महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-090
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युधिष्ठिरेणाश्वमेधसमापनानन्तरं राज्ञां यथोचितं संमानपूर्वकं स्वस्वदेशान्प्रति प्रस्थापनम्।। 1 ।।
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वैशम्पायन उवाच। | 14-90-1x |
श्रपयित्वा पशूनन्यान्विधिवद्द्विजसत्तमाः। तं तुरङ्गं यथाशास्त्रमालभन्त द्विजातयः।। | 14-90-1a 14-90-1b |
ततः संज्ञप्य तुरगंक विधिवद्याजकर्षभाः। उपसंवेशयांचक्रुस्ततस्तां द्रुपदात्मजाम्। कलाभिस्तिसृभी राजन्यथाविधि मनस्विनीम्।। | 14-90-2a 14-90-2b 14-90-2c |
उद्धृत्य तु वपां तस्य यथाशास्त्रं द्विजातयः। श्रपयामासुरव्यग्रा विधिवद्भरतर्षभ।। | 14-90-3a 14-90-3b |
तं वपाधूमगन्धं तु धर्मराजः सहानुजैः। उपाजिघ्रद्यथासास्त्रं सर्वपापापहं तदा।। | 14-90-4a 14-90-4b |
शिष्टान्यङ्गानि यान्यासंस्तस्याश्वस्य नराधिप। तान्यग्रौ जुहुवुर्धीराः समस्ताः षोडशर्त्विजः।। | 14-90-5a 14-90-5b |
संस्थाप्यैवं तस्य राज्ञस्तं यज्ञं शक्रतेजसः। व्यासः सशिष्यो भगवान्वर्धयामास तं नृपम्।। | 14-90-6a 14-90-6b |
ततो युधिष्ठिरः प्रादात्सदस्येभ्यो यथाविधि। कोटीः सहस्रं निष्काणां व्यासाय तु वसुंधराम्।। | 14-90-7a 14-90-7b |
प्रतिगृह्य धरां राजन्व्यासः सत्यवतीसुतः। अब्रवीद्भरतश्रेष्ठं धर्मराजं युधिष्ठिरम्।। | 14-90-8a 14-90-8b |
वसुधा भवतस्त्वेषां संन्यस्ता राजसत्तम। निष्क्रयो दीयतां मह्यं ब्राह्मणा हि धनार्थिना।। | 14-90-9a 14-90-9b |
युधिष्ठिरस्तु तान्विप्रान्प्रत्युवाच महामनाः। भ्रातृभिः सहितो धीमान्मध्ये राज्ञां महात्मनाम्।। | 14-90-10a 14-90-10b |
अश्वमेधे महायज्ञे पृथिवी दक्षिणा स्मृता। अर्जुनेन जिता चेयमृत्विग्भ्यः प्रापिता मया।। | 14-90-11a 14-90-11b |
वनं प्रवेक्ष्ये विप्राग्र्या विभजध्वं महीमिमाम्। चतुर्धा पृथिवीं कृत्वा चातुर्होत्रप्रमाणतः।। | 14-90-12a 14-90-12b |
नाहमादातुमिच्छामि ब्रह्मस्वं द्विजसत्तमाः।। इदं नित्यं मनो विप्रा भ्रातॄणां चैव मे सदा।। | 14-90-13a 14-90-13b |
इत्युक्तवति तस्मिंस्तु भ्रातरो द्रौपदी च सा। एवमेतदिति प्राहुस्तदभूद्रोमहर्षणम्।। | 14-90-14a 14-90-14b |
ततोऽन्तरिक्षे वागासीत्साधुसाध्विति भारत। तथैव द्विजसङ्घानां शंसतां विबभौ स्वनः।। | 14-90-15a 14-90-15b |
द्वैपायनस्तथा कृष्णः पुनरेव युधिष्ठिरम्। प्रोवाच मध्ये विप्राणामिदं सम्पूजयन्मुनिः।। | 14-90-16a 14-90-16b |
दत्तैषा भवता मह्यं तां ते प्रतिददाम्यहम्। हिरण्यं दीयतामेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो धराऽस्तु ते।। | 14-90-17a 14-90-17b |
ततोऽब्रवीद्वासुदेवो धर्मराजं युधिष्ठिरम्। यथाऽऽह भगवान्व्यासस्तथा त्वं कर्तुमर्हसि।। | 14-90-18a 14-90-18b |
इत्युक्तः स कुरुश्रेष्ठः प्रीतात्मा भ्रातृभिः सह। कोटिं कोटिं गवां प्रादाद्दक्षिणां त्रिगुणीकृताम्।। | 14-90-19a 14-90-19b |
न करिष्यति तल्लोके कश्चिदन्यो नराधिपः। यत्कृतं कुरुराजेन मरुत्तस्यानुकुर्वता।। | 14-90-20a 14-90-20b |
प्रतिगृह्य तु तद्द्रव्यं कृष्णद्वैपायनो मुनिः। ऋत्विग्भ्यः प्रददौ विद्वांश्चतुर्धा व्यभजंश्च ते।। | 14-90-21a 14-90-21b |
धरण्या निष्क्रयं दत्त्वा तद्धिरण्यं युधिष्ठिरः। दूतपापो जितस्वर्गो मुमुदे भ्रातृभिः सह।। | 14-90-22a 14-90-22b |
ऋत्विजस्तमपर्यन्तं सुवर्णनिचयं तथा। व्यभजन्त द्विजातिभ्यो यथोत्साहं यथासुखम्।। | 14-90-23a 14-90-23b |
