महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-057
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शापाद्राक्षसत्वं गतेन सौदासेनोदङ्कभक्षणोद्यमे उदङ्केन पुनः प्रत्यागमनप्रतिज्ञापूर्वकं तम्प्रति कुण्डलयाचनम्।। 1 ।।
उदङ्केन सौदासवचसा तत्पत्नींप्रति कुण्डलयाचने तया तम्प्रति मणिकुण्डलमहिमादिकथनपूर्वकं राजाभिज्ञानानयनचोदना।। 2 ।।
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वैशम्पायन उवाच। | 14-57-1x |
स तं दृष्ट्वा तथाभूतं राजानं घोरदर्शनम्। दीर्घश्मश्रुधरं नॄणां शोणितेन समुक्षितम्।। | 14-57-1a 14-57-1b |
चकार न व्यथां विप्रो राजा त्वेनमथाब्रवीत्। प्रत्युत्थाय महातेजा भयकर्ता यमोपमः।। | 14-57-2a 14-57-2b |
दिष्ट्या त्वमसि कल्याण षष्ठे काले ममान्तिकम्। भक्ष्यं मृगयमाणस्य सम्प्राप्तो द्विजसत्तम।। | 14-57-3a 14-57-3b |
उदङ्ग उवाच। | 14-57-4x |
राजन्गुर्वर्थिनं विद्धि चरन्तं मामिहागतम्। न च गुर्वर्थमुद्युक्तं हिंस्यमाहुर्मनीषिणः।। | 14-57-4a 14-57-4b |
राजोवाच। | 14-57-5x |
षष्ठे काले ममाहारो विहितो द्विजसत्तम। न शक्यस्त्वं समुत्स्रष्टुं क्षुधितेन मयाऽद्य वै।। | 14-57-5a 14-57-5b |
उदङ्क उवाच। | 14-57-6x |
एवमस्तु महाराजि समयः क्रियतां तु मे। गुर्वर्थमभिनिर्वर्त्य पुनरेष्यामि ते वशम्।। | 14-57-6a 14-57-6b |
संश्रुतश्च मया योऽर्थो गुरवे राजसत्तम। त्वदधीनः स राजेन्द्र तं त्वां भिक्षे नरेश्वर।। | 14-57-7a 14-57-7b |
ददासि विप्रमुख्येभ्यस्त्वं हि रत्नानि नित्यदा। दाता च त्वं नरव्याघ्र पात्रभूतः क्षिताविह। पात्रं प्रतिग्रहे चापि विद्धि मां नृपसत्तम।। | 14-57-8a 14-57-8b 14-57-8c |
उपाहृत्य गुरोरर्थं त्वदायत्तमरिंदम। समयेनेह राजेन्द्र पुनरेष्यामि ते वशम्।। | 14-57-9a 14-57-9b |
सत्यं ते प्रतिजानामि नात्र मिथ्या कथञ्चन। अनृतं नोक्तपूर्वं मे स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा।। | 14-57-10a 14-57-10b |
सौदास उवाच। | 14-57-11x |
यदि मत्तस्तवायत्तो गुर्वर्थः कृत एव सः। यदि चास्ति प्रतिग्राह्यं साम्प्रतं तद्वदस्व मे।। | 14-57-11a 14-57-11b |
उदङ्क उवाच। | 14-57-12x |
प्रतिग्राह्यो मतो मे त्वं सदैव पुरुषर्षभ। सोहं त्वामनुसम्प्राप्तो भिक्षितुं मणिकुण्डले।। | 14-57-12a 14-57-12b |
सौदास उवाच। | 14-57-13x |
पत्न्यास्ते मम विप्रर्षे उचिते मणिकुण्डले। वरयार्थं त्वमन्यं वै तं ते दास्यामि सुव्रत।। | 14-57-13a 14-57-13b |
उदङ्ग उवाच। | 14-57-14x |
अलं ते व्यपदेशेन प्रमाणं यदि ते वयम्। प्रयच्छ कुण्डले मह्यं सत्यवाग्भव पार्थिव।। | 14-57-14a 14-57-14b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-57-15x |
इत्युक्तस्त्वब्रवीद्राजा तमुदङ्कं पुनर्वचः। गच्छ मद्वचनाद्देवीं ब्रूहि देहीति सत्तम।। | 14-57-15a 14-57-15b |
सैवमुक्ता त्वया नूनं मद्वाक्येन शुचिव्रता। प्रदास्यति द्विजश्रेष्ठ कुण्डले ते न संशयः।। | 14-57-16a 14-57-16b |
उदङ्क उवाच। | 14-57-17x |
क्व पत्नी भवतः शक्या मया द्रष्टुं नरेश्वर। स्वयं वाऽपि भवान्पत्नीं किमर्थं नोपसर्पति।। | 14-57-17a 14-57-17b |
सौदास उवाच। | 14-57-18x |
तां द्रक्ष्यति भवानद्य कास्मिंश्चिद्वननिर्झरे। षष्ठे काले न हि मया सा शक्या द्रष्टुमद्य वै।। | 14-57-18a 14-57-18b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-57-19x |
उदङ्कस्तु तथोक्तः स जगाम भरतर्षभ। मदयन्तीं च दृष्ट्वा स ज्ञापयत्स्वप्रयोजनम्।। | 14-57-19a 14-57-19b |
सौदासवचनं श्रुत्वा ततः सा पृथुलोचना। प्रत्युवाच महावुद्धिमुदङ्कं जनमेजय।। | 14-57-20a 14-57-20b |
एवमेतन्महाब्रह्मन्नानृतं वदसेऽनघ। अभिज्ञानं तु किञ्चित्त्वं समानयितुमर्हसि।। | 14-57-21a 14-57-21b |
इमे हि दिव्ये मणिकुण्डले मे देवाश्च यक्षाश्च महर्षयश्च। तैस्तैरुपायैरपहर्तुकामा- श्छिद्रेषु नित्यं परितर्कयन्ति।। | 14-57-22a 14-57-22b 14-57-22c 14-57-22d |
निक्षिप्तमेतद्भुवि पन्नगास्तु रत्नं समासाद्य परामृशेयुः। यक्षास्तथोच्छिष्टधृतं सुराश्च निद्रावशाद्वा परिधर्षयेयुः।। | 14-57-23a 14-57-23b 14-57-23c 14-57-23d |
छिद्रेष्वेतेष्विमे नित्यं ह्रियते द्विजसत्तम। देवराक्षसनागानामप्रमत्तेनि धार्यते।। | 14-57-24a 14-57-24b |
एते दिवापि भासेते रात्रौ च द्विजसत्तम। नक्तं नक्षत्रताराणां प्रभामाक्षिप्य वर्ततः।। | 14-57-25a 14-57-25b |
एते ह्यामुच्य भगन्क्षुत्पिपासाभयं कुतः। विषाग्निश्वापदेभ्यश्च भयं जातु न विद्यते।। | 14-57-26a 14-57-26b |
ह्रस्वेन चैते आमुक्ते भवतो ह्रस्वके तदा। अनुरूपेण चामुक्ते जायेते तत्प्रमाणके।। | 14-57-27a 14-57-27b |
एवंविधे ममैते वै कुण्डले परमार्चिते। त्रिषु लोकेषु विज्ञाते तदभिज्ञानमानय।। | 14-57-28a 14-57-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि सप्तपञ्चाशोऽध्यायः।। 57 ।। |
14-57-24 छिद्रेष्वेतेष्विमे इति पूर्वान्वयि। नागानां नागैः ह्रियेत इति सम्बन्धः।।
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