महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-096
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युधिष्ठिरेण कृष्णंप्रति वैष्णवधर्मप्रशंसनपूर्वकं तत्कथनप्रार्थना।। 1 ।। वसिष्ठादिभिस्तच्छुश्रूषया तत्समीपोपसर्पणम्।। 2 ।। कृष्णेन युधिष्ठिरादीन्प्रति वैष्णवधर्मप्रशंसनपूर्वकं स्वमहिमानुबोधनम्।। 3 ।।
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जनमेजय उवाच। | 14-96-1x |
अश्वमेधे पुरावृत्ते केशवं केशिसूदनम्। धर्मसंशयमुद्दिश्य किमपृच्छत्पितामहः।। | 14-96-1a 14-96-1b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-96-2x |
पश्चिमेनाश्वमेधेन यदा स्नातो युधिष्ठिरः। तदा राजा नमस्कृत्य केशवं पुनरब्रवीत्।। | 14-96-2a 14-96-2b |
भववन्वैष्णवा धर्माः किंफलाः किंपरायणाः। किं धर्ममधिकृत्याथ भवतोत्पादिताः पुरा।। | 14-96-3a 14-96-3b |
यदि तेहमनुग्राह्यः प्रियोस्मि मधुसूदन। श्रोतव्या यदि मे कृष्ण तन्मे कथय सुव्रत।। | 14-96-4a 14-96-4b |
पवित्रा किल ते धर्माः सर्वपापप्रणाशनाः। सर्वधर्मोत्तमाः पुण्या भगवंस्त्वन्मुखोद्गताः।। | 14-96-5a 14-96-5b |
याञ्श्रुत्वा ब्रह्महा गोघ्नो मातृहा गुरुतल्पगः। पाकर्भेदी कृतघ्नश्च सुरापो ब्रह्मविक्रयी।। | 14-96-6a 14-96-6b |
मित्रविश्वासघाती च वीरहा भ्रूणहा तथा। तपोविक्रयिणश्चैव दानविक्रयिणस्तथा।। | 14-96-7a 14-96-7b |
आत्मविक्रमयिणो मूढा जीवेद्यश्च विकर्मभिः। पापाः शठा नैकृतिका डांभिका दूषकास्तथा।। | 14-96-8a 14-96-8b |
रसभेदकरा ये च ये च स्युर्ब्रह्मघातकाः। शूद्रप्रेष्यकराश्चोरा विप्रा ये च पुरोहिताः।। | 14-96-9a 14-96-9b |
निक्षेपहारिणः स्त्रीघ्नास्तथा ये पारदारिकाः। एते चान्ये च पापा ये मुच्यन्तेतेऽपि किल्बिषात्।। | 14-96-10a 14-96-10b |
तानाचक्ष्व सुरश्रेष्ठ त्वद्भक्तस्य ममाच्युत।। | 14-96-11a |
वैशंपायन उवाच। | 14-96-12x |
इत्येवं कथिते देवे धर्मपुत्रेण संसदि। वसिष्ठाद्यास्तपोयुक्ता मुनयस्तत्वदर्शिनः।। | 14-96-12a 14-96-12b |
श्रोतुकामाः परं गुह्यं वैष्णवं धर्ममुत्तमम्। तथा भागवताश्चैव ततस्तं पर्यवारयन्।। | 14-96-13a 14-96-13b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-96-14x |
तत्वतस्तव भावेन पादमूलमुपागतम्। यदि जानासि मां भक्तं स्निग्धं वा भक्तवत्सल।। | 14-96-14a 14-96-14b |
धर्मगुह्यानि सर्वाणि वेत्तुमिच्छामि तत्वतः। धर्मान्कथय मे देव यद्यनुग्रहभागहम्।। | 14-96-15a 14-96-15b |
श्रुता मे मानवा धर्मा वासिष्ठाः काश्यपास्तथा। गार्गीया गौतमीयाश्च तथा गोपालकस्य च।। | 14-96-16a 14-96-16b |
पराशरकृताः पूर्वा मैत्रेयस्य च धीमतः। औमा माहेश्वराश्चैव नन्दिधर्माश्च पावनाः।। | 14-96-17a 14-96-17b |
