28a 14-101-28b |
यक्षरक्षोग्रहा नागा भूतान्यन्ते च दानवाः। तुष्यन्त्यन्नेन यस्मात्तु तस्मादन्नं परं भवेत्।। | 14-101-29a 14-101-29b |
परान्नमुपभुञ्जनो यत्कर्म कुरुते शुभम्। तच्छुभस्यैकभागस्तु कर्तुर्भवति भारत।। | 14-101-30a 14-101-30b |
अन्नदस्य त्रयो भागा भन्ति पुरुषर्षभ। तस्यादन्नं प्रदातव्यं ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः।। | 14-101-31a 14-101-31b |
ब्राह्मणाय दरिद्राय योऽन्नं संवत्सरं नृप। श्रोत्रियाय प्रयच्छेद्वै पाकभेदविवर्जितः।। | 14-101-32a 14-101-32b |
डंभानृतविमुक्तस्तु परां भक्तिमुपागतः। स्वधर्मेणार्जितफलं तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-101-33a 14-101-33b |
शतवर्षसहस्राणि कामगः कामरूपधृत्। मोदतेऽमरलोकस्थः पूज्यमानोप्सरोगणैः। ततश्चापि च्युतः कालान्नरलोके द्विजो भवेत्।। | 14-101-34a 14-101-34b 14-101-34c |
अग्नभिक्षां च यो दद्याद्दरिद्राय द्विजातये। षण्मासान्वार्षिकं श्राद्दं तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-101-35a 14-101-35b |
गोसहस्रप्रदानेन यत्पुण्यं समुदाहृतम्। तत्प्रण्यफलमाप्नोति नरो वै नात्र संशयः।। | 14-101-36a 14-101-36b |
अथ संवत्सरं दद्यादग्रभिक्षामयाचते। प्रच्छद्यैव स्वयं नीत्वा तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-101-37a 14-101-37b |
कपिलानां सहस्रैस्तु यद्देयं पुण्यमुच्यते। तत्सर्वमखिलं प्राप्य शक्रलोके महीयते।। | 14-101-38a 14-101-38b |
स शक्रभवने रम्ये र्षिकोटिशतं नृप। यथाकामं महातेजाः क्रीडत्यप्सरसांगणैः।। | 14-101-39a 14-101-39b |
अन्नं च यस्तु वै दद्याद्द्विजाय नियतव्रतः। दशवर्षामि राजेन्द्र तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-101-40a 14-101-40b |
कपिला शतसहस्रस्य विधिदत्तस्य यत्फलम्। तत्पुण्यफलमासाद्य पुरन्दरपुरं व्रजेत्।। | 14-101-41a 14-101-41b |
स शक्रभवने रम्ये कामरूपी यथासुखम्। शतकोटिसमा राजन्क्रीडतेऽमरपूजितः।। | 14-101-42a 14-101-42b |
शक्रलोकावतीर्णश्च इह लोके महाद्युतिः। चतुर्वेदी द्विजः श्रीमाञ्जायते राजपूजितः।। | 14-101-43a 14-101-43b |
अध्वश्रान्ताय विप्राय क्षुधितायान्नकाङ्क्षिणे। देशकालाभियाताय दीयते पाण्डुनन्दन।। | 14-101-44a 14-101-44b |
याचतेऽन्नं न दद्याद्यो विद्यामाने धनागमे। स लुब्धो नरकं याति कृमीणां कालसूत्रकम्।। | 14-101-45a 14-101-45b |
तत्र नरके घोरे लोभमोहविचेतनः। दशरव्षसहस्राणि क्लिश्यते वेदनार्दितः।। | 14-101-46a 14-101-46b |
तस्माच्च नरकान्मुक्तः कालेन महता हि सः। दरिद्रो मानुषे लोके चण्डालेष्वपि जायते। | 14-101-47a 14-101-47b |
यस्तु पांसुलपादश्च दूराध्वश्रमकर्शितः। क्षुत्पिपासाश्रमश्रान्त आर्तः खिन्नगतिर्द्विजः।। | 14-101-48a 14-101-48b |
पृच्छन्वै ह्यन्नदातारं गृहमभ्येत्य याचयेत्। तं पूजयेत्तु यत्नेन सोऽतिथिः स्वर्गसंक्रमः। तस्मिंस्तुष्टे नरश्रेष्ठ तुष्टाः स्युः सर्वदेवताः।। | 14-101-49a 14-101-49b 14-101-49c |