यज्ञवाटे च यत्किञ्चिद्धिरण्यं सवि भूषणम्। तोरणानि च यूपांश्च घटान्पात्रीस्तथेष्टकाः। युधिष्ठिराभ्यनुज्ञाताः सर्वं तद्व्यभजन्द्विजाः।। | 14-90-24a 14-90-24b 14-90-24c |
अनन्तरं द्विजातिभ्यः क्षत्रिया जह्रिरे वसु। तथा विट्शूद्रसङ्घाश्च तथाऽन्ये म्लेच्छजातयः। `कालेन महता जह्रुस्तत्सुवर्णं ततस्ततः।।' | 14-90-25a 14-90-25b 14-90-25c |
ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे मुदिता जग्मुरालयान्। तर्पिता वसुना तेन धर्मिराजेन धीमिता।। | 14-90-26a 14-90-26b |
स्वमंशं भगवान्व्यासः कुन्त्यै पादाभिवादितः। प्रददौ तस्य महतो हिरण्यस्य महाद्युतिः।। | 14-90-27a 14-90-27b |
श्वशुरात्प्रीतिदायं तं प्राप्य सा प्रीतमानसा। चकार पुण्यकं तेन सुमहत्सङ्घशः पृथा।। | 14-90-28a 14-90-28b |
गत्वा त्ववभृथं राजा विपाप्मा भ्रातृभिः सह। सभाज्यमानः शुशुभे महेन्द्रस्त्रिदशैरिव।। | 14-90-29a 14-90-29b |
पाण्डवाश्च महीपालैः समेतैरभिसंवृताः। अशोभन्त महाराज ग्रहस्तारागणैरिव।। | 14-90-30a 14-90-30b |
राजभ्योपि ततः प्रादाद्रत्नानि विविधानि च। गजानश्वानलङ्कारान्त्रियो वासांसि काञ्चनम्।। | 14-90-31a 14-90-31b |
तद्धनौघमपर्यन्तं पार्थः पार्थिवमण्डले। विसृजञ्शुशुभे राजन्यथा वैश्रवणस्तथा।। | 14-90-32a 14-90-32b |
आनीय च तथा वीरं राजानं बभ्रुवाहनम्। प्रदाय विपुलं वित्तं गृहात्प्रास्थापयनत्तदा।। | 14-90-33a 14-90-33b |
दुःशलायाश्च तं पौत्रं बालकं भरतर्षभ। स्वराज्येऽथ पितुर्धामान्स्वसुः प्रीत्या न्वयेशयत्।। | 14-90-34a 14-90-34b |
नृपतींश्चैव तान्सर्वान्सुविभक्तान्सुपूजितान्। प्रस्थापयामास वशी कुरुराजो युधिष्ठिरः।। | 14-90-35a 14-90-35b |
गोविन्दं च महात्मानं बलदेवं महाबलम्। तथाऽन्यान्वृष्णिवीरांश्च प्रद्युम्नाद्यान्सहस्रशः।। | 14-90-36a 14-90-36b |
पूजयित्वा महाराज यथाविधि महाद्युतिः। भ्रातृभिः सहितो राजा प्रास्थापरयदरिंदमः।। | 14-90-37a 14-90-37b |
एवं बभूव यज्ञः स धर्मिराजस्य धीमतः। बह्वन्नधनरत्नौघः सुरामैरेयसागरः।। | 14-90-38a 14-90-38b |
सर्पिःपङ्का ह्रदा यत्र बभूवुश्चान्नपर्वताः। रसालकर्दमा नद्यो बभूवुर्भरतर्षभ।। | 14-90-39a 14-90-39b |
भक्ष्यखाण्डवरागाणां क्रियतां भुज्यतां तथा। पशूनां वध्यतां चैव नान्तं ददृशिरे जनाः।। | 14-90-40a 14-90-40b |
मत्तप्रमत्तमुदितं सुप्रीतयुवतीजनम्। मृदङ्गशङ्खनादैस्च मनोरममभूत्तदा। | 14-90-41a 14-90-41b |
दीयतां भुज्यतां चापि तत्र शब्दो महानभूत्। दीयतां दीयतां चेति दिवारात्रमवारितम्।। | 14-90-42a 14-90-42b |
तं महोत्सवसंकाशं हृष्टपुष्टजनाकुलम्। कथयन्ति स्म पुरुषा नानादेशनिवासिनः।। | 14-90-43a 14-90-43b |
वर्षित्वा धनधाराभिः कामै रत्नै रसैस्तथा। विपाप्मा भरतश्रेष्ठः कृतार्थः प्राविशत्पुरम्।। | 14-90-44a 14-90-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि नवतितमोऽध्यायः।। 90 ।। |
14-90-2 संज्ञप्य हिंसित्वा तुरगम्। तस्य समीपे तिसृभिः कलाभिः कलनाभिः मन्त्रद्रव्यश्रद्दाख्याभिरुपेतां द्रौपदीं उपसंवेशयां चक्रुः।। 14-90-5 अङ्गानि हृदयजिह्वावक्षआदीनी।। 14-90-6 संस्थाप्य समाप्य।। 14-90-7 तुशब्दश्चार्थे। तेन सर्वेभ्यो वसुधरां ददावित्यर्थः।। 14-90-25 अनन्तरं द्विजातिभ्यः विप्रेषु गृहीत्वा निवृत्तेषु शिष्टात् क्षत्रियादयो गहीतवन्त इत्यर्थः।। 14-90-38 मैरेयं वृक्षजं मद्यम्।। 14-90-40 पिप्पलीशुण्ठीयुक्तो मुद्गयूषः खाण्डवः स एव शर्कारयुक्तो रागः
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