महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-045
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ब्रह्मणा महर्षीन्प्रति शरीरस्य कालचक्रवत्सर्वनाशकत्वोक्तिपूर्वकं गृहस्थध्रमानुष्ठानस्य श्रेयःसाधनत्वोक्तिः।। 1 ।।
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ब्रह्मोवाच। | 14-45-1x |
बुद्धिसारं मनस्तम्भमिन्द्रियग्रामबन्धनम्। महाभूतारविष्कम्भं निमेषपरिवेष्टनम्।। | 14-45-1a 14-45-1b |
जराशोकसमाविष्टं व्याधिव्यसनसञ्चरम्। देशकालविचारीदं श्रमव्यायामनिःस्वनम्।। | 14-45-2a 14-45-2b |
अहोरात्रपरिक्षेपं शीतोष्णपरिमण्डलम्। सुखदुःखान्तसंश्लेषं क्षुत्पिपासावकीलकम्।। | 14-45-3a 14-45-3b |
छायातपविलेखं च निमेषोन्मेषविह्वलम्। शोकमोहजराकीर्णं वर्तमानमचेतनम्।। | 14-45-4a 14-45-4b |
मासार्धमासगुणितं विषमं लोकसञ्चरम्। तमोनिचयपङ्कं च रजोवेगप्रवर्तकम्।। | 14-45-5a 14-45-5b |
सत्त्वालङ्कारदीप्तं च गुणसंघातमण्डलम्। विरतिग्रहणाभीकं शोकसंहारवर्तनम्।। | 14-45-6a 14-45-6b |
क्रियाकारणसंयुक्तं रागविस्तारमायतम्। लोभेप्सापरिविक्षोभं विविक्तज्ञानसम्भवम्।। | 14-45-14a 14-45-14b |
भयमोहपरीवारं भूतसंमोहकारकम्। आनन्दप्रीतिचारं च कामक्रोधपरिग्रहम्।। | 14-45-8a 14-45-8b |
महदादिविशेषान्तमव्यक्तं प्रभवाप्ययम्। मनोजवनमश्रान्तं कालचक्रं प्रवर्तते।। | 14-45-9a 14-45-9b |
एतद्द्वन्द्वसमायुक्तं कालचक्रमचेतनम्। विसृजेत्संक्षिपेच्चापि बोधयेत्स्वापयेज्जगम्।। | 14-45-10a 14-45-10b |
कालचक्रप्रवृत्तिं च निवृत्तिं चैव तत्त्वतः। यस्तु वेद नरो नित्यं न स भूतेषु मुह्यति।। | 14-45-11a 14-45-11b |
विमुक्तः सर्वसङ्क्लेशैः सर्वद्वन्द्वातिगो मुनिः। विमुक्तः सर्वपापेभ्यः प्राप्नोति परमां गतिम्।। | 14-45-12a 14-45-12b |
गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः। चत्वार आश्रमाः प्रोक्ताः सर्वे गार्हस्थ्यमूलकाः।। | 14-45-13a 14-45-13b |
यः कश्चिदिह लोकेऽस्मिन्नाश्रमः परिकीर्तितः। तस्यान्तगमनं श्रेयः कीर्तिरेषा सनातनी।। | 14-45-14a 14-45-14b |
संस्कारैः संस्कृतः पूर्वं यथावच्चरितव्रतः। जातौ गुणविशिष्टायां समावर्तेत वेदवित्।। | 14-45-15a 14-45-15b |
स्वदारनिरतो नित्यं शिष्टाचारो जितेन्द्रियः। पञ्चभिश्च महायज्ञैः श्रद्दधानो यजेदिह।। | 14-45-16a 14-45-16b |
देवतातिथिशिष्टाशी निरतो वेदकर्मसु। इज्याप्रदानयुक्तश्च यथाशक्ति यथाविधि।। | 14-45-17a 14-45-17b |
न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलो मुनिः। न च वागङ्गचपल इति शिष्टस्य गोचरः।। | 14-45-18a 14-45-18b |
नित्यं यज्ञोपवीती स्याच्छुक्लवासाः शुचिव्रतः। नियतो यमदानाभ्यां सदा शिष्टैश्च संविशेत्।। | 14-45-19a 14-45-19b |
जितशिश्नोदरो मैत्रः शिष्टाचारसमन्वितः। वैणवीं धारयेद्यष्टिं सोदकं च कमण्डलुम्।। | 14-45-20a 14-45-20b |
`त्रीणि धारयते नित्यं कमण्डलुमतन्द्रितः। एकमाचमनार्थाय एकं वै पादधावनम्। एकं शौचविधानार्थमित्येतत्त्रितयं तथा।।' | 14-45-21a 14-45-21b 14-45-21c |
अधीत्याध्यापनं कुर्यात्तथा यजनयाजने। दानं प्रतिग्रहं वाऽपि षङ्गुणां वृत्तिमाचरेत्।। | 14-45-22a 14-45-22b |
त्रीणि कर्माणि जानीत ब्राह्मणानां तु जीविकाः। याजनाध्यापने चोभे शुद्धाच्चापि प्रतिग्रहः।। | 14-45-23a 14-45-23b |
अथ शेषाणि चान्यानि त्रीणि कर्माणि यानि तु। दानमध्ययनं यज्ञो धर्मयुक्तानि तानि तु।। | 14-45-24a 14-45-24b |
तेष्वप्रमादं कुर्वीत त्रिषु कर्मसु धर्मवित्। दान्तो मैत्रः क्षमायुक्तः सर्वभूतसमो मुनिः।। | 14-45-25a 14-45-25b |
सर्वमेतद्यथाशक्ति विप्रो निर्वर्तयञ्शुचिः। एवं युक्तो जयेत्स्वर्गं गृहस्थः संशितव्रतः।। | 14-45-26a 14-45-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।। 45 ।। |
14-45-1 इन्द्रियग्रामवर्धनमिति क.ट.थ.पाठः।। 14-45-8 अनन्तप्रतिसारं चेति ट.पाठः।। 14-45-10 मोहयेत्सामरं जगदिति क.ट.थ.पाठः।।
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