महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-036
← आश्वमेधिकपर्व-035 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-036 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-037 → |
कृष्णेनार्जुनंप्रति परब्रह्मस्वरूपतत्प्राप्तिसाधनादिप्रतिपादकगुरुशिष्यसंवादानुवादः।। 1 ।।
|
अर्जुन उवाच। | 14-36-1x |
ब्रह्म यत्परमं ज्ञेयं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि। भतो हि प्रसादेन सूक्ष्मे मे रमते मतिः।। | 14-36-1a 14-36-1b |
वासुदेव उवाच। | 14-36-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। संवादं मोक्षसंयुक्तं शिष्यस्य गुरुणा सह।। | 14-36-2a 14-36-2b |
कश्चिद्ब्राह्मणमासीनमाचार्यं संशितव्रतम्। शिष्यः पप्रच्छ मेधावी किंस्विच्छ्रेयः परंतप।। | 14-36-3a 14-36-3b |
भगवन्तं प्रपन्नोऽहं निःश्रेयसपराणः। याचे त्वां शिरसा विप्र यद्ब्रूयां ब्रूहि तन्मम।। | 14-36-4a 14-36-4b |
तमेवंवादिनं पार्थ शिष्यं गुरुरुवाच ह। कथयस्व प्रवक्ष्यामि यत्र ते संशयो द्विज।। | 14-36-5a 14-36-5b |
इत्युक्तः स कुरुश्रेष्ठ गुरुणा गुरुवत्सलः। प्राञ्जलिः परिपप्रच्छ यत्तच्छृणु महामते।। | 14-36-6a 14-36-6b |
शिष्य उवाच। | 14-36-7x |
कुतश्चाहं कुतश्च त्वं तत्सत्यं ब्रूहि यत्परम्। कुतो जातानि भूतानि स्थावराणि चराणि च।। | 14-36-7a 14-36-7b |
केन जीवन्ति भूतानि तेषामायुश्च किं परम्। किं सत्यं किं तपो विप्र के गुणाः सद्भिरीरिताः।। | 14-36-8a 14-36-8b |
के पन्थानः शिवाश्च स्युः किं सुखं कि च दुष्कृतम्। एतान्मे भगवन्प्रश्नान्याथातथ्येन सुव्रत।। | 14-36-9a 14-36-9b |
वक्तुमर्हसि विप्रर्षे यथावदिह तत्त्वतः। त्वदन्यः कश्च न प्रश्नानेतान्वक्तुमिहार्हति।। | 14-36-10a 14-36-10b |
ब्रूहि धर्मविदां श्रेष्ठ परं कौतूहलं मम। मोक्षधर्मार्थकुशलो भवाँल्लोकषु गीयते।। | 14-36-11a 14-36-11b |
सर्वसंशयसंच्छेत्ता त्वदन्यो न च विद्यते। संसारभीरवश्चैव मोक्षकामास्तथा वयम्।। | 14-36-12a 14-36-12b |
वासुदेव उवाच। | 14-36-13x |
तस्मै सम्प्रतिपन्नाय यथावत्परिपृच्छते। शिष्याय गुणयुक्ताय शान्ताय गुरुवर्तिने।। | 14-36-13a 14-36-13b |
छायाभूताय दान्ताय यतते ब्रह्माचारिणे। तान्प्रश्नानब्रवीत्पार्थ मेधावी स धृतव्रतः। गुरुः कुरुकुलश्रेष्ठ सम्यक्सर्वानरिंदम।। | 14-36-14a 14-36-14b 14-36-14c |
गुरुरुवाच। | 14-36-15x |
ब्रह्मणोक्तमिदं धर्ममृषिप्रवरसेवितम्। वेदविद्यासमावाप्तं तत्त्वभूतार्थभावनम्।। | 14-36-15a 14-36-15b |
