महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-051

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चतुर्दशपर्व
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वेदव्यासः
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कृष्णेनार्जुनंप्रति मुक्त्युपायप्रतिपादकगुरुशिष्यसंवादानुवादसमापनपूर्वकं स्वस्य निजनगरजिगमिषानिवेदनम्।। 1 ।।

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ब्रह्मोवाच। 14-51-1x
भूतानामथ पञ्चानामथेषामीश्वरं मनः।
नियमे च विसर्गे च भूतानां मन एव च।।
14-51-1a
14-51-1b
अधिष्ठातृमनो नित्यं भूतानां महतां तथा।
बुद्धिरैश्वर्यमाचष्टे क्षेत्रज्ञश्च स उच्यते।।
14-51-2a
14-51-2b
इनद्रियाणि मनो युङ्क्ते सदश्वानिव सारथिः।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः क्षेत्रज्ञे युज्यते सदा।।
14-51-3a
14-51-3b
महदश्वसमायुक्तं बुद्धिसंयमनं रथम्।
समारुह्य स भूतात्मा समन्तात्परिधावति।।
14-51-4a
14-51-4b
इन्द्रियग्रामसंयुक्तो मनःसारथिरेव च।
बुद्धिसंयमनो नित्यं महान्ब्रह्ममयो रथः।।
14-51-5a
14-51-5b
एवं यो वेत्ति विद्वान्वै सदा ब्रह्ममयं रथम्।
स धीरः सर्वलोकेषु न मोहमधिगच्छति।।
14-51-6a
14-51-6b
अव्यक्तादिविशेषान्तं सहस्थावरजङ्गमम्।।
सूर्यचन्द्रप्रभालोकं ग्रहनक्षत्रमण्डितम्।।
14-51-7a
14-51-7b
नदीपर्वतजालैश्च सर्वतः परिभूषितम्।
विविधाभिस्तथा चाद्भिः सततं समलंकृतम्।।
14-51-8a
14-51-8b
अजितं सर्वभूतानां सर्वप्राणभृतां गतिः।
एतद्ब्रह्मवनं नित्यं तस्मिंश्चरति क्षेत्रवित्।।
14-51-9a
14-51-9b
लोकेऽस्मिन्यानि सत्वानि त्रसानि स्थावराणि च।
तान्येवाग्रे प्रलीयन्ते पश्चाद्भूतकृता गुणाः।
गुणेभ्यः पञ्च भूतानि एष भूतसमुच्छ्रयः।।
14-51-10a
14-51-10b
14-51-10c
देवा मनुष्या गन्धर्वाः पिशाचासुरराक्षसाः।
सर्वे स्वभावतः सृष्टा न क्रियाभ्यो न कारणात्।।
14-51-11a
14-51-11b
एते विश्वसृजो विप्रा जायन्तीह पुनः पुनः।
तेभ्यः प्रसूतास्तेष्वेव महाभूतेषु पञ्चसु।
प्रलीयन्ते यथाकालमूर्मयः सागरे यथा।।
14-51-12a
14-51-12b
14-51-12c
विश्वसृग्भ्यस्तु भूतेभ्यो महाभूतास्तु सर्वशः।
भूतेब्यश्चापि पञ्चभ्यो भुक्तो गच्छेत्परां गतिम्।।
14-51-13a
14-51-13b
प्रजापतिरिदं सर्वं मनसैवासृजत्प्रभुः।
तथैव देवानृषयस्तपसा प्रतिपेदिरे।।
14-51-14a
14-51-14b
तपसश्चानुपूर्व्येण फलमूलाशिनस्तथा।
त्रैलोक्यं तपसा सिद्धाः पश्यन्तीह समाहिताः।।
14-51-15a
14-51-15b
औषधान्यगदादीनि नानाविद्याश्च सर्वशः।
तपसैव प्रसिद्ध्यन्ति तपोमूलं हि साधनम्।।
14-51-16a
14-51-16b
यद्दुरापं दुराम्नायं दुराधर्षं दुरन्वयम्।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम्।।