न तथा हविषा होमैर्न पुष्पैर्नानुलेपनैः। अग्नयः पार्थ तुष्यन्ति यथा ह्यतिथिपूजनात्।। | 14-101-50a 14-101-50b |
कपिलायां तु दत्तायां विधिवज्ज्येष्ठपुष्करे। न तत्फलमवाप्नोति यत्फलं विप्रबोजनान्। | 14-101-51a 14-101-51b |
द्विजपादोदकक्लिन्ना यावत्तिष्ठति मेदिनी। तावत्पुष्करपत्रेण पिबन्ति पितरो जलम्।। | 14-101-52a 14-101-52b |
देवमाल्यापनयनं द्विजोच्छिष्टापमार्जनम्। श्रान्तसंवाहनं चैव तथा पादावसेचनम्।। | 14-101-53a 14-101-53b |
प्रतिश्रयप्रदानं च तथा शय्यासनस्य च। एकैकं पाण्डवश्रेष्ठ गोप्रदानाद्विशिष्यते।। | 14-101-54a 14-101-54b |
पादोदकं पादघृतं दीपमन्नं प्रतिश्रयम्। ये प्रयच्छन्ति विप्रेभ्यो नोपसर्पन्ति ते यमम्।। | 14-101-55a 14-101-55b |
विप्रातिथ्ये कृते राजन्भक्त्या शुश्रूषितेऽपि च। देवाः शुश्रूषिताः सर्वे त्रयस्त्रिंशदरिन्दम।। | 14-101-56a 14-101-56b |
अभ्यागतो ज्ञातपूर्वो ह्यज्ञातोऽतिथिरुच्यते। तयोः पूजां द्विजः कुर्यादिति पौराणिकी श्रुतिः।। | 14-101-57a 14-101-57b |
पादाभ्यङ्गन्नपानैस्तु योऽतिर्थिं पूजयेन्नरः। पूजितस्तेन राजेन्द्र भवामीह न संशयः।। | 14-101-58a 14-101-58b |
शीघ्रं पापाद्विनिर्मुक्तो मया चानुग्रहीकृतः। विमानेनेन्दुकल्पेन मम लोकं स गच्छति।। | 14-101-59a 14-101-59b |
अभ्यागतं श्रान्तमनुव्रजन्ति देवाश्च सर्वे पितरोऽग्नयश्च। तस्मिन्द्विजे पूजिते पूजिताः स्यु- र्गते निराशाः पितरो व्रजन्ति।। | 14-101-60a 14-101-60b 14-101-60c 14-101-60d |
अतिर्थिर्यस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते। पितरस्तस्य नाश्नन्ति दशवर्षणि पञ्च च।। | 14-101-61a 14-101-61b |
वर्जितः पितृभिर्लुब्धः स देवैरग्निभिः सह। निरयं रौरवं गत्वा दशवर्षाणि पञ्च च। ततश्चापि च्युतः कालादिह चोच्छिष्टभुग्भवेत्।। | 14-101-62a 14-101-62b 14-101-62c |
वैश्वदेवान्तिके प्राप्तमतिथिं यो न पूजयेत्। चण्डालत्वमवाप्नोति सद्य एव न संशयः।। | 14-101-63a 14-101-63b |
निर्वासयति यो विप्रं देशकालगतं गृहात्। पतितस्तत्क्षणादेव जायते नात्र संशयः।। | 14-101-64a 14-101-64b |
नरके रौरवे घोरे वर्षकोटिं स पच्यते। ततश्चापि च्युतः कालादिह लोके नराधमः। श्वा वै द्वादशजन्मानि जायते क्षुत्पिपासितः।। | 14-101-65a 14-101-65b 14-101-65c |
चण्डालोप्यतिथिः प्राप्तो देशकालेऽन्नकाङ्क्षयाः। अभ्युद्गम्यो गृहस्थेन पूजनीयश्च सर्वदा।। | 14-101-66a 14-101-66b |
अनर्चयित्वा योऽश्नाति लोभमोहविचेतनः। स चण्डालत्वमापन्नो दश जन्मानि पाण्डव।। | 14-101-67a 14-101-67b |
निराशमतिथिं कृत्वा भुञ्जनो यः प्रहृष्टवान्। न जानाति किलात्मानं विष्ठकूपे निपातितं।। | 14-101-68a 14-101-68b |
मोघं ध्रुवं प्रोर्णयति मोघमस्य तु पच्यते। मोघमन्नं सदाऽश्नाति योतिथिं न च पूजयेत्।। | 14-101-69a 14-101-69b |
साङ्गोपाङ्गांस्तु यो वेदान्पठतीह दिनेदिने। न चातिथिं पूजयति वृथा भवति स द्विजः।। | 14-101-70a 14-101-70b |
