महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-016

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चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-016
वेदव्यासः
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वैशंपायनेन कुरुविजयानन्तरं हास्तिनपुरे कृष्णार्जुनविहारप्रकारवर्णनम्।। 1 ।। कृष्णेनार्जुनंप्रति युधिष्ठिरे स्वस्य निजनगरजिगमिषानिवेदनचोदना।। 2 ।।

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जनमेजय उवाच। 14-16-1x
विजिते पाण्डवेयैस्तु प्रशान्ते च द्विजोत्तम।
राष्ट्रे ते चत्रतुर्वीरौ वासुदेवधनंजयौ।।
14-16-1a
14-16-1b
वैशम्पायन उवाच। 14-16-2x
विजिते पाण्डवै राजन्प्रशान्ते च विशाम्पतौ।
राष्ट्रे बभूवतुर्हृष्टौ वासुदेवधनंजयौ।।
14-16-2a
14-16-2b
विजह्राते मुदा युक्तौ दिवि देवश्वराविव।
तौ वनेषु विचित्रेषु पर्वतेषु ससानुषुः।।
14-16-3a
14-16-3b
तीर्थेषु चैव पुण्येषु पल्वलेषु नदीषु च।
चंक्रम्यमाणौ संहृष्टावश्विनाविव नन्दने।।
14-16-4a
14-16-4b
इन्द्रप्रस्थे महात्मानौ रेमाते कृष्णपाण्डवौ।
प्रविश्य तां सभां रम्यां विजह्राते च भारत।।
14-16-5a
14-16-5b
तत्र युद्धकथाश्चित्राः परिक्लेशांश्च पार्थिव।
कथायोगे कथायोगे कथयामासतुः सदा।।
14-16-6a
14-16-6b
ऋषीणां देवतानां च वंशांस्तावाहतुः सदा।
प्रीयमाणौ महात्मानौ पुराणावृषिसत्तमौ।।
14-16-7a
14-16-7b
मधुरास्तु कथाश्चित्राश्चित्रार्थपदनिश्चयाः।
निश्चयज्ञः स पार्थाय कथयामास केशवः।।
14-16-8a
14-16-8b
पुत्रशोकाभिसंतप्तं ज्ञातीनां च सहस्रशः।
कथाभिः शमयामास पार्तं शौरिर्जनार्दनः।।
14-16-9a
14-16-9b
स तमाश्वास्य विधिवद्विधानज्ञो महातपाः।
अपहृत्यात्मनो भारं विशश्रामेव सात्वतः।।
14-16-10a
14-16-10b
ततः कथान्ते गोविन्दो गुडाखेशमुवाच ह।
सान्त्वयञ्श्लक्ष्णया वाचा हेतुयुक्तमिदं वचः।।
14-16-11a
14-16-11b
विजितेयं धरा कृत्स्ना सव्यसाचिन्परंतप।
त्वद्बाहुबलामाश्रित्य राज्ञा धर्मसुतेन ह।।
14-16-12a
14-16-12b
असपत्नां महीं भुङ्क्ते धर्मराजो युधिष्ठिरः।
भीमसेनानुभावेन यमयोश्च नरोत्तम।।
14-16-13a
14-16-13b
धर्मेणि राज्ञा धर्मज्ञ प्राप्तं राज्यमकण्टकम्।
धर्मेण निहतः सङ्ख्ये स च राजा सुयोधनः।।
14-16-14a
14-16-14b
अधर्मरुचयो लुब्धाः सदा चाप्रियवादिनः।
धार्तराष्ट्रा दुरात्मानः सानुबन्धा निपातिताः।।
14-16-15a
14-16-15b
प्रशान्तामखिलां पार्थ पृथिवीं पृथिवीपतिः।
भुङ्क्ते धर्मसुतो राजा त्वया गुप्तः कुरूद्वह।।
14-16-16a
14-16-16b
रमे चाहं त्वया सार्धमरण्येष्वपि पाण्डव।
किमु यत्र जनोऽयं वै पृथा चामित्रकर्मन।।
14-16-17a
14-16-17b
यत्र धर्मसुतो राजा यत्र यत्र भीमो महाबलः।
यत्र माद्रवतीपुत्रौ रतिस्तत्र परा मम।।
