महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-046

← आश्वमेधिकपर्व-045 महाभारतम्
चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-046
वेदव्यासः
आश्वमेधिकपर्व-047 →

ब्रह्मणा महर्षीन्प्रति ब्रह्मचारिवनस्थधर्मनिरूपणपूर्वकं तदनुष्ठानस्य श्रेयःसाधनत्वोक्तिः।। 1 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
ब्रह्मोवाच। 14-46-1x
एवमेतेन मार्गेण पूर्वोक्तेन यथाविधि।
अधीतवान्यथाशक्ति तथैव ब्रह्मचर्यवान्।।
14-46-1a
14-46-1b
स्वधर्मनिरतो विद्वान्सर्वेन्द्रिययतो मुनिः।
गुरोः प्रियहिते युक्तः सत्यधर्मपरः शुचिः।।
14-46-2a
14-46-2b
गुरुणा समनुज्ञातो भुञ्जीतान्नमकुत्सयन्।
हविष्यभैक्ष्यभुक् चापि स्थानासनविहारवान्।।
14-46-3a
14-46-3b
द्विकालमग्निं जुह्वानः शुचिर्भूत्वा समाहितः।
धारयीत सदा दण्डं बैल्वं पालाशमेव वा।।
14-46-4a
14-46-4b
क्षौमं कार्पासिकं वाऽपि मृगाजिनमथापि वा।
सर्वं काषायरक्तं वा वासो वाऽपि द्विजस्य ह।।
14-46-5a
14-46-5b
मेखला च भवेन्मौञ्जी जटो नित्योदकस्तथा।
यज्ञोपवीती स्वाध्यायी अलुप्तनियतव्रतः।।
14-46-6a
14-46-6b
पूताभिश्च तथैवाद्भिः सदा दैवततर्पणम्।
भावेन नियतः कुर्वन्ब्रह्मचारी प्रशस्यते।।
14-46-7a
14-46-7b
एवं युक्तो जयेत्स्वर्गमूर्ध्वरेताः समाहितः।
न संसरति जातीषु परमं स्थानमाश्रितः।।
14-46-8a
14-46-8b
संस्कृतः सर्वसंस्कारैस्तथैव ब्रह्मचर्यवान्।
ग्रामान्निष्क्रम्य चारण्ये मुनिः प्रव्रजितो वसेत्।।
14-46-9a
14-46-9b
चर्मवल्कलसंवासी सायं प्रातरुपस्पृशेत्।
अरण्यगोचरो नित्यं न ग्रामं प्रविशेत्पुनः।।
14-46-10a
14-46-10b
अर्चयन्नतिथीन्काले दद्याच्चापि प्रतिश्रयम्।
फलपत्रावरैर्मूलैः श्यामाकेन च वर्तयन्।।
14-46-11a
14-46-11b
स नित्यमुदकं वायुं सर्वं वानेयमाश्रयेत्।
प्राश्नीयादानुपूर्व्येण यथादीक्षमतन्द्रितः।।
14-46-12a
14-46-12b
समूलफलशाकाद्यैरर्चेदतिथिमागतम्।
यद्भक्षः स्यात्ततो दद्याद्भिक्षां नित्यमतन्द्रितः।।
14-46-13a
14-46-13b
देवतातिथिपूर्वं च सदा प्राश्नीत वाग्यतः।
अस्कन्दितमनाश्चैव लघ्वाशी देवताश्रयः।।
14-46-14a
14-46-14b
दान्तो मैत्रः क्षमायुक्तः कशाञ्शमश्रु च धारयन्।
जुह्वन्स्वाध्यायशीलश्च सत्यधर्मपरायणः।।
14-46-15a
14-46-15b
न्यस्तदेहः सदा दक्षो वननित्यः समाहितः।
एवं युक्तो जयेत्स्वर्गं वानप्रस्थो जितेन्द्रियः।।
14-46-16a
14-46-16b
गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथवा पुनः।
य इच्छेन्मोक्षमास्थातुमुत्तमां वृत्तिमाश्रयेत्।।
14-46-17a
14-46-17b
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत्।
सर्वभूतहितो मैत्रः सर्वेन्द्रिययतो मुनिः।।
14-46-18a
14-46-18b
