महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-096

← आश्वमेधिकपर्व-095 महाभारतम्
चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-096
वेदव्यासः
आश्वमेधिकपर्व-097 →

युधिष्ठिरेण कृष्णंप्रति वैष्णवधर्मप्रशंसनपूर्वकं तत्कथनप्रार्थना।। 1 ।। वसिष्ठादिभिस्तच्छुश्रूषया तत्समीपोपसर्पणम्।। 2 ।। कृष्णेन युधिष्ठिरादीन्प्रति वैष्णवधर्मप्रशंसनपूर्वकं स्वमहिमानुबोधनम्।। 3 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
जनमेजय उवाच। 14-96-1x
अश्वमेधे पुरावृत्ते केशवं केशिसूदनम्।
धर्मसंशयमुद्दिश्य किमपृच्छत्पितामहः।।
14-96-1a
14-96-1b
वैशम्पायन उवाच। 14-96-2x
पश्चिमेनाश्वमेधेन यदा स्नातो युधिष्ठिरः।
तदा राजा नमस्कृत्य केशवं पुनरब्रवीत्।।
14-96-2a
14-96-2b
भववन्वैष्णवा धर्माः किंफलाः किंपरायणाः।
किं धर्ममधिकृत्याथ भवतोत्पादिताः पुरा।।
14-96-3a
14-96-3b
यदि तेहमनुग्राह्यः प्रियोस्मि मधुसूदन।
श्रोतव्या यदि मे कृष्ण तन्मे कथय सुव्रत।।
14-96-4a
14-96-4b
पवित्रा किल ते धर्माः सर्वपापप्रणाशनाः।
सर्वधर्मोत्तमाः पुण्या भगवंस्त्वन्मुखोद्गताः।।
14-96-5a
14-96-5b
याञ्श्रुत्वा ब्रह्महा गोघ्नो मातृहा गुरुतल्पगः।
पाकर्भेदी कृतघ्नश्च सुरापो ब्रह्मविक्रयी।।
14-96-6a
14-96-6b
मित्रविश्वासघाती च वीरहा भ्रूणहा तथा।
तपोविक्रयिणश्चैव दानविक्रयिणस्तथा।।
14-96-7a
14-96-7b
आत्मविक्रमयिणो मूढा जीवेद्यश्च विकर्मभिः।
पापाः शठा नैकृतिका डांभिका दूषकास्तथा।।
14-96-8a
14-96-8b
रसभेदकरा ये च ये च स्युर्ब्रह्मघातकाः।
शूद्रप्रेष्यकराश्चोरा विप्रा ये च पुरोहिताः।।
14-96-9a
14-96-9b
निक्षेपहारिणः स्त्रीघ्नास्तथा ये पारदारिकाः।
एते चान्ये च पापा ये मुच्यन्तेतेऽपि किल्बिषात्।।
14-96-10a
14-96-10b
तानाचक्ष्व सुरश्रेष्ठ त्वद्भक्तस्य ममाच्युत।। 14-96-11a
वैशंपायन उवाच। 14-96-12x
इत्येवं कथिते देवे धर्मपुत्रेण संसदि।
वसिष्ठाद्यास्तपोयुक्ता मुनयस्तत्वदर्शिनः।।
14-96-12a
14-96-12b
श्रोतुकामाः परं गुह्यं वैष्णवं धर्ममुत्तमम्।
तथा भागवताश्चैव ततस्तं पर्यवारयन्।।
14-96-13a
14-96-13b
युधिष्ठिर उवाच। 14-96-14x
तत्वतस्तव भावेन पादमूलमुपागतम्।
यदि जानासि मां भक्तं स्निग्धं वा भक्तवत्सल।।
14-96-14a
14-96-14b
धर्मगुह्यानि सर्वाणि वेत्तुमिच्छामि तत्वतः।
धर्मान्कथय मे देव यद्यनुग्रहभागहम्।।
14-96-15a
14-96-15b
श्रुता मे मानवा धर्मा वासिष्ठाः काश्यपास्तथा।
गार्गीया गौतमीयाश्च तथा गोपालकस्य च।।
14-96-16a
14-96-16b
पराशरकृताः पूर्वा मैत्रेयस्य च धीमतः।
औमा माहेश्वराश्चैव नन्दिधर्माश्च पावनाः।।
14-96-17a
