महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-052

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चतुर्दशपर्व
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वेदव्यासः
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अनुगीतोपदेशानन्तरं कृष्णार्जुनाभ्यां हास्तिनपुरंप्रति प्रस्थानम्।। 1 ।। तत्र मध्येमार्गमर्जुनेन कृष्णंप्रति स्तुतिपूर्वकं व्यासनारदादिभ्यः स्वस्य कृष्णयाथात्म्यावगतिनिवेदनम्।। 2 ।। ततः कृष्णेन सहार्जुनेन हास्तिनपुरमेत्य धृतराष्ट्रादिभ्यः पादाभिवादनम्।। 3 ।। ततो युधिष्ठिराद्यनुमत्या सुभद्रामानीय सहसात्यकिना द्वारकांप्रति प्रस्थानम्।। 4 ।।

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वैशम्पायन उवाच। 14-52-1x
ततोऽभ्यनोदयत्कृष्णो युज्यतामिति दारुकम्।
मुहूर्तादिव चाचष्ट युक्तमित्येव दारुकः।।
14-52-1a
14-52-1b
तथैव चानुयात्राणि चोदयामास पाण्डवः।
सन्नह्यध्वं प्रयास्यामो नगर गजसाह्वयम्।।
14-52-2a
14-52-2b
इत्युक्ताः सैनिकास्ते तु सज्जीभूता विशाम्पते।
आचख्युः सज्जमित्येवं पार्थायामिततेजसे।।
14-52-3a
14-52-3b
ततस्तौ रथमास्थाय प्रयातौ कृष्णपाण्डवौ।
विकुर्वाणौ कताश्चित्राः प्रीयमाणौ विशाम्पते।।
14-52-4a
14-52-4b
रथस्थं तु महातेजा वासुदेवं धनञ्जयः।
पुनरेवाब्रवीद्वाक्यमिदं भरतसत्तम।।
14-52-5a
14-52-5b
त्वत्प्रसादाज्ज्यः प्राप्तो राज्ञा वृष्णिकुलोद्वह।
निहताः शत्रवश्चापि प्राप्तं राज्यमकण्टकम्।।
14-52-6a
14-52-6b
नाथवन्तश्च भवता पाण्डवा मधुसूदन।
भवन्तं प्लवमासाद्य तीर्णाः स्म कुरुसागरम्।
`भक्तांस्त्वमाश्रितानस्मान्पालयामुत्र चेह च।'
14-52-7a
14-52-7b
14-52-7c
विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन्विश्वसत्तम।
तथा त्वामभिजानामि तथा चाहं भवान्मतः।।
14-52-8a
14-52-8b
त्वत्तेजःसम्भवो नित्यं हुताशो मधुसूदन।
रतिः क्रीडामयी तुभ्यं माया ते रोदसी विभो।।
14-52-9a
14-52-9b
त्वयि सर्वमिदं विश्वं यदिदं स्थाणु जङ्गमम्।
त्वं हि सर्वं विकुरुषे भूतग्रामं चतुर्विधम्।।
14-52-10a
14-52-10b
पृथिवीं चान्तरिक्षं च तथा स्थावरजङ्गमम्।
हसिंतं तेऽमला ज्योत्स्ना ऋतवश्चेन्द्रियाणि ते।।
14-52-11a
14-52-11b
प्राणो वायुः सततगः क्रोधो मृत्युः सनातनः।
प्रसादे चापि पद्मा श्रीर्नित्यं त्वयि महामते।।
14-52-12a
14-52-12b
रतिस्तुष्टिर्धृतिः क्षान्तिर्मतिः कान्तिश्चराचरम्।
त्वमेवेह युगान्तेषु निधनं प्रोच्यसेऽनध।।
14-52-13a
14-52-13b
सुदीर्घेणापि कालेन न ते शक्या गुणा मया।
आत्मा च परमो वक्तुं नमस्ते नलिनेक्षण।।
14-52-14a
14-52-14b
विदितो मे सुदुर्धर्ष नारदाद्देवलात्तथा।
कृष्णद्वैपायनाच्चेव तथा कुरुपितामहात्।।
14-52-15a
14-52-15b
त्वयि सर्वं समासक्तं त्वमेवैको जनेश्वरः।
यच्चानुग्रहसंयुक्तमेतदुक्तं त्वयाऽनघ।।
14-52-16a
14-52-16b
एतत्सर्वमहं सम्यगाचरिष्ये जनार्दन।
इदं चाद्भुतमत्यन्तं कृतमस्मत्प्रियेप्सया।।
14-52-17a
14-52-17b
यत्पापो निहतः सङ्ख्ये कौरव्यो धृतराष्ट्रजः।
त्वया दग्धं हि तत्सैन्यं मया विजितमाहवे।।
14-52-18a
14-52-18b
भवता तत्कृतं कर्म येनावाप्तो जयो मया।
दुर्योधनस्य सङ्ग्रामे तव बुद्धिपराक्रमैः।।
14-52-19a
14-52-19b
कर्णस्य च वधोपायो यथावत्सम्प्रदर्शितः।
सैन्धवस्य च पापस्य भूरिश्रवस एव च।।
14-52-20a
14-52-20b
`तस्मात्त्वमेव सञ्चिन्त्य हितं कुरु यथा तथा।'