पाकयज्ञमहायज्ञैः सोमसंस्थाभिरेव च। ये यजन्ति न चार्चन्ति गृहेष्वतिथिमागतम्।। | 14-101-71a 14-101-71b |
तेषां यशोभिकामानां दत्तमिष्टं च यद्भवेत्। वृथा भवति तत्सर्वमाशया हि तया हतम्।। | 14-101-72a 14-101-72b |
देशं कालं च पात्रं च स्वशक्तिं च निरीक्ष्य च। अल्पं समं महद्वापि कुर्यादातिथ्यमात्मवान्।। | 14-101-73a 14-101-73b |
सुमुखः सुप्रसन्नात्मा धीमानतिथिमागतम्। स्वागतेनासनेनाद्भिरन्नाद्येन च पूजयेत्।। | 14-101-74a 14-101-74b |
हितः प्रियो वा द्वेष्यो वा मूर्खः पण्डित एव वा। प्राप्तो यो वैश्वदेवान्ते सोतिथिः स्वर्गसंक्रमः।। | 14-101-75a 14-101-75b |
क्षुत्पिपासाश्रमार्ताय देशकालगताय च। सत्कृत्यान्नं प्रदातव्यं यज्ञस्य फलमिच्छता।। | 14-101-76a 14-101-76b |
भोजयेदात्मनः श्रेष्ठान्विधइवद्धव्यकव्ययोः। अन्नं प्राणो मनुष्यणामन्नदः प्राणदो भवेत्। तस्मादन्नं विशेषेण दातव्यं भूतिमिच्छता।। | 14-101-77a 14-101-77b 14-101-77c |
अन्नदः सर्वकामैस्तु सुतृप्तः सुष्ट्वलङ्कृतः। पूर्णचन्द्रप्रकाशेन विमानेन विराजते।। | 14-101-78a 14-101-78b |
सेव्यमानो वरस्त्रीभिर्मम लोकं स गच्छति। क्रीडित्वा तु ततस्तस्मिन्वर्षकोटिं यथाऽमरः।। | 14-101-79a 14-101-79b |
ततस्चापि च्युतः कालादिह लोके महायशाः। वेदशास्त्रार्थतत्वज्ञो भोगवान्ब्राह्मणो भवेत्।। | 14-101-80a 14-101-80b |
यथाश्रद्धं तु यः कुर्यान्मनुष्येषु प्रजायते। महाधनपतिः श्रीमान्वेदवेदाङ्गपारगः। सर्वशास्त्रार्थतत्वज्ञो भोगवान्ब्राह्मणो भवेत्।। | 14-101-81a 14-101-81b 14-101-81c |
सर्वातिथ्यं तु यः कुर्याद्वर्षमेकमकल्मषः। धर्मार्जितधनो भूत्वा पाकभेदविवर्जितः।। | 14-101-82a 14-101-82b |
देवानिव स्वयं विप्रानर्चयित्वा पितॄनपि। विप्रानग्राशनाशी यस्तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-101-83a 14-101-83b |
वर्षेणैकेन यावन्ति पिण्डान्यश्नन्ति ये द्विजाः। तावद्वर्षाणि राजेन्द्र मम लोके महीयते।। | 14-101-84a 14-101-84b |
ततश्चापि च्युतः कालादिह लोके महायशाः। वेदसास्त्रार्थतत्वज्ञो भोगवान्ब्राह्मणो भवेत्।। | 14-101-85a 14-101-85b |
सर्वातिथ्यं तु यः कुर्याद्यथाश्रद्धं नरेश्वर। अकालनियमेनापि सत्यवादी जितेन्द्रियः।। | 14-101-86a 14-101-86b |
सत्यसन्धो चितक्रोधः शाखाधर्मविवर्जितः। अधर्मभीरुर्धर्मिष्ठो मायामात्सर्यवर्जितः।। | 14-101-87a 14-101-87b |
श्रद्दधानः सुचिर्नित्यं पाकबेदविवर्जितः। स विमानेन दिव्येन दिव्यरूपी महायशाः।। | 14-101-88a 14-101-88b |
पुरन्दरपुरं याति गीयमानोप्सरोगणैः। मन्वन्तरं तु तत्रैव क्रीडित्वा देवपूजितः। मानुष्यलोकमागम्य भोगवान्ब्राह्मणो भवेत्।। | 14-101-89a 14-101-89b 14-101-89c |
दशजन्मानि विप्रत्वमाप्नुयाद्राजपूजितः। जातिस्मरश्च भवति यत्रयत्रोपजायते।। | 14-101-90a 14-101-90b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि एकाधिकशततमोऽध्यायः।। 101 |
आश्वमेधिकपर्व-100 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-102 |