14-96-17b
ब्रह्मणा कथिता ये च कौमाराश्च श्रुता मया।
धूमायनकृता धर्माः काण्डवैश्वानरा अपि।।
14-96-18a
14-96-18b
भार्गवा याज्ञवल्क्याश्च मार्कण्डेयकृता अपि।
भारद्वाजकृता ये च बृहस्पतिकृताश्च ये।।
14-96-19a
14-96-19b
कुणेश्च कुणिबाहोश्च विश्वामित्रकृताश्च ये।
सुमन्तुजैमिनिकृताः शाकुनेयास्तथैव च।।
14-96-20a
14-96-20b
पुलस्त्यपुलहोद्गीताः पावकीयास्तथैव च।
अगस्त्यगीता मौद्गल्याः शाण्डिल्याः शलभायनाः।।
14-96-21a
14-96-21b
वालखिल्यकृता ये च ये च सप्तर्षिभिस्तथा।
आपस्तंबकृता धर्माः शङ्खस्य लिखितस्य च।।
14-96-22a
14-96-22b
प्राजापत्यास्तथा याम्या माहेन्द्राश्च श्रुता मया।
वैयाघ्रव्यासकीयाश्च विभण्डककृताश्च ये।।
14-96-23a
14-96-23b
नारदीयाः श्रुता धर्माः कापोताश्च श्रुता मया।
तथा विदुरवाक्यानि भृगोरङ्गिरसस्तथा।।
14-96-24a
14-96-24b
क्रौञ्चा मृदङ्गगीताश्च सौर्या हारीतकाश्च ये।
ये पिशङ्गकृताश्चापि कातपायाः सुवालकाः।।
14-96-25a
14-96-25b
उद्दालककृता धर्मा औशनस्यास्तथैव च।
वैशंपायनगीताश्च ये चान्येऽप्येवमादितः।।
14-96-26a
14-96-26b
एतेभ्यः सर्वधर्मेभ्यो देव त्वन्मुखनिस्सृताः।
पावनात्वात्पवित्रत्वाद्विशिष्टा इति मे मतिः।।
14-96-27a
14-96-27b
तस्माद्धि त्वां प्रपन्नस्य त्वद्भक्तस्य च केशव।
युष्मदीयान्वरान्धर्मान्पुण्यान्कथय मेच्युत।।
14-96-28a
14-96-28b
वैशंपायन उवाच। 14-96-29x
एवं पृष्टस्तु धर्मज्ञो धर्मपुत्रेण केशवः।
उवाच धर्मान्सूक्ष्मार्थान्धर्मपुत्रस्य हर्षितः।।
14-96-29a
14-96-29b
एवं ते यस्य कौन्तेय यत्नो धर्मेषु सुव्रत।
तस्य ते दुर्लभो लोके न कश्चिदपि विद्येत।।
14-96-30a
14-96-30b
धर्मः श्रुतो वा दृष्टो वा कथितो वा कृतोपि वा।
अनुमोदितो वा राजेन्द्र नयतीन्द्रपदं नरम्।।
14-96-31a
14-96-31b
धर्मः पिता च माता च धर्मो नाथः सुहृत्तथा।
धर्मो भ्राता सखा चैव धर्मः स्वामी परंतप।।
14-96-32a
14-96-32b
धर्मादर्थश्च कामश्च धर्माद्भोगाः सुखानि च।
धर्मार्दैश्वर्यमेवाग्र्यं धर्मात्स्वर्गगतिः परा।।
14-96-33a
14-96-33b
धर्मोयं सेवितः शुद्धस्त्रायते महतो भयात्।
धर्माद्द्विजत्वं देवत्वं धर्मः पावयते नरम्।।
14-96-34a
14-96-34b
यदा च क्षीयते पापं कालेन पुरुषस्य तु।
तदा संजायते बुद्धिर्धर्मं कर्तुं युधिष्ठिर।।
14-96-35a
14-96-35b
जन्मान्तरसहस्रैस्तु मनुष्यत्वं हि दुर्लभम्।
तद्गत्वापीह यो धर्मं न करोति स्ववञ्चितः।।
14-96-36a
14-96-36b
कुत्सिता ये दरिद्राश्च विरूपा व्याधितास्तथा।
परद्वेष्याश्च मूर्खाश्च न तैर्धर्मः कृतः पुरा।।
14-96-37a
14-96-37b
ये च दीर्घायुषः शूराः पण्डिता भोगिनस्तथा।।