अहं च प्रीयमाणेन त्वया देवकिनन्दन।
यदुक्तस्तत्करिष्यामि न हि मेऽत्र विचारणा।।
14-52-21a
14-52-21b
14-52-21c
राजानं च समासाद्य धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
चोदयिष्यामि धर्मज्ञ गमनार्थं तवानघ।।
14-52-22a
14-52-22b
आहृतं हि ममैतत्ते द्वारकागमनं प्रभो।
अचिरादेव द्रष्टा त्वं मातुलं मे जनार्दन।
बलदेवं च दुर्धर्षं तथाऽन्यान्वृष्णिपुङ्गवान्।।
14-52-23a
14-52-23b
14-52-23c
एवं सम्भाषमाणौ तौ प्राप्तौ वारणसाह्वयम्।
तथा विविशतुश्चोभौ सम्प्रहृष्टनराकुलम्।।
14-52-24a
14-52-24b
तौ गत्वा धृतराष्ट्रस्य गृहं शक्रगृहोपमम्। 14-52-25a
ददृशाते महाराज धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्।। 14-52-25a
विदुरं च महाबुद्धिं राजानं च युधिष्ठिरम्।
भीमसेनं च दुर्धर्षं माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।।
14-52-26a
14-52-26b
धृतराष्ट्रमुपासीनं युयुत्सुं चापराजितम्।
गान्धारीं च महाप्रज्ञां पृथा कृष्णां च भामिनीम्।।
14-52-27a
14-52-27b
सुभद्राद्याश्च ताः सर्वा भरतानां स्त्रियस्तथा।
ददृशाते स्त्रियः सर्वा गान्धारीपरिचारिकाः।।
14-52-28a
14-52-28b
ततः समेत्य राजानं धृतराष्ट्रमरिंदमौ।
निवेद्य नामधेये स्वे तस्य पादावगृह्णताम्।।
14-52-29a
14-52-29b
गान्धार्याश्च पृथायाश्च धर्मराजस्य चैव हि।
भीमस्य च महात्मानौ तथा पादावगृह्णताम्।।
14-52-30a
14-52-30b
क्षत्तारं चापि सङ्गृह्य पृष्ट्वा कुशलमव्ययम्।
`परिष्वज्य महात्मानं वेश्यापुत्रं महारथम्।'
तैः सार्धं नृपतिं वृद्धं ततस्तौ पर्युपासताम्।।
14-52-31a
14-52-31b
14-52-31c
ततो निशि महाराजो धृतराष्ट्रः कुरूद्वहान्।
जनार्दनं च मेधावी व्यसर्जयत वै गृहान्।।
14-52-32a
14-52-32b
तेऽनुज्ञाता नृपतिना ययुः स्वं स्वं निवेशनम्।
धनंजयगृहानेव ययौ कृष्णस्तु वीर्यवान्।।
14-52-33a
14-52-33b
तत्रार्चितो यथान्यायं सर्वकामैरुपस्थितः।
कृष्णः सुष्वाप मेधावी धनंजयसहायवान्।।
14-52-34a
14-52-34b
प्रभातायां तु शर्वर्यां कृत्वा पौर्वाह्णिकीं क्रियाम्।
धर्मराजस्य भनं जग्मतुः परमार्चितौ।
यत्रास्ते स सहामात्यो धर्मराजो महाबलः।।
14-52-35a
14-52-35b
14-52-35c
तौ प्रविश्य महात्मानौ तद्गृहं परमार्चितम्।
धर्मराजं ददृशतुर्देवराजमिवाश्विनौ।।
14-52-36a
14-52-36b
समासाद्य तु राजानं वार्ष्णेयकुरुपुङ्गवौ।
निषीदतुरनुज्ञातौ प्रीयमाणेन तेन तौ।।
14-52-37a
14-52-37b
ततः स राजा मेधावी विवक्षू प्रेक्ष्य तावुभौ।
प्रोवाच वदतां श्रेष्ठो वचनं राजसत्तमः।।
14-52-38a
14-52-38b
विवक्षू हि युवां मन्ये वीरौ यदुकुरूद्वहौ।
ब्रूतं कर्तास्मि सर्वं वां नचिरान्मा विचार्यताम्।।
14-52-39a
14-52-39b
इत्युक्तः फल्गुनस्तत्र धर्मराजानमब्रवीत्।
विनीतवदुपागम्य वाक्यं वाक्यविशारदः।।
14-52-40a
14-52-40b
अयं चिरोषितो राजन्वासुदेवः प्रतापवान्।
भवन्तं समनुज्ञाप्य पितरं द्रष्टुमिच्छति।।
14-52-41a
14-52-41b
स गच्छेदभ्यनुज्ञातो भवता यदि मन्यसे।
आनर्तनगरीं वीरस्तदनुज्ञातुमर्हसि।।
14-52-42a
14-52-42b
युधिष्ठिर उवाच। 14-52-43x
पुण्डरीकाक्ष भद्रं ते गच्छ त्वं मदुसूदन।
पुरीं द्वारवतीमद्य द्रष्टुं शूरसुतं प्रभो।।
14-52-43a
14-52-43b
रोचते मे महाबाहो गमनं तव केशव।
मातुलश्चिरदृष्टो मे त्वया देवी च देवकी।।
14-52-44a
14-52-44b
समेत्यि मातुलं गत्वा बलदेवं च मानद