महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-078

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चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-078
वेदव्यासः
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अर्जुनसमागमनश्रवणमात्रेण जयद्रथसुते मृते दुश्शलया तत्सुतमानीयार्जुनंप्रत्यभियानम्।। 1 ।। ततोऽर्जुनेन दुश्शलाप्रार्थनया तस्यां बहुमानेन च युद्धादुपरमः।। 2 ।।

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वैशम्पायन उवाच। 14-78-1x
ततो गाण्डीवभृच्छूरो युद्धाय समुपस्थितः।
विबभौ युधि दुर्धर्षो हिमवानचलो यथा।।
14-78-1a
14-78-1b
ततस्ते सैन्धवा योधाः पुनरेव व्यवस्थिताः।
व्यमुञ्चन्त सुसंरब्धाः शरवर्षाणि भारत।।
14-78-2a
14-78-2b
तान्प्रहस्य महाबाहुः पुनरेव व्यवस्थितान्।
ततः प्रोवाच कौन्तेयो मुमूर्षञ्श्लक्ष्णया गिरा।।
14-78-3a
14-78-3b
युध्यध्वं परया शक्त्या यतध्वं विजये मम।
कुरुध्वं सर्वकार्याणि महद्वो भयमागतम्।।
14-78-4a
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एष योत्स्यामि सर्वांस्तु निवार्य शरवागुराम्।
तिष्ठध्वं युद्धमनसो दर्पं शमयितास्मि वः।।
14-78-5a
14-78-5b
एतावदुक्त्वा कौरव्यो रोषाद्गाण्डीवभृत्तदा।
ततोऽथ वचनं स्मृत्वा भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भारत।।
14-78-6a
14-78-6b
न हन्तव्या रणे तात क्षत्रिया विजिगीषवः।
जेतव्याश्चेति यत्प्रोक्तं धर्मराज्ञा महात्मना।
चिन्तयामास स तदा फल्गुनः पुरुषर्षभः।।
14-78-7a
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14-78-7c
इत्युक्तोऽहं नरेन्द्रेण न हन्तव्या नृपा इति।
कथितं न मृषेदं स्याद्धर्मराजवचः शुभम्।।
14-78-8a
14-78-8b
न हन्येरंश्च राजानो राज्ञश्चाज्ञा कृता भवेत्।
इति सञ्चिन्त्य स तदा फल्गुनः पुरुषर्षभः।।
14-78-9a
14-78-9b
प्रोवाच वाक्यं धर्मज्ञः सैन्धवान्युद्धदुर्मदान्।
बालांस्त्रियो वा युष्माकं न हनिष्ये व्यवस्थितान्।।
14-78-10a
14-78-10b
यश्च वक्ष्यति सङ्ग्रामे तवास्मीति पराजितः।
एतच्छ्रुत्वा वचो मह्यं कुरुध्वं हितमात्मनः।।
14-78-11a
14-78-11b
ततोऽन्यथा कृच्छ्रगता भविष्यथ मयाऽर्दिताः।
एवमुक्त्वा तु तान्वीरान्युयुधे कुरुपुङ्गवः।।
14-78-12a
14-78-12b
अत्वरावानसम्भ्रान्तः संक्रुद्धैर्विजिगीषुभिः।
शतं शतसहस्राणि शराणां नतपर्वणाम्।।
14-78-13a
14-78-13b
मुमुचुः सैन्धवा राजंस्तदा गाण्डीवधन्वनि।
शरानापततः क्रूरानाशीविषविषोपमान्।
चिच्छेद निशितैर्बाणैरन्तरा स धनंजयः।।
14-78-14a
14-78-14b
14-78-14c
छित्त्वा तु तानाशु चैव कङ्कपत्राञ्शिलाशितान्।
एकैकमेषां समरे बिभेद निशितैः शरैः।।
14-78-15a
14-78-15b
ततः प्रास्रांश्च शक्तीस्च पुनरेव धनंजये।
जयद्रथं हतं स्मृत्वा चिक्षिपुः सैन्धवा नृपाः।।
14-78-16a
14-78-16b
तेषां किरीटी सङ्कल्पं मोघं चक्रे महाबलः।
सर्वांस्तानन्तरा च्छित्त्वा तदा चुक्रोश पाण्डवः।
तथैवापततां तेषां योधानां जयगृद्धिनाम्।
14-78-17a
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14-78-17d
तथैवापततां तेषां योधानां यजगृद्धिनाम्।
शिरांसि पातयामास भल्लैः सन्नतपर्वभिः।।
14-78-18a
14-78-18b
तेषां प्रद्रवतां चापि पुनरेवाभिधावताम्।
निवर्ततां च शब्दोऽभूत्पूर्णस्येव महोदधेः।।
14-78-19a
14-78-19b
ते वध्यमानास्तु तदा पार्थेनामिततेजसा।
यथाप्राणं यथोत्साहं योधयामासुरर्जुनम्।।
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14-78-20b
ततस्ते फल्गुनेनाजौ शरैः सन्नतपर्वभिः।
कृता विसंज्ञा भूयिष्ठा क्लान्तवाहनसैनिकाः।।
14-78-21a
14-78-21b
तांस्तु सर्वान्परिग्लानान्विदित्वा धृतराष्ट्रजा।
दुःशला बालमादाय नप्तारं प्रययौ तदा।।
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सुरथस्य सुतं वीरं रथेनाथागमत्तदा।
शान्त्यर्थं सर्वयोधानामभ्यगच्छत पाण्डवम्।।
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सा धनंजयमासाद्य रुरोदार्तस्वरं तदा।
धनंजयोपि तां दृष्ट्वा धनुर्विससृजे प्रभुः।।
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समुत्सृज्य धनुः पार्थो विधिवद्भगिनी तदा।