नीरोगा रूपसंपन्नास्तैर्धर्मः सुकृतः पुरा।।
14-96-38a
14-96-38b
एवं धर्मः कृतः शुद्धो नयते गतिमुत्तमाम्।
अधर्मं सेवते यस्तु तिर्यग्योन्यां पतत्यसौ।।
14-96-39a
14-96-39b
इदं रहस्यं कौन्तेय शृणु धर्ममनुत्तमम्।
कथयिष्ये परं धर्मं तव भक्तस्य पाण्डव।।
14-96-40a
14-96-40b
इष्टस्त्वमसि मेऽत्यर्थं प्रपन्नश्चापि मां सदा।
परमार्थमपि ब्रूयां किं पुनर्धर्मसंहिताम्।।
14-96-41a
14-96-41b
इदं मे मानुषं जन्म कृतमात्मनि मायया।
धर्मसंस्थापनार्थाय दुष्टानां नाशनाय च।।
14-96-42a
14-96-42b
मानुष्यं भावमापन्नं ये मां गृह्णन्त्यवज्ञया।
संसारान्तर्हि ते मूढास्तिर्यग्योनिष्वनेकशः।।
14-96-43a
14-96-43b
ये च मां सर्वभूतस्थं पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषा।
मद्भक्तांस्तान्सदा युक्तान्मत्समीपं नयाम्यहम्।।
14-96-44a
14-96-44b
मद्भक्ता न विनश्यन्ति मद्भक्ता वीतकल्मषाः।
मद्भाक्तानां तु मानुष्ये सफल जन्म पाण्डवा।।
14-96-45a
14-96-45b
अपि पापेष्वभिरता मद्भक्ताः पाण्डुनन्दन।
मुच्यन्ते पातकैः सर्वैः पद्मपत्रमिवांभसा।।
14-96-46a
14-96-46b
जन्मान्तरसहस्रेषु तपसा भावितात्मनाम्।
भक्तिरुत्पद्यते तात मनुष्याणां न संशयः।।
14-96-47a
14-96-47b
यच्च रूपं परं गुह्यं कूटस्तमचलं ध्रुवम्।
न दृश्यते तता देवैर्मद्भक्तैर्दृश्यते यथा।।
14-96-48a
14-96-48b
अपरं यच्च मे रूपं पर्रादुर्भावेषु दृश्यते।
तदर्चयन्ति सर्वार्थैः सर्वभूतानि पाण्डव।।
14-96-49a
14-96-49b
कल्पकोटिसहस्रेषु व्यतीतेष्वागते च।
दर्शयामीह तद्रूपं यच्च पश्यन्ति मे सुराः।।
14-96-50a
14-96-50b
स्तित्युत्पत्त्यव्ययकरं यो मां ज्ञात्वा प्रपद्यते।
अनुगृह्णाम्यहं तं वै संसारान्मोचयामि च।।
14-96-51a
14-96-51b
अहमादिर्हि देवानां सृष्टा ब्रह्मादयो मया।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य जगत्सर्वं सृजाम्यहम्।।
14-96-52a
14-96-52b
तमोमूलोहमव्यक्तो रजोमध्ये प्रतिष्ठितः।
ऊर्ध्वं सत्त्वं विना लोभं ब्रह्मादिस्तंबपर्यतः।।
14-96-53a
14-96-53b
मूर्धानं मे विद्धि दिवं चन्द्रादित्यौ च लोचने।
गावोग्निर्बाह्मणो वक्त्रं मारुतः श्वसनं च मे।।
14-96-54a
14-96-54b
दिशो मे बाहवश्चाष्टौ नक्षत्राणि च भूषणम्।
अन्तरिक्षमुरो विद्धि सर्वभूतावकाशकम्।
मार्गो मेघानिलाभ्यां तु यन्ममोदरमव्ययम्।।
14-96-55a
14-96-55b
14-96-55c
पृथिवीमण्डलं यद्वै द्वीपार्णवनगैर्युतम्।
सर्वसंधारणोपेतं पादौ मम युधिष्ठिर।।
14-96-56a
14-96-56b
स्थितो ह्येकगुणः खेऽहं द्विगुणश्चास्मि मारुते।
त्रिगुणोग्नौ स्थितोहं वै सलिले च चतुर्गुणः।।
14-96-57a
14-96-57b