ब्रह्मणा कथिता ये च कौमाराश्च श्रुता मया। धूमायनकृता धर्माः काण्डवैश्वानरा अपि।। | 14-96-18a 14-96-18b |
भार्गवा याज्ञवल्क्याश्च मार्कण्डेयकृता अपि। भारद्वाजकृता ये च बृहस्पतिकृताश्च ये।। | 14-96-19a 14-96-19b |
कुणेश्च कुणिबाहोश्च विश्वामित्रकृताश्च ये। सुमन्तुजैमिनिकृताः शाकुनेयास्तथैव च।। | 14-96-20a 14-96-20b |
पुलस्त्यपुलहोद्गीताः पावकीयास्तथैव च। अगस्त्यगीता मौद्गल्याः शाण्डिल्याः शलभायनाः।। | 14-96-21a 14-96-21b |
वालखिल्यकृता ये च ये च सप्तर्षिभिस्तथा। आपस्तंबकृता धर्माः शङ्खस्य लिखितस्य च।। | 14-96-22a 14-96-22b |
प्राजापत्यास्तथा याम्या माहेन्द्राश्च श्रुता मया। वैयाघ्रव्यासकीयाश्च विभण्डककृताश्च ये।। | 14-96-23a 14-96-23b |
नारदीयाः श्रुता धर्माः कापोताश्च श्रुता मया। तथा विदुरवाक्यानि भृगोरङ्गिरसस्तथा।। | 14-96-24a 14-96-24b |
क्रौञ्चा मृदङ्गगीताश्च सौर्या हारीतकाश्च ये। ये पिशङ्गकृताश्चापि कातपायाः सुवालकाः।। | 14-96-25a 14-96-25b |
उद्दालककृता धर्मा औशनस्यास्तथैव च। वैशंपायनगीताश्च ये चान्येऽप्येवमादितः।। | 14-96-26a 14-96-26b |
एतेभ्यः सर्वधर्मेभ्यो देव त्वन्मुखनिस्सृताः। पावनात्वात्पवित्रत्वाद्विशिष्टा इति मे मतिः।। | 14-96-27a 14-96-27b |
तस्माद्धि त्वां प्रपन्नस्य त्वद्भक्तस्य च केशव। युष्मदीयान्वरान्धर्मान्पुण्यान्कथय मेच्युत।। | 14-96-28a 14-96-28b |
वैशंपायन उवाच। | 14-96-29x |
एवं पृष्टस्तु धर्मज्ञो धर्मपुत्रेण केशवः। उवाच धर्मान्सूक्ष्मार्थान्धर्मपुत्रस्य हर्षितः।। | 14-96-29a 14-96-29b |
एवं ते यस्य कौन्तेय यत्नो धर्मेषु सुव्रत। तस्य ते दुर्लभो लोके न कश्चिदपि विद्येत।। | 14-96-30a 14-96-30b |
धर्मः श्रुतो वा दृष्टो वा कथितो वा कृतोपि वा। अनुमोदितो वा राजेन्द्र नयतीन्द्रपदं नरम्।। | 14-96-31a 14-96-31b |
धर्मः पिता च माता च धर्मो नाथः सुहृत्तथा। धर्मो भ्राता सखा चैव धर्मः स्वामी परंतप।। | 14-96-32a 14-96-32b |
धर्मादर्थश्च कामश्च धर्माद्भोगाः सुखानि च। धर्मार्दैश्वर्यमेवाग्र्यं धर्मात्स्वर्गगतिः परा।। | 14-96-33a 14-96-33b |
धर्मोयं सेवितः शुद्धस्त्रायते महतो भयात्। धर्माद्द्विजत्वं देवत्वं धर्मः पावयते नरम्।। | 14-96-34a 14-96-34b |
यदा च क्षीयते पापं कालेन पुरुषस्य तु। तदा संजायते बुद्धिर्धर्मं कर्तुं युधिष्ठिर।। | 14-96-35a 14-96-35b |
जन्मान्तरसहस्रैस्तु मनुष्यत्वं हि दुर्लभम्। तद्गत्वापीह यो धर्मं न करोति स्ववञ्चितः।। | 14-96-36a 14-96-36b |
कुत्सिता ये दरिद्राश्च विरूपा व्याधितास्तथा। परद्वेष्याश्च मूर्खाश्च न तैर्धर्मः कृतः पुरा।। | 14-96-37a 14-96-37b |
