महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-077
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अश्वानुसरणवशास्सिन्धुदेशं गतेनार्जुनेन सैन्धवैःसह महाऽऽयोधनम्।। 1 ।।
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बाणगणावकीर्णस्यार्जुनस्य कराद्गाण्डीवस्या धःपतने देवर्ष्यादिभिर्जपादिना तस्य
वैशम्पायन उवाच। | 14-77-1x |
`जित्वा प्रसाद्य राजानं भगदत्तसुतं तदा। विसृज्य याते तुरगे सैन्धवान्प्रति भारत।।' | 14-77-1a 14-77-1b |
सैन्धवैरभवगद्युद्धं ततस्तस्य किरीटिनः। हतशेषैर्महाराज हतानां च सुतैरपि।। | 14-77-2a 14-77-2b |
तेऽवतीर्णमुपश्रुत्य विषयं श्वेतवाहनम्। प्रत्युद्ययुरमृष्यन्ते राजानः पाण्डवर्षभम्।। | 14-77-3a 14-77-3b |
अश्वं च तं परामृश्य विषयान्ते विषोपमात्। न भयं चक्रिरे पार्थाद्भीमसेनादनन्तरात्।। | 14-77-4a 14-77-4b |
तेऽविदूराद्धनुष्पाणिं यज्ञियस्य हयस्य च। बीभत्सुं प्रत्यपद्यन्त् पदातिनमवस्थितम्।। | 14-77-5a 14-77-5b |
ततस्ते तं महावीर्या राजानः पर्यवारयन्। जिगीषन्तो नरव्याघ्रं पूर्वं विनिकृता युधि।। | 14-77-6a 14-77-6b |
ते नामान्यपि गोत्राणि कर्मणि विविधानि च। कीर्तयन्तस्तदा पार्थं शरवर्षैरवाकिरन्।। | 14-77-7a 14-77-7b |
ते किरन्तः शरव्रातान्वारणप्रतिवारणान्। रणे जयमभीप्सन्तः कौन्तेयं पर्यवारयन्।। | 14-77-8a 14-77-8b |
ते समीक्ष्य च तं कृष्णमुग्रकर्माणमाहवे। सर्वे युयुधिरे वीरा रथस्थास्तं पदातिनम्।। | 14-77-9a 14-77-9b |
ते तमाजघ्निरे वीरं निवातकवचान्तकम्। संशप्तकनिहन्तारं हन्तारं सैन्धवस्य च।। | 14-77-10a 14-77-10b |
ततो रथसहस्रेण गजानामयुतेन च। ***ष्ठकीकृत्य बीभत्सुं प्रहृष्टमनसोऽभवन्।। | 14-77-11a 14-77-11b |
** स्मरन्तो वधं वीराः सिन्धुराजस्य चाहवे। जयद्रथस्य कौरव्य समरे सव्यसाचिना।। | 14-77-12a 14-77-12b |
ततः पर्जन्यवत्सर्वे शरवृष्टीरवासृजन्। तैः कीर्णः शुशुभे पार्थो रविर्मेघान्तरे यथा।। | 14-77-13a 14-77-13b |
स शरैः समवच्छन्नश्चकाशे पाण्डवर्षभः। पञ्चरान्तरसञ्चारी शकुन्त इव भारत।। | 14-77-14a 14-77-14b |
ततो हाहाकृतं सर्वं कौन्तेय शरपीडिते। त्रैलोक्यमभवद्राजन्रविरासीद्रजोरुणः।। | 14-77-15a 14-77-15b |
ततो ववौ महाराज मारुतो रोमहर्षणः। राहुरग्रसदादित्यं पर्वणीव विशाम्पते।। | 14-77-16a 14-77-16b |
उल्काश्च जघ्निरे सूर्यं विकीर्यन्त्यः समन्ततः। वेपथुश्चाभवद्राजन्कैलासस्य महागिरेः।। | 14-77-17a 14-77-17b |
मुमुचुः श्वासमत्युष्णं दुःखशोकसमन्विताः। सप्तर्षयो जातभयास्तथा देवर्षयोपि च।। | 14-77-18a 14-77-18b |
शशं चाशु विनिर्भिद्य मण्डलं शशिनोऽपतन्। विपरीता दिशश्चापि सर्वा धूमाकुलास्तथा।। | 14-77-19a 14-77-19b |
रासभारुणसङ्काशा धनुष्मन्तः सविद्युतः। आवृत्य गगनं मेघा मुमुचुर्मांसशोणितम्।। | 14-77-20a 14-77-20b |
एवमासीत्तदा वीरे शरवर्षेण संवृते। फल्गुने भरतश्रेष्ठ तदद्भुतमिवाभवत्।। | 14-77-21a 14-77-21b |
तस्य तेनावकीर्णस्य शरजालेन सर्वतः। मोहात्पपात गाण्डीवमावापश्च करादपि।। | 14-77-22a 14-77-22b |
तस्मिन्मोहमनुप्राप्ते शरजालं महत्तदा। सैन्धवा मुमुचुस्तूर्णं गतसत्वे महारथे।। | 14-77-23a 14-77-23b |
ततो मोहं समापन्नं ज्ञात्वा पार्थं द्विवौकसः। सर्वे वित्रस्तमनसस्तस्य शान्तिकृतोऽभवन्।। | 14-77-24a 14-77-24b |
ततो देवर्षयः सर्वे तथा सप्तर्षयोपि च। ब्रह्मर्षचस्च विजयं जेपुः पार्थस्य धीमतः।। | 14-77-25a 14-77-25b |
ततः प्रदीपिते देवैः पार्थतेजसि पार्थिव। तस्थावचलवद्धीमान्सङ्ग्रामे परमास्त्रवित्।। | 14-77-26a 14-77-26b |
विचकर्ष धनुर्दिव्यं ततः कौरवनन्दनः। यन्त्रस्येवेह शब्दोऽभून्महांस्तस्य पुनः पुनः।। | 14-77-27a 14-77-27b |
ततः स शरवर्षाणि प्रत्यमित्रान्प्रति प्रभुः। ववर्ष धनुषा पार्थो वर्षाणीव पुरंदरः।। | 14-77-28a 14-77-28b |
ततस्ते सैन्धवा योधाः सर्व एव सराजकाः। नादृश्यन्त शरैः कीर्णाः शलभैरिव पादपाः।। | 14-77-29a 14-77-29b |
तस्य शब्देन वित्रेसुर्भयार्ताश्च विदुद्रुवुः। मुमुचुस्चाश्रु शोकार्ताः शुशुचुश्चापि सैन्धवाः।। | 14-77-30a 14-77-30b |
तांस्तु सर्वान्नरव्याघ्रः सैन्धवान्व्यचरद्बली। अलातचक्रवद्राजञ्शरजालैः समार्पयत्।। | 14-77-31a 14-77-31b |
तदिन्द्रजालप्रतिमं बाणजालममित्रहा। विसृज्य दिक्षु सर्वासु महेन्द्रि इव वज्रभृत्।। | 14-77-32a 14-77-32b |
मेघजालनिभं सैन्यं विदार्य शरवृष्टिभिः। विबभौ कौरवश्रेष्ठः शरदीव दिवाकरः।। | 14-77-33a 14-77-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि सप्तसप्ततितमोऽध्यायः।। 77 ।। |
14-77-19 उत्काः शशं चन्द्रस्थं विनिर्भिद्य शशिनो मण्डलं प्रति अपतन्निति अनुवृत्त्या सम्बन्धः।। 14-77-20 रासभारुणे वर्णविशेषः।। 14-77-22 आवापो हस्तावापः।।
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