अयाचितमसंक्लृप्तमुपपन्नं यदृच्छया।
कृत्वा प्राह्णे चरेद्भैक्ष्यं विधूमे भुक्तवज्जने।।
14-46-19a
14-46-19b
वृत्ते शरावसम्पाते भैक्ष्यं लिप्सेत मोक्षवित्।
लाभेन च न हृष्येत नालाभे विमना भवेत्।
न चातिभिक्षां भिक्षेत केवलं प्राणयात्रिकः।।
14-46-20a
14-46-20b
14-46-20c
यात्रार्थी कालमाकाङ्क्षंश्चरेद्भैक्ष्यं समाहितः।
लाभं साधारणं नेच्छेन्न भुञ्जीताभिपूजितः।।
14-46-21a
14-46-21c
अभिपूजितलाभाद्वि विजुगुप्सेत भिक्षुकः।
भुक्तान्यन्नानि तिक्तानि कषायकटुकानि च।।
14-46-22a
14-46-22b
नास्वादयीत भुञ्जानो रसांश्च मधुरांस्तथा।
यात्रामात्रं च भुञ्जीत केवलं प्राणधारणम्।।
14-46-23a
14-46-23b
असंरोधेन भूतानां वृत्तिं लिप्सेत मोक्षवित्।
न चान्यमन्नं लिप्सेत भिक्षमाणः कथञ्चन।।
14-46-24a
14-46-24b
न सन्निकाशयेद्धर्मं विविक्ते चारजाश्चरेत्।
शून्यागारमण्यं वा वृक्षमूलं नदीं तथा।।
14-46-25a
14-46-25b
प्रतिश्रयार्थं सेवेत पार्वतीं वा पुनर्गुहाम्।
ग्रामैकरात्रिको ग्रीष्मे वर्षास्वेकत्र वा वसेत्।।
14-46-26a
14-46-26b
अध्वा सूर्येणि निर्दिष्टः कीटवच्च चरेन्महीम्।
दयार्तं चैव भूतानां समीक्ष्य पृथिवीं चरेत्।।
14-46-27a
14-46-27b
सञ्चयांश्च न कुर्वीत स्नेहवासं च वर्जयेत्।
पूताभिरद्भिर्नित्यं वै कार्यं कुर्वीत मोक्षवित्।।
14-46-28a
14-46-28b
उपस्पृशेदुद्दृताभिरद्भिश्च पुरुषः सदा।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च सत्यमार्जवमेव च।।
14-46-29a
14-46-29b
अक्रोधश्चानसूया च दमो नित्यमपैशुनम्।
अष्टस्वेतेषु युक्तः स्याद्व्रतेषु नियतेन्द्रियः।।
14-46-30a
14-46-30b
अपापमशठं वृत्तमजिह्मं नित्यमाचरेत्।
जोषयेत सदा भोज्यं ग्रासमागतमस्पृहः।।
14-46-31a
14-46-31b
यात्रामात्रं च भुञ्जीत केवलं प्राणयात्रिकम्।
धर्मलब्धमथाश्नीयान्न काममनुवर्तयेत्।।
14-46-32a
14-46-32b
ग्रासादाच्छादनादन्यन्न गृह्णीयात्कथञ्चन।
यावदाहारयेत्तावत्प्रतिगृह्णीत नाधिकम्।।
14-46-33a
14-46-33b
परेभ्यो न प्रतिग्राह्यं न च देयं कदाचन।
दैन्यभावाच्च भूतानां संविभज्य सदा बुधः।।
14-46-34a
14-46-34b
नाददीत परस्वानि न गृह्णीयान्न याचयेत्।
न किञ्चिद्विषयं भुक्त्वा स्पृहयेत्तस्य वै पुनः।।
14-46-35a
14-46-35b
मृदमापस्तथाऽन्नानि पत्रपुष्पफलानि च।
असंवृतानि गृह्णीयात्प्रवृत्तानि च कार्यवान्।।
14-46-36a
14-46-36b
न शिल्पजीविकां जीवेद्द्विरन्नं नोत कामयेत्।
न द्वेष्टा नोपदेष्टा च भवेच्च निरुपस्कृतः।।
14-46-37a
14-46-37b
श्रद्धापूतानि भुञ्जीत निमित्तानि च वर्जयेत्।
मुधावृत्तिरसक्तश्च सर्वभूतैरसंधितः।।
14-46-38a
14-46-38b
आशीर्युक्तानि सर्वाणि हिंसायुक्तानि यानि च।
लोकसङ्ग्रहधर्मं च नैव कुर्यान्न कारयेत्।।
14-46-39a