ये च दीर्घायुषः शूराः पण्डिता भोगिनस्तथा।। नीरोगा रूपसंपन्नास्तैर्धर्मः सुकृतः पुरा।। | 14-96-38a 14-96-38b |
एवं धर्मः कृतः शुद्धो नयते गतिमुत्तमाम्। अधर्मं सेवते यस्तु तिर्यग्योन्यां पतत्यसौ।। | 14-96-39a 14-96-39b |
इदं रहस्यं कौन्तेय शृणु धर्ममनुत्तमम्। कथयिष्ये परं धर्मं तव भक्तस्य पाण्डव।। | 14-96-40a 14-96-40b |
इष्टस्त्वमसि मेऽत्यर्थं प्रपन्नश्चापि मां सदा। परमार्थमपि ब्रूयां किं पुनर्धर्मसंहिताम्।। | 14-96-41a 14-96-41b |
इदं मे मानुषं जन्म कृतमात्मनि मायया। धर्मसंस्थापनार्थाय दुष्टानां नाशनाय च।। | 14-96-42a 14-96-42b |
मानुष्यं भावमापन्नं ये मां गृह्णन्त्यवज्ञया। संसारान्तर्हि ते मूढास्तिर्यग्योनिष्वनेकशः।। | 14-96-43a 14-96-43b |
ये च मां सर्वभूतस्थं पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषा। मद्भक्तांस्तान्सदा युक्तान्मत्समीपं नयाम्यहम्।। | 14-96-44a 14-96-44b |
मद्भक्ता न विनश्यन्ति मद्भक्ता वीतकल्मषाः। मद्भाक्तानां तु मानुष्ये सफल जन्म पाण्डवा।। | 14-96-45a 14-96-45b |
अपि पापेष्वभिरता मद्भक्ताः पाण्डुनन्दन। मुच्यन्ते पातकैः सर्वैः पद्मपत्रमिवांभसा।। | 14-96-46a 14-96-46b |
जन्मान्तरसहस्रेषु तपसा भावितात्मनाम्। भक्तिरुत्पद्यते तात मनुष्याणां न संशयः।। | 14-96-47a 14-96-47b |
यच्च रूपं परं गुह्यं कूटस्तमचलं ध्रुवम्। न दृश्यते तता देवैर्मद्भक्तैर्दृश्यते यथा।। | 14-96-48a 14-96-48b |
अपरं यच्च मे रूपं पर्रादुर्भावेषु दृश्यते। तदर्चयन्ति सर्वार्थैः सर्वभूतानि पाण्डव।। | 14-96-49a 14-96-49b |
कल्पकोटिसहस्रेषु व्यतीतेष्वागते च। दर्शयामीह तद्रूपं यच्च पश्यन्ति मे सुराः।। | 14-96-50a 14-96-50b |
स्तित्युत्पत्त्यव्ययकरं यो मां ज्ञात्वा प्रपद्यते। अनुगृह्णाम्यहं तं वै संसारान्मोचयामि च।। | 14-96-51a 14-96-51b |
अहमादिर्हि देवानां सृष्टा ब्रह्मादयो मया। प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य जगत्सर्वं सृजाम्यहम्।। | 14-96-52a 14-96-52b |
तमोमूलोहमव्यक्तो रजोमध्ये प्रतिष्ठितः। ऊर्ध्वं सत्त्वं विना लोभं ब्रह्मादिस्तंबपर्यतः।। | 14-96-53a 14-96-53b |
मूर्धानं मे विद्धि दिवं चन्द्रादित्यौ च लोचने। गावोग्निर्बाह्मणो वक्त्रं मारुतः श्वसनं च मे।। | 14-96-54a 14-96-54b |
दिशो मे बाहवश्चाष्टौ नक्षत्राणि च भूषणम्। अन्तरिक्षमुरो विद्धि सर्वभूतावकाशकम्। मार्गो मेघानिलाभ्यां तु यन्ममोदरमव्ययम्।। | 14-96-55a 14-96-55b 14-96-55c |
पृथिवीमण्डलं यद्वै द्वीपार्णवनगैर्युतम्। सर्वसंधारणोपेतं पादौ मम युधिष्ठिर।। | 14-96-56a 14-96-56b |
स्थितो ह्येकगुणः खेऽहं द्विगुणश्चास्मि मारुते। त्रिगुणोग्नौ स्थितोहं वै सलिले च चतुर्गुणः।। | 14-96-57a 14-96-57b |