14-16-18a
14-16-18b
तथैव स्वर्गलोकेषु सभोद्देशेषु कौरव।
रमणीयेषु पुष्णेषु सहितस्य त्वयाऽनध।।
14-16-19a
14-16-19b
कालो महांस्त्वतीतो मे शूरसूनुमपश्यतः।
बलदेवं च कौरव्यं तथाऽन्यान्वृष्णिपुङ्गवान्।।
14-16-20a
14-16-20b
सोहं गन्तुमभीप्सामि पुरीं द्वारावतीं प्रति।
रोचतां गमनं तुभ्यं ममापि पुरुषर्षभ।।
14-16-21a
14-16-21b
उक्तो बहुविधं राजा तत्रतत्र युधिष्ठिरः।
सह भीष्मेण यद्युक्तमस्माभिः शोकर्शितः।।
14-16-22a
14-16-22b
शिष्टो युधिष्टिरोऽस्माभिः शास्ता सन्नपि पाण्डवः।
तेन तत्तु वचः सम्यग्गृहीतं सुमहात्मना।।
14-16-23a
14-16-23b
धर्मपुत्रे हि धर्मज्ञे कृतज्ञे सत्यवादिनि।
सत्यं धर्मो मतिश्चाग्र्या स्थितिश्च सततं स्थिरा।।
14-16-24a
14-16-24b
तत्र गत्वा महात्मानं यदि ते रोचतेऽर्जुन।
अस्मद्गमनसंयुक्तं वचो ब्रूहि जनाधिपम्।।
14-16-25a
14-16-25b
न हि तस्याप्रियं कुर्यां प्राणत्योगेऽप्युपस्थिते।
कुतो गन्तुं महाबाहो पुरीं द्वारावतीं प्रति।।
14-16-26a
14-16-26b
सर्वं त्विदमहं पार्त त्वत्प्रीतिहितकाम्यया।
ब्रवीमि सत्यं कौरव्य न मिथ्यैतत्कथञ्चन।।
14-16-27a
14-16-27b
प्रयोजनं च निर्वृत्तमिह वासेन मेऽर्जुन।
धार्तराष्ट्रो हतो राजा सबलः सपदानुगः।।
14-16-28a
14-16-28b
पृथिवी च वशे तात धर्मपुत्रस्य धीमतः।
स्थिता समुद्रवसना सशैलवनकानना।।
14-16-29a
14-16-29b
चिता रत्नैर्बहुविधैः कुरुराजस्य पाण्डव।
धर्मेण राजा धर्मज्ञः पातु सर्वां वसुन्धराम्।।
14-16-30a
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उपास्यमानो मुनिभिः सिद्धैश्चापि महात्मभिः।
स्तूयमानश्च सततं बन्दिभिर्भरतर्षभ।।
14-16-31a
14-16-31b
तं मया सह गत्वाऽद्य राजानं कुरुवर्धनम्।
आपृच्छ कुरुशार्दूल गमनं द्वारकां प्रति।।
14-16-32a
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इदं शरीरं वसु यच्च मे गृहे
निवेदितं पार्थ सदा युधिष्ठिरे।
प्रियश्च मान्यश्च हि मे युधिष्ठिरः
सदा कुरूणामधिपो महामतिः।।
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प्रयोजनं चापि निवासकारणे
न विद्यते मे त्वदृते नृपात्मज।
स्थिता हि पृथ्वी तव पार्थ शासने
गुरोः सुवृत्तस्य युधिष्ठिरस्य च।।
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इतीदमुक्तः स तदा महात्मना
जनार्दनेनामितविक्रमोऽर्जुनः।
तथेति दुःखादिव वाक्यमैरय-
ज्जनार्दनं सम्प्रतिपूज्य पार्थिव।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अश्वमेधपर्वणि षोडशोऽध्यायः।। 16 ।।

14-16-4 शैलेषु गह्वरारण्ये पल्वलेष्विति क.थ.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-015 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-017