महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-014
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व्यासनारदकृष्णादिभिर्बन्धुनिधनपरिशोचिनो युधिष्ठिरस्य समाश्वासनेन तत्रान्तर्धानम्।। 1 ।। युधिष्ठिरेण भीष्मिदीनामौर्ध्वदेहिकदानेन हास्तिननगरप्रवेशः।। 2 ।।
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वैशम्पायन उवाच। | 14-14-1x |
एवं बहुविधैर्वाक्यैर्मुनिभिस्तैस्तपोधनैः। समाश्वस्त राजर्षिर्हितबन्धुर्युधिष्ठिरः।। | 14-14-1a 14-14-1b |
सोऽनुनीतो भगवता विष्टरश्रवसा स्वयम्। द्वैपायनेन कृष्णेनि देवस्थानेन चाभिभूः।। | 14-14-2a 14-14-2b |
नारदेनाथ भीमेन नकुलेन च पार्थिव। कृष्णया सहदेवेन विजयेन च धीमता।। | 14-14-3a 14-14-3b |
अन्यैश्च पुरुषव्याघ्रैर्ब्राह्मणैः शास्त्रदृष्टिभिः। व्यजहाच्छोकजं दुःखं सन्तापं चैव मानसम्।। | 14-14-4a 14-14-4b |
अर्चयामास देवांश्च ब्राह्मणांश्च युधिष्ठिरः। कृत्वाऽथ प्रेतकार्याणि सर्वेषां कुरुनन्दनः। अन्वशासच्च धर्मात्मा पृथिवीं सागराम्बराम्।। | 14-14-5a 14-14-5b 14-14-5c |
प्रशान्तचेताः कौरव्यः स्वराज्यं प्राप्य केवलम्। व्यासं च नारदं चैव तांश्चान्यानब्रवीन्नृपः।। | 14-14-6a 14-14-6b |
आश्वासितोऽहं प्राग्वृद्धैर्भवद्भिर्मुनिपुङ्गवैः। न सूक्ष्ममपि मे किञ्चिद्व्यलीकमिह विद्यते।। | 14-14-7a 14-14-7b |
अर्थश्च सुमहान्प्राप्तो येन यक्ष्यामि देवताः। पुरस्कृत्याद्य भवतः समानेष्यामहे मखम्।। | 14-14-8a 14-14-8b |
हिमवन्तं त्वया गुप्ता गमिष्यामः पितामह। बह्वाश्चर्यो हि देशः स श्रूयते द्विजसत्तम।। | 14-14-9a 14-14-9b |
तथा भगवता चित्रं कल्याणं बहु भाषितम्। देवर्षिणा नारदेन देवस्थानेन चैव ह।। | 14-14-10a 14-14-10b |
नाभागधेयः पुरुषः कश्चिदेवंविधान्गुरून्। लभते व्यसनं प्राप्य सुहृदः साधुसम्मतान्।। | 14-14-11a 14-14-11b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-14-12x |
एवमुक्तास्तु ते राज्ञा सर्व एव महर्षयः। अभ्यनुज्ञाप्य राजानं तथोभौ कृष्णफल्गुनौ।। | 14-14-12a 14-14-12b |
पश्यतामेव सर्वेषां तत्रैवादर्शनं ययुः। ततो धर्मसुतो राजा तत्रैवोपाविशत्प्रभुः।। | 14-14-13a 14-14-13b |
एवं नातिमहान्कालः स तेषां संन्यवर्तत। कुर्वतां शौचकार्याणि भीष्मस्य निधने तदा। महादानानि विप्रेभ्यो ददतामौर्ध्वदेहिकम्।। | 14-14-14a 14-14-14b 14-14-14c |
भीष्मकर्णपुरोगाणां कुरूणां कुरुसत्तम। सहितो धृतराष्ट्रेण स ददावौर्ध्वदेहिकम्।। | 14-14-15a 14-14-15b |
ततो दत्त्वा बहुधनं विप्रेभ्यः पाण्डवर्षभः। धृताराष्ट्रं पुरुस्कृत्य विवेश गजसाह्वयम्।। | 14-14-16a 14-14-16b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः।। 14 ।। |
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