ज्ञानं त्वेव परं विद्यः संन्यासं तप उत्तमम्। यस्तु वेद निराबाधं ज्ञानतत्त्वं विनिश्चयात्। सर्वबूतस्थमात्मानं स सर्वगतिरिष्यते।। | 14-36-16a 14-36-16b 14-36-16c |
ये विद्वान्सहसंवासं विवासं चैव पश्यति। तथैवैकत्वनानात्वे स दुःखात्परिमुच्यते।। | 14-36-17a 14-36-17b |
यो न कामयते किञ्चिन्न किञ्चिदभिमन्यते। इह लोकस्थ एवैष ब्रह्मभूयाय कल्पते।। | 14-36-18a 14-36-18b |
प्रधानगुणतत्त्वज्ञः सर्वभूतविधानवित्। निर्ममो निरहङ्कारो मुच्यते नात्र संशयः।। | 14-36-19a 14-36-19b |
अव्यक्तबीजप्रभवो बुद्धिस्कन्धमयो महान्। महाहङ्कारविटप इन्द्रियाङ्कुरकोटरः।। | 14-36-20a 14-36-20b |
महाभूतविशेषश्च विशेषप्रतिशाखवान्। सदापर्णः सदापुष्पः शुभाशुभफलोदयः।। | 14-36-21a 14-36-21b |
आजीवः सर्वभूतानां ब्रह्मबीजः सनातनः। एतज्ज्ञात्वा च तत्त्वानि ज्ञानेन परमासिना। छित्त्वा चामरतां प्राप्य जहाति मृत्युजन्मनी।। | 14-36-22a 14-36-22b 14-36-22c |
भूतभव्यभविष्यादिधर्मकामार्थनिश्चयम्। सिद्धसङ्घपरिज्ञातं पुराकल्पं सनातनम्।। | 14-36-23a 14-36-23b |
प्रवक्ष्येऽहं महाप्राज्ञ पदमुत्तममद्य ते। बुद्ध्वा यदिहं संसिद्धा भवन्तीह मनीषिणः।। | 14-36-24a 14-36-24b |
उपगम्यर्षयः पूर्वं जिज्ञासन्तः परस्परम्। प्रजापतिभरद्वाजौ गौतमो भार्गवस्तथा।। | 14-36-25a 14-36-25b |
वसिष्ठः कश्यपश्चैव विश्वामित्रोऽत्रिरेव च। मार्गान्सर्वान्परिक्रम्य परिश्रान्तः स्वकर्मभिः।। | 14-36-26a 14-36-26b |
ऋषिमाङ्गिरसं वृद्धं पुरस्कृत्य तु ते द्विजाः। ददृशुर्ब्रह्मभवने ब्रह्माणं वीतकल्मषम्।। | 14-36-27a 14-36-27b |
तं प्रणम्य महात्मानं सुखासीनं महर्षयः। पप्रच्छुर्विनयोपेता नैःश्रेयसमिदं परम्।। | 14-36-28a 14-36-28b |
कथं कर्म कृतं साधु कथं मुच्येत किल्बिषात्। के नो मार्गाः शिवाश्च स्युः किं सत्यं किं च दुष्कृतं।। | 14-36-29a 14-36-29b |
कौ चोभौ कर्मणां मार्गौ प्राप्नुयुर्दक्षिणोत्तरौ। निरयं चापवर्गं च भूतानां प्रभवाप्ययौ।। | 14-36-30a 14-36-30b |
इत्युक्तः स मुनिश्रेष्ठैर्यदाह प्रपितामहः। तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि शृणु शिष्य यथागमम्।। | 14-36-31a 14-36-31b |
ब्रह्मोवाच। | 14-36-32x |
सत्याद्भूतानि जातानि स्थावराणि चराणि च। तपसा तानि जीवन्ति जीवितं तद्धि सुव्रतम्। स्वां योनिं पुनरागम्य वर्तते स्वेन कर्मणा।। | 14-36-32a 14-36-32b 14-36-32c |
सत्यं हि गुणसंयुक्तं नियतं पञ्चलक्षणम्।। | 14-36-33a |
ब्रह्म सत्यं तपः सत्यं सत्यं चैव प्रजापतिः। सत्याद्भूतानि जातानि सत्यं भूतमयं जगत्।। | 14-36-34a 14-36-34b |
तस्मात्सत्याश्रया विप्रा नित्यं योगपरायणाः। अतीक्रोधसंतापा नियता धर्मसेतवः।। | 14-36-35a 14-36-35b |