शब्दाद्या ये गुणाः पञ्च महाभूतेषु पञ्चसु। तन्मात्रासंस्थितः सोहं पृथिव्यां पञ्चधास्थितः।। | 14-96-58a 14-96-58b |
अहं सहस्रसीर्षस्तु सहस्रवदनेक्षणः। सहस्रबाहूदरधृक्सहस्रोरुः सहस्रपात्।। | 14-96-59a 14-96-59b |
धृत्वोर्वीं सर्वतः सम्यगत्यतिष्ठं दशांगुलम्। सर्वभूतात्मभूतस्थः सर्वव्यापी ततोस्म्यहम्।। | 14-96-60a 14-96-60b |
अचिन्त्योहमनन्तोहमजरोहमजो ह्यहम्। अनाद्योऽहमवध्योहमप्रमेयोहमव्ययः।। | 14-96-61a 14-96-61b |
निर्गुणोहं निगूढात्मा निर्द्वन्द्वो निर्ममो नृप। निष्कलो निर्विकारोहं निदानममृतस्य तु।। | 14-96-62a 14-96-62b |
सुधा चाहं स्वधा चाहं स्वाहा चाहं नराधिप। तेजसा तपसा चाहं भूतग्रामं चतुर्विधम्।। | 14-96-63a 14-96-63b |
स्नेहपाशैर्गुणबद्ध्वा धारयाम्यात्ममायया। चातुराश्रमधर्मेहं चातुर्होत्रफलाशनः। चतुर्मूर्तिश्चतुर्यज्ञश्चतुराश्रमभावनः।। | 14-96-64a 14-96-64b 14-96-64c |
संहृत्याहं जगत्सर्वं कृत्वा वै गर्भमात्मनः। शयामि दिव्ययोगेन प्रलयेषु युधिष्ठिर।। | 14-96-65a 14-96-65b |
सहस्रयुगपर्यन्तां ब्राह्मीं रात्रिं महार्णवे। स्थित्वा सृजामि भूतानि जङ्गमानि स्थिराणि च।। | 14-96-66a 14-96-66b |
कल्पे कल्पे च भूतानि संहरामि सृजामि च। न च मां तानि जानन्ति मायया मोहितानि मे।। | 14-96-67a 14-96-67b |
मम चैवान्धकारस्य मार्गितव्यस्य नित्यशः। प्रशान्तस्येव दीपस्य गतिर्नैपोपलभ्यते।। | 14-96-68a 14-96-68b |
न तदस्ति क्वचिद्राजन्यत्राहं न प्रतिष्ठितः। न च तद्विद्यते भूतं मयि यन्न प्रतिष्ठितम्।। | 14-96-69a 14-96-69b |
यावन्मित्रं भवेद्भूतं स्थूलं सूक्ष्ममिदं जगत्। दीवभूतो ह्यहं तस्मिंस्तावन्मात्रं प्रतिष्ठितः।। | 14-96-70a 14-96-70b |
किंचात्र बहुनोक्तेन सत्यमेतद्ब्रवीमि ते। यद्भूतं यद्भविष्यच्च तत्सर्वमहमेव तु।। | 14-96-71a 14-96-71b |
मया सृष्टानि भूतानि मन्मयानि च भारत। मामेव न विजानन्ति मायया मोहितानि वै।। | 14-96-72a 14-96-72b |
एवं सर्वं जगदिदं सदेवासुरमानुषम्। मत्तः प्रभवते राजन्मय्येव प्रविलीयते।। | 14-96-73a 14-96-73b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि षण्णवतितमोऽध्यायः।। 96 ।। |
14-96-1x एतदारभ्यापर्वसमाप्ति विद्यमानास्त्रयोविंशत्यध्याया दाक्षिणात्यकोशेष्वेव दृश्यन्ते नत्वौत्तराहपाठे। 14-96-2 पञ्चमेनाश्वमेधेनेति ट.पाठः।। 14-96-18 शूद्रायनकृता धर्मा इति क.पाठः।। 14-96-23 वैभीतककृताश्च ये इति ट.पाठः।। 14-96-31 राजेन्द्र पुनाति ह नरं सदेति ट.पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-095 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-097 |