महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-064
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युधिष्ठिरेण हिमवद्गिरिमेत्य सेनानिवेशनम्।। 1 ।। तत्र ब्राह्मणचोदनया तैः सहोपवासादिव्रताचरणपूर्वकं निशायापनम्।। 2 ।।
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वैशम्पायन उवाच। | 14-64-1x |
ततस्ते प्रययुर्हृष्टाः प्रहृष्टनरवाहनाः। रथघोषेण महता पूरयन्तो वसुन्धराम्।। | 14-64-1a 14-64-1b |
संस्तूयमानाः स्तुतिभिः सूतमागधबन्दिभिः। स्वेन सैन्येन संवीता यथाऽऽदित्याः स्वरश्मिभिः।। | 14-64-2a 14-64-2b |
पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि। बभौ युधिष्टिरस्तत्र पौर्णमास्यामिवोडुराट्।। | 14-64-3a 14-64-3b |
जयाशिषः प्रहृष्टानां नराणां पथि पाण्डवः। प्रत्यगृह्णाद्यथान्यायं यथावत्पुरुषर्षभः।। | 14-64-4a 14-64-4b |
तथैव सैनिका राजन्राजानमनुयान्ति ये। तेषां हलहलाशब्दो दिवं स्तब्ध्वा व्यतिष्ठत।। | 14-64-5a 14-64-5b |
सरांसि सरितश्चैव वनान्युपवनानि च। अत्यक्रामन्महाराजो गिरिं चाप्यन्वपद्यत।। | 14-64-6a 14-64-6b |
स्मिन्देशे च राजेन्द्र यत्र तद्द्रव्यमुत्तमम्। चक्रे निवेशनं राजा पाण्डवः सहसैनिकैः। शिवे देशे समे चैव तदा भरतसत्तम।। | 14-64-7a 14-64-7b 14-64-7c |
अग्रतो ब्राह्मणान्कृत्वा तपोविद्यादमान्वितान्। पुरोहितं च कौरव्य वेदवेदाङ्गपारगम्।। | 14-64-8a 14-64-8b |
आग्निवेश्यं च राजानो ब्राह्मणाः सपुरोधसः। कृत्वा शान्तिं यथान्यायं सर्वशः पर्यवारयन्।। | 14-64-9a 14-64-9c |
कृत्वा तु मध्ये राजानममात्यांश्च यथाविधि। षट्पदं नवसङ्ख्यानं निवेशं चक्रिरे जनाः।। | 14-64-10a 14-64-10b |
मत्तानां वारणेन्द्राणां निवेशं च यथाविधि। कारयित्वा स राजेन्द्रो ब्राह्मणानिदमब्रवीत्।। | 14-64-11a 14-64-11b |
अस्मिन्कार्ये द्विजश्रेष्ठा नक्षत्रे दिवसे शुभे। यथा भवन्तो मन्यन्ते कर्तुमर्हन्ति तत्तथा।। | 14-64-12a 14-64-12b |
न नः कालात्ययो वै स्यादिहैव परिलम्बताम्। इति निश्चित्य विप्रेन्द्राः क्रियतां यदनन्तरम्।। | 14-64-13a 14-64-13b |
श्रुत्वैतद्व********* ब्राह्मणाः सपुरोधसः। इदमूचुर्वचो हृष्टा धर्मराजप्रियेप्सवः।। | 14-64-14a 14-64-14b |
अद्यैव नक्षत्रिमहश्च पुण्यं यतामहे श्रेष्ठतमक्रियासु। तपोभिरद्येह वसाम राज- न्नुपोष्यतां चापि भवद्भिरद्य।। | 14-64-15a 14-64-15b 14-64-15c 14-64-15d |
श्रुत्वा तु तेषां द्विजसत्तमानां कृतोपवासा रजनीं नरेन्द्राः। | 14-64-16a 14-64-16b |
ऊषुः प्रतीताः कुशसंस्तरेषु यथाऽध्वरे प्रज्वलिता हुताशाः।। | 14-64-17a 14-64-17b |
ततो निशा सा व्यगमन्महात्मनां संशृण्वतां विप्रसमीरिता गिरः। ततः प्रभाते विमले द्विजर्षभा वचोऽब्रुवन्धर्मसुतं नराधिपम्।। | 14-64-18a 14-64-18b 14-64-18c 14-64-18d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि चतुःषष्टितमोऽध्यायः।। 64 ।। |
14-64-25 ध्रुवे नक्षत्रे रोहिण्यामुत्तरात्रये च। अहनि वारे ध्रुवे रविवारे।क उत्तरार्केऽमृतसिद्धयोगे इत्यर्थः।। 14-64-31 मूले वंशस्याद्ये। कुन्तीधृतराष्ट्रसमीपे इत्यर्थः।। 14-64-63 त्रिषष्टितमोऽध्यायः।।
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