14-46-39b
सर्वभावानतिक्रम्य लघुमात्रः परिव्रजेत्।
समः सर्वेषु भूतेषु स्थावरेषु चरेषु च।।
14-46-40a
14-46-40b
परं नोद्वेजयेत्कञ्चिन्न च कस्यचिदुद्विजेत्।
विश्वास्यः सर्वभूतानामग्र्यो मोक्षविदुच्यते।।
14-46-41a
14-46-41b
अनागतं च न ध्यायेन्नातीतमनुचिन्तयेत्।
वर्तमानमुपेक्षेत कालाकाङ्क्षी समाहितः।।
14-46-42a
14-46-42b
न चक्षुषा न मनसा न वाचा दूषयेत्क्वचित्।
न प्रत्यक्षं परोक्षं वा किञ्चिद्दुष्टं समाचरेत्।।
14-46-43a
14-46-43b
इन्द्रियाण्युपसंहृत्य कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
क्षीणेन्द्रियमनोबुद्धिर्निरीहः सर्वतत्त्ववित्।।
14-46-44a
14-46-44b
निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निःस्वाहाकार एव च।
निर्ममो निरहङ्कारो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।
14-46-45a
14-46-45b
निराशीर्निर्गुणः शान्तो निरासक्तो निराश्रयः।
आत्मसङ्गी च तत्त्वज्ञो मुच्यते नात्र संशयः।।
14-46-46a
14-46-46b
अपादपाणिपृष्ठं तदशिरस्कमनूदरम्।
अभिन्नगुणकर्माणं केवलं विमलं स्थिरम्।।
14-46-47a
14-46-47b
अगन्धमरसस्पर्शमरूपाशब्दमेव च।
अनुगम्यमनासक्तममांसमपि चैव यत्।।
14-46-48a
14-46-48b
निशअचिन्तमव्ययं दिव्यं गृहस्थमपि सर्वदा।
सर्वभूतस्थमात्मानं ये पश्यन्ति न ते मृताः।।
14-46-49a
14-46-49b
न तत्र क्रमते बुद्धिर्नेन्द्रियाणि न देवताः।
वेदा यज्ञाश्च लोकाश्च न तपो न व्रतानि च।।
14-46-50a
14-46-50b
यत्र ज्ञानवतां प्राप्तिलिङ्गग्रहणा स्मृता।
तस्मादलिङ्गधर्मज्ञो धर्मतत्त्वमुपाचरेत्।।
14-46-51a
14-46-51b
गूढधर्माश्रितो विद्वान्विज्ञानचरितं चरेत्।
अमूढो मूढरूपेण चरेद्धर्ममदूषयन्।।
14-46-52a
14-46-52b
यथैनमवमन्येरन्परे सततमेव हि।
तथावृत्तश्चरेच्छान्तः सतां धर्मानकुत्सयन्।।
14-46-53a
14-46-53b
य एवं वृत्तसम्पन्नः स मुनिः श्रेष्ठ उच्यते।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च महाभूतानि पञ्च च।।
14-46-54a
14-46-54b
मनो बुद्धिरहङ्कारमव्यक्तं पुरुषं तथा।
एतत्सर्वं प्रसङ्ख्याय यथावत्तत्त्वनिश्चयात्।।
14-46-55a
14-46-55b
ततः स्वर्गमवाप्नोति विमुक्तः सर्वबन्धनैः।
एतावदन्तवेलायां परिसङ्ख्याय तत्त्ववित्।।
14-46-56a
14-46-56b
ध्यायेदेकान्तमास्थाय मुच्यतेऽथ निराश्रयः।
निर्मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो वायुराकाशगो यथा।।
14-46-57a
14-46-57b
क्षीणकोशो निरातङ्कस्तथेदं प्राप्नुयात्परम्।। 14-46-58a
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि षट्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 46 ।।
आश्वमेधिकपर्व-045 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-047