14-51-17a
14-51-17b
सुरापो ब्रह्महा स्तेनो भ्रूणहागुरुतल्पगः।
तपसैव सुतप्तेन मुच्यते किल्बिषात्ततः।।
14-51-18a
14-51-18b
मनुष्याः पितरो देवाः पशवो मृगपक्षिणः।
यानि चान्यानि भूतानि चराणि स्थावराणि च।।
14-51-19a
14-51-19b
तपःपरायणा नित्यं सिद्ध्यन्ते तपसा सदा।
तथैव तपसा देवा महाभागा दिवं गताः।।
14-51-20a
14-51-20b
आशीर्युक्तानि कर्माणि कुर्वते ये त्वतन्द्रिताः।
अहङ्कारसमायुक्तास्ते सकाशे प्रजापतेः।।
14-51-21a
14-51-21b
ध्यानयोगेन शुद्वेन निर्ममा निरहंकृताः।
आप्नुवन्ति महात्मानो महान्तं लोकमुत्तमम्।।
14-51-22a
14-51-22b
ध्यानयोगमुपागम्य प्रसन्नमतयः सदा।
सुखोपचयमव्यक्तं प्रविशन्त्यात्मवित्तमाः।।
14-51-23a
14-51-23b
ध्यानयोगादुपागम्य निर्ममा निरहंकृताः।
अव्यक्तं प्रविशन्तीह महतां लोकमुत्तमम्।।
14-51-24a
14-51-24b
अव्यक्तादेव सम्भूताः समयज्ञा गताः पुनः।
तमोरजोभ्यां निर्मुक्ताः सत्वमास्थाय केवलम्।।
14-51-25a
14-51-25b
निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यः सर्वं त्यजति निष्कलः।
क्षेत्रज्ञ इति तं विद्याद्यस्तं वेद स वेदवित्।।
14-51-26a
14-51-26b
चित्तं चित्तादुपागम्य मुनिरासीत संयतः।
यच्चित्तस्तन्मना भूत्वा ग्राह्यमेतत्सनातनम्।।
14-51-27a
14-51-27b
अव्यक्तादिविशेषान्तमविद्यालक्षणं स्मृतम्।
निबोधत तथा ज्ञानं गुणैर्लक्षणमित्युत।।
14-51-28a
14-51-28b
द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
ममेति च भवेन्मृत्युर्न ममेति च शाश्वतम्।।
14-51-29a
14-51-29b
कर्म केचित्प्रशंसन्ति मन्दबुद्धितया नराः।
ये तु वृद्धा महात्मानो न प्रशंसन्ति कर्म ते।।
14-51-30a
14-51-30b
कर्मणा जायते जन्तुर्मूर्तिमान्षोडशात्मकः।
पुरुषं ग्रसते विद्या तद्ग्राह्यममृताशिनम्।।
14-51-31a
14-51-31b
तस्मात्कर्मसु निःस्नेहा ये केचित्पारदर्शिनः।
विद्यामयोऽयं पुरुषो न तु कर्ममयः स्मृतः।।
14-51-32a
14-51-32b
य एवममृतं नित्यमग्राह्यं शश्वदक्षरम्।।
वश्यात्मानमसंश्लिष्टं यो वेद न मृतो भवेत्।।
14-51-33a
14-51-33b
अपूर्वमकृतं नित्यं य एनमविचारिणम्।
य एवं विन्देदात्मानमग्राह्यममृताशनम्।
अग्राह्यो ह्यमृतो भवति स एभिः कारणैर्ध्रुवः।।
14-51-34a
14-51-34b
14-51-34c
आयोज्य सर्वसंस्कारान्संयम्यात्मानमात्मनि।
स तद्ब्रह्म शुभं वेत्ति यस्माद्भूयो न विद्यते।।
14-51-35a
14-51-35b
प्रसादे चैव सत्वस्य प्रसादं समवाप्नुयात्।
लक्षणं हि प्रसादस्य यथा स्यात्स्वप्नदर्शनम्।।
14-51-36a
14-51-36b
गतिरेषा तु मुक्तानां ये ज्ञानपरिनिष्ठिताः।
प्रवृत्तयश्च याः सर्वाः पश्यन्ति परिणामजाः।।
14-51-37a
14-51-37b
एषा गतिर्विरक्तानामेष धर्मः सनातनः।