प्राह किं करवाणीति सा च तं प्रत्युवाच ह।।
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एष ते भरतश्रेष्ठ स्वस्रीयस्यात्मजः शिशुः।
अभिवादयते पार्थ तं पश्य पुरुषर्षभ।।
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इत्युक्तस्तस्य पितरं स पप्रच्छार्जुनस्तथा।
क्वासाविति ततो राजन्दुःशला वाक्यमब्रवीत्।।
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पितृशोकाभिसंतप्तो विषादार्तोऽस्य वै पिता।
पञ्चत्वमगमद्वीरो यथा तन्मे निशामय।।
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स पूर्वं पितरं श्रुत्वा हतं युद्धे त्वयाऽनघ।
त्वामागतं च संश्रुत्य युद्धाय हयसारिणम्।
पितुश्च मृत्युदुःखार्तोऽजहात्प्राणान्धनंजय।।
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प्राप्तो बीभत्सुरित्येव नाम श्रुत्वैव तेऽनघ।
विषादार्तः पपातोर्व्यां ममार च ममात्मजः।।
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तं दृष्ट्वा पतितं तत्र ततस्तस्यात्मजं प्रभो।
गृहीत्वा समनुप्राप्ता त्वामद्य शरणैपिणी।।
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इत्युक्त्वाऽऽर्तस्वरं सा तु मुमोच धृतराष्ट्रजा।
दीना दीनं स्थितं पार्थमब्रवीच्चाप्यधोमुखम्।।
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स्वसारं समवेक्षस्व स्वस्रीयात्मजमेव च।
कर्तुमर्हसि धर्मज्ञ दयां कुरुकुलोद्वह।
विस्मृत्य कुरुराजानं तं च मन्दं जयद्रथम्।।
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अभिमन्योर्यथा जातः परिक्षित्परवीरहा।
तथाऽयं सुरथाज्जातो मम पौत्रो महाभुज।।
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तमादाय नरव्याघ्र सम्प्रप्तास्मि तवान्तिकम्।
शमार्थं सर्वयोधानां शृणु चेदं वचो मम।।
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आगतोऽयं महाबाहो तस्य मन्दस्य पुत्रकः।
प्रसादमस्य बालस्य तस्मात्त्वं कर्तुमर्हसि।।
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एष प्रसाद्य शिरसा प्रशमार्थमरिंदम।
याचते त्वां महाबाहो शमं गच्छ धनंजय।।
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बालस्य हतबन्धोश्च पार्थ किञ्चिदजानतः।
प्रसादं कुरु धर्मज्ञ मा मन्युवशमन्वगाः।।
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तमनार्थं नृशंसं च विस्मृत्यास्य पितामहम्।
आगस्कारिणमत्यर्तं प्रसादं कर्तुमर्हसि।।
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एवं ब्रुवत्यां करुणं दुःशलायां धनंजयः।
संस्मृत्य देवीं गान्धारीं धृतराष्ट्रं च पार्थिवम्।
उवाच दुःखशोकार्तः क्षत्रधर्मं व्यगर्हयत्।।
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`धिक्तं दुर्योधनं क्षुद्रं राज्यलुब्धं च मानिनम्।'
यत्कृते बान्धवाः सर्वे मया नीता यमक्षयम्।।
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इत्युक्त्वा बहु सान्त्वादि प्रसादमकरोज्जयः।
परिष्वज्य च तां प्रीतो विससर्ज गृहान्प्रति।।
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दुःशला चापि तान्योधान्निवार्य महतो रणात्।
सम्पूज्य पार्थं प्रययौ गृहानेव शुभानना।।
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एवं निर्जित्य तान्वीरान्सैन्धवान्स धनंजयः।
अन्वधावत धावन्तं हयं कामविचारिणम्।।
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ततो मृगमिवाकाशे यथा देवः पिनाकधृक्।
ससार तं तथा वीरो विधिवद्यज्ञियं हयम्।।
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स च वाजी यथेष्टेन तांस्तान्देशान्यथाक्रमम्।
विचचार यथाकामं कर्म पार्थस्य वर्धयन्।।
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क्रमेण स हयस्त्वेवं विचरन्पुरुषर्षभ।
मणलूरपतेर्देशमुपायात्सहपाण्डवः।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि अष्टसप्ततितमोऽध्यायः।। 78 ।।

14-78-47 भणिपूरपतेरिति झ.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-077 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-079