अन्योन्यनियतान्वैद्यान्धर्मसेतुप्रवर्तकान्। तानहं सम्प्रवक्ष्यामि शाश्वताँल्लोकभावनान्।। | 14-36-36a 14-36-36b |
चातुर्विद्यं तथा वर्णांश्चातुराश्रमिकान्पृथक्। धर्ममेकं चतुष्पादं नित्यमाहुर्मनीषिणः।। | 14-36-37a 14-36-37b |
पन्थानं वः प्रवक्ष्यामि शिवं क्षेमकरं द्विजाः। नियतं ब्रह्मभावाय यातं पूर्वं मनीषिभिः।। | 14-36-38a 14-36-38b |
गदन्तस्तु ममाद्येह पन्थानं दुर्विदं परैः। निबोधत महाभागा निखिलेन परं पदम्।। | 14-36-39a 14-36-39b |
ब्रह्मचर्यमिहैवाहुराश्रमं प्रथमं पदम्। गार्हस्थ्यं तु द्वितीयं स्याद्वानप्रस्थमतः परम्। ततः परं तु विज्ञेयमध्यात्मं परमं पदम्।। | 14-36-40a 14-36-40b 14-36-40c |
ज्योतिराकाशमादित्यो वायुरिन्द्रः प्रजापतिः। नोपैति यावदध्यात्मं तावदेतान्न पश्यति।। | 14-36-41a 14-36-41b |
तस्योपायं प्रवक्ष्यामि पुरस्तात्तं निबोधत। फलमूलानिलभुजां मुनीनां वसतां वने।। | 14-36-42a 14-36-42b |
वानप्रस्थं द्विजातीनां त्रयाणामुपदिश्यते। सर्वेषामेव वर्णानां गृहस्थोऽयं विशिष्यते।। | 14-36-43a 14-36-43b |
श्रद्धालक्षणमित्येकं धर्मं धीराः प्रचक्षते। `नैष्ठिकोऽथ यतिर्वाऽपि विरक्तो ब्रह्मदर्शनः।।' | 14-36-44a 14-36-44b |
इत्येवं देवयाना वः पन्थानः परिकीर्तिताः। सद्भिरध्यासिता धीरैः कर्मभिर्धर्मसेतवः।। | 14-36-45a 14-36-45b |
एतेषां पृथगध्यास्ते यो धर्मं संशितव्रतः। कालात्पश्यति भूतानां सदैव प्रभवाप्ययौ।। | 14-36-46a 14-36-46b |
अतस्तत्त्वानि वक्ष्यामि याथातथ्येन हेतुना। विषयस्थानि सर्वाणि वर्तमानानि भागशः।। | 14-36-47a 14-36-47b |
महानात्मा तथाऽव्यक्तमहंकारस्तथैव च। इन्द्रियाणि दशैकं च महाभूतानि पञ्च च।। | 14-36-48a 14-36-48b |
विशेषाः पञ्चभूतानामित्येषा वैदिकी श्रुतिः। चतुर्विंशतिरेषा वस्तत्वानां परिकीर्तिता।। | 14-36-49a 14-36-49b |
तत्वानामथ यो वेद सर्वेषां प्रभवाप्ययौ। स धीरः सर्वभूतेषु न मोऽहमधिगच्छति।। | 14-36-50a 14-36-50b |
तत्त्वानि यो वेदयते यथातथं गुणांश्च सर्वानखिलाश्च देवताः। विधूतपाप्मा प्रविमुच्य बन्धनं स सर्वलोकानमलान्समश्नुते।। | 14-36-51a 14-36-51b 14-36-51c 14-36-51d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः।। |
14-36-10 कश्च कोऽपि।। 14-36-29 कथं कर्म क्रियात्साद्यु इति झ. झ.पाठः। क्रियात्कुर्वीत। के। नोऽस्माकम्।। 14-36-43 गार्हस्थ्यं तद्विधीयते इति झ.पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-035 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-037 |