एषा ज्ञानवतां प्राप्तिरेतद्वृत्तमनिन्दितम्।।
14-51-38a
14-51-38b
समेन सर्वभूतेषु निस्पृहेण निराशिषा।
शक्या गतिरियं गन्तुं सर्वत्र समदर्शिना।।
14-51-39a
14-51-39b
एतद्वः सर्वमाख्यातं मया विप्रर्षिसत्तमाः।
एवमाचरत क्षिप्रं ततः सिद्धिमवाप्स्यथ।।
14-51-40a
14-51-40b
गुरुरुवाच। 14-51-41x
इत्युक्तास्ते तु मुनयो गुरुणा ब्रह्मणा तथा।
कृतवन्तो महात्मानस्ततो लोकमवाप्नुवन्।।
14-51-41a
14-51-41b
त्वमप्येतन्महाभाग मयोक्तं ब्रह्मणो वचः।
सम्यगाचर शुद्धात्भंस्ततः सिद्धिमवाप्स्यसि।।
14-51-42a
14-51-42b
वासुदेव उवाच। 14-51-43x
इत्युक्तः स तदा शिष्यो गुरुणा धर्ममुत्तमम्।
चकार सर्वं कौन्तेय ततो मोक्षमवाप्तवान्।।
14-51-43a
14-51-43b
कृतकृत्यश्च स तदा शिष्यः कुरुकुलोद्वह।
तत्पदं समनुप्राप्तो यत्र गत्वा न शोचति।।
14-51-44a
14-51-44b
अर्जुन उवाच। 14-51-45x
को न्वसौ ब्राह्मणः कृष्ण कश्च शिष्यो जनार्दन।
श्रोतव्यं चेन्मयैतद्वै तत्त्वमाचक्ष्व मे विभो।।
14-51-45a
14-51-45b
0
वासुदेव उवाच। 14-51-46x
अहं गुरुर्महाबाहो मनः शिष्य च विद्धि मे।
त्वत्प्रीत्या गुह्यमेतच्च कथितं ते धनंजय।।
14-51-46a
14-51-46b
मयि चेदस्ति ते प्रीतिर्नित्यं कुरुकुलोद्वह।
अध्यात्ममेतच्छ्रुत्वा त्वं सम्यगाचर सुव्रत।।
14-51-47a
14-51-47b
ततस्त्वं सम्यगाचीर्णो धर्मेऽस्मिन्नरिकर्शन।
सर्वपापविनिर्मुक्तो मोक्षं प्राप्स्यसि केवलम्।।
14-51-48a
14-51-48b
पूर्वमप्येतदेवोक्तं युद्धकाल उपस्थिते।
मया तव महाबाहो तस्मादत्र मनः कुरु।।
14-51-49a
14-51-49b
मया तु भरतश्रेष्ठ चिरदृष्टः पिता प्रभुः।
तमहं द्रष्टमिच्छामि सम्मते तव फल्गुन।।
14-51-50a
14-51-50b
वैशम्पायन उवाच। 14-51-51x
इत्युक्तवचनं कृष्णं प्रत्युवाच धनंजयः।
`यदिष्टं कुरु सर्वेषामीश्वरोऽस्मान्प्रपालय।।
14-51-51a
14-51-51b
नमस्ते सर्वलोकात्मन्नारायण परात्पर।
मनोमलात्तपोशक्यं कर्म चाविद्यया हतम्।
दानमप्यर्थदोषेणि नाम तस्मात्कलौ स्मरेत्।।
14-51-52a
14-51-52b
14-51-53c
यदि गन्तुं कृता बुद्धिर्वासुदेव नमोस्तु ते।'
गच्छावो नगरं कृष्ण गजसाह्वयमद्य वै।।
14-51-53a
14-51-53b
समेत्य तत्रि राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
समनुज्ञाप्य राजानं स्वां पुरीं यातुमर्हसि।।
14-51-54a
14-51-54b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि एकपञ्चाशोऽध्यायः।। 51 ।।

14-51-13 महाभूतानि गच्छतीति क.ट.थ.पाठः।। 14-51-31 विममो यः स पुरुष इति क.पाठः।। 14-51-35 अपोह्य सर्वान्संकल्पान्संयतात्मानमात्मनीति थ.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-050 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-052