शब्दाद्या ये गुणाः पञ्च महाभूतेषु पञ्चसु।
तन्मात्रासंस्थितः सोहं पृथिव्यां पञ्चधास्थितः।।
14-96-58a
14-96-58b
अहं सहस्रसीर्षस्तु सहस्रवदनेक्षणः।
सहस्रबाहूदरधृक्सहस्रोरुः सहस्रपात्।।
14-96-59a
14-96-59b
धृत्वोर्वीं सर्वतः सम्यगत्यतिष्ठं दशांगुलम्।
सर्वभूतात्मभूतस्थः सर्वव्यापी ततोस्म्यहम्।।
14-96-60a
14-96-60b
अचिन्त्योहमनन्तोहमजरोहमजो ह्यहम्।
अनाद्योऽहमवध्योहमप्रमेयोहमव्ययः।।
14-96-61a
14-96-61b
निर्गुणोहं निगूढात्मा निर्द्वन्द्वो निर्ममो नृप।
निष्कलो निर्विकारोहं निदानममृतस्य तु।।
14-96-62a
14-96-62b
सुधा चाहं स्वधा चाहं स्वाहा चाहं नराधिप।
तेजसा तपसा चाहं भूतग्रामं चतुर्विधम्।।
14-96-63a
14-96-63b
स्नेहपाशैर्गुणबद्ध्वा धारयाम्यात्ममायया।
चातुराश्रमधर्मेहं चातुर्होत्रफलाशनः।
चतुर्मूर्तिश्चतुर्यज्ञश्चतुराश्रमभावनः।।
14-96-64a
14-96-64b
14-96-64c
संहृत्याहं जगत्सर्वं कृत्वा वै गर्भमात्मनः।
शयामि दिव्ययोगेन प्रलयेषु युधिष्ठिर।।
14-96-65a
14-96-65b
सहस्रयुगपर्यन्तां ब्राह्मीं रात्रिं महार्णवे।
स्थित्वा सृजामि भूतानि जङ्गमानि स्थिराणि च।।
14-96-66a
14-96-66b
कल्पे कल्पे च भूतानि संहरामि सृजामि च।
न च मां तानि जानन्ति मायया मोहितानि मे।।
14-96-67a
14-96-67b
मम चैवान्धकारस्य मार्गितव्यस्य नित्यशः।
प्रशान्तस्येव दीपस्य गतिर्नैपोपलभ्यते।।
14-96-68a
14-96-68b
न तदस्ति क्वचिद्राजन्यत्राहं न प्रतिष्ठितः।
न च तद्विद्यते भूतं मयि यन्न प्रतिष्ठितम्।।
14-96-69a
14-96-69b
यावन्मित्रं भवेद्भूतं स्थूलं सूक्ष्ममिदं जगत्।
दीवभूतो ह्यहं तस्मिंस्तावन्मात्रं प्रतिष्ठितः।।
14-96-70a
14-96-70b
किंचात्र बहुनोक्तेन सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।
यद्भूतं यद्भविष्यच्च तत्सर्वमहमेव तु।।
14-96-71a
14-96-71b
मया सृष्टानि भूतानि मन्मयानि च भारत।
मामेव न विजानन्ति मायया मोहितानि वै।।
14-96-72a
14-96-72b
एवं सर्वं जगदिदं सदेवासुरमानुषम्।
मत्तः प्रभवते राजन्मय्येव प्रविलीयते।।
14-96-73a
14-96-73b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
वैष्णवधर्मपर्वणि षण्णवतितमोऽध्यायः।। 96 ।।

14-96-1x एतदारभ्यापर्वसमाप्ति विद्यमानास्त्रयोविंशत्यध्याया दाक्षिणात्यकोशेष्वेव दृश्यन्ते नत्वौत्तराहपाठे। 14-96-2 पञ्चमेनाश्वमेधेनेति ट.पाठः।। 14-96-18 शूद्रायनकृता धर्मा इति क.पाठः।। 14-96-23 वैभीतककृताश्च ये इति ट.पाठः।। 14-96-31 राजेन्द्र पुनाति ह नरं सदेति ट.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-095 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-097