महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-034
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ब्राह्मणेन ब्राह्मणींप्रति स्वमाहात्म्यप्रकाशनम्।। 1 ।।
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ब्राह्मण उवाच। | 14-34-1x |
नाहं तथा भूरु चरामि लोके यथा त्वं मां तर्जयसे स्वबुद्ध्या। विप्रोस्मिं मुक्तोस्मि वनेचरोस्मि गृहस्थधर्मा व्रतवांस्तथाऽस्मि।। | 14-34-1a 14-34-1b 14-34-1c 14-34-1d |
नाहमस्मि यता मां त्वं पश्यसे च शुभाशुभे। मया व्याप्तमिदं सर्वं यत्किञ्चिज्जगतीगतम्।। | 14-34-2a 14-34-2b |
ये केचिज्जन्तवो लोके जङ्गमाः स्थावराश्च ह। तेषां मामन्तकं विद्धि दारुणामिव पावकम्।। | 14-34-3a 14-34-3b |
राज्ये पृथिव्यां सर्वस्यामथवापि त्रिविष्टपे। तथा बुद्धिरियं वेत्ति बुद्धिरेव धनं मम।। | 14-34-4a 14-34-4b |
एकः पन्था ब्राह्मणानां येन गच्छन्ति तद्विदः। गृहेषु वनवासेषु गुरुवासेषु भिक्षुषु।। | 14-34-5a 14-34-5b |
लिङ्गैर्बहुभिरव्यग्रैरेका बुद्धिरुपास्यते। नानालिङ्गाश्रमस्थानां येषां बुद्धिः शमात्मिका।। | 14-34-6a 14-34-6b |
ते भावमेकमायान्ति सरितः सागरं यथा। बुद्ध्याऽयं गम्यते मार्गः शरीरेणि न गम्यते। आद्यन्तवन्ति कर्माणि शरीरं कर्मबन्धनम्।। | 14-34-7a 14-34-7b 14-34-7c |
तस्मान्मे सुभगे नास्ति परलोककृतं भयम्। तद्भावभावनिरता ममैवात्मानमेष्यसि।। | 14-34-8a 14-34-8b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः।। 34 ।। |
14-34-3 तेषामन्तर्गतं विद्धि इति क.ध.पाठः।। 14-34-7 विद्ध्यान्तवन्ति कर्माणीति क.थ.पाठः।। 14-34-8 तस्मात्ते सुभगे इति झ.पाठः। मद्भावभावनिरता मामेवैष्यस्यथात्मनेति क.पाठः।।
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