महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-069

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चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-069
वेदव्यासः
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कृष्णेन सशपथं संस्पर्शनेन परिक्षितः समुज्जीवनम्।। 1 ।।

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वैशम्पायन उवाच। 14-69-1x
सैवं विलप्य करुणं सोन्मादेव तपस्विनी।
उत्तरा न्यपतद्भूमौ कृपणा पुत्रगृद्धिनी।।
14-69-1a
14-69-1b
तां तु दृष्ट्वा निपतितां हतपुत्रपरिच्छदाम्।
चुक्रोश कुन्ती दुःखार्ता सर्वाश्च भरतास्त्रियः।।
14-69-2a
14-69-2b
मुहूर्तमिव राजेन्द्र पाण्डवानां निवेशनम्।
अप्रेक्षणीयमभवदार्तस्वनविनादितम्।।
14-69-3a
14-69-3b
सा मुहूर्तं च राजेन्द्र पुत्रशोकाभिपीडिता।
कश्मलाभिहता वीर वैराटी त्वभवत्तदा।।
14-69-4a
14-69-4b
प्रतिलभ्य तु सा संज्ञामुत्तरा भरतर्षभ।
अङ्कमारोप्य तं पुत्रमिदं वचनमब्रवीत्।।
14-69-5a
14-69-5b
धर्मज्ञस्य सुतः संस्त्वं न धर्ममवबुध्यसे।
यस्त्वं वृष्णिप्रवीरस्य कुरुषे नाभिवादनम्।।
14-69-6a
14-69-6b
पुत्र गत्वा मम वचो ब्रूयास्त्वं पितरं त्विदम्।
दुर्मरं प्राणिनां वीर काले प्राप्ते कथञ्चन।।
14-69-7a
14-69-7b
याऽहं त्वया विनाऽद्येह पत्या पुत्रेण चैव ह।
मरणं नाभिगच्छामि हतस्वस्तिरकिञ्चना।।
14-69-8a
14-69-8b
अथवा धर्मराज्ञाऽहमनुज्ञाता महाभुजः।
भक्षयिष्ये विषं घोरं प्रवेक्ष्ये वा हुताशनम्।।
14-69-9a
14-69-9b
अथवा दुर्भरं तात यदिदं मे सहस्रधा।
पतिपुत्रविहीनाया हृदयं न विदीर्यते।।
14-69-10a
14-69-10b
उत्तिष्ठ पुत्र पस्येमां दुःखितां प्रपितामहीम्।
आर्तामुपप्लुतां दीनां निमग्नां शोकसागरे।।
14-69-11a
14-69-11b
आर्यां च पश्य पाञ्चालीं सात्वतीं च तपस्विनीम्।
मां च पश्य सुदुःखार्तां व्याधविद्धां मृगीमिव।।
14-69-12a
14-69-12b
उत्तिष्ठ पश्य वदनं लोकनाथस्य धीमतः।
पुण्डरीकपलाशाक्षं पुरेव चपलेक्षणः।।
14-69-13a
14-69-13b
एवं विप्रलपन्तीं तु दृष्ट्वा निपतितां पुनः।
उत्तरां तां स्त्रियः सर्वाः पुनरुत्थापयन्त्युत।।
14-69-14a
14-69-14b
उत्थाय च पुनर्धैर्यात्तदा मत्स्यपतेः सुता।
प्राञ्जलिः पुण्डरीकाक्षं भूमावेवाभ्यवादयत्।।
14-69-15a
14-69-15b
श्रुत्वा स तस्या विपुलं विलापं पुरुषर्षभः।
उपस्पृश्य ततः कृष्णो ब्रह्मास्त्रं प्रत्यसंहरत्।।
14-69-16a
14-69-16b
प्रतिजज्ञे च दाशार्हस्तस्य जीवितमच्युतः।
अब्रवीच्च विशुद्धात्मा सर्वं विश्रावयज्जगत्।।
14-69-17a
14-69-17b
न ब्रवीम्युत्तरे मिथ्या सत्यमेतद्भविष्यति।
एष संजीवयाम्येनं पश्यतां सर्वदेहिनाम्।।
14-69-18a
14-69-18b
नोक्तपूर्वं मया मिथ्या स्वैरेष्वपि कदाचन।
न च युद्धात्परावृत्तस्तथा संजीवतामयम्।।
14-69-19a
14-69-19b
यथा मे दयितो धर्मो ब्राह्मणश्च विशेषतः।
अभिमन्योः सुतो जातो मृतो जीवत्वयं तथा।।
14-69-20a
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यथाऽहं नाभिजानामि विजये तु कदाचन।
विरोधं तेन सत्येन मृतो जीवत्वयं शिशुः।।
14-69-21a
14-69-21b
यथा सत्यं च धर्मश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितौ।
तथा मृतः शिशुरयं जीवतादभिमन्युजः।।
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यथा कंसश्च केशी च धर्मेण निहतौ मया।
तेन सत्येन बालोऽयं पुनः संजीवतामिह।।
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14-69-23b
इत्युक्त्वा वासुदेवोऽथ तं बालं भरतर्षभ।
`पादेन कमलाभेन ब्रह्मरुद्रार्चितेन च।
पस्पर्श पुण्डरीकाक्ष आपादतलमस्तकम्।।
14-69-24a
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स्पृष्टमात्रस्तु कृष्णेन स बालो भरतर्षभ।
शनैःशनैर्महाराज प्रापद्यत स चेतनाम्।।'
14-69-25a
14-69-25b
शनैःशनैर्महाराज प्रास्पन्दत सचेतनः।। 14-69-26a
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि<BRa> अनुगीतापर्वणि एकोनसप्ततितमोऽध्यायः।। 69 ।।

14-69-6 धर्मजस्य सुत इति क.थ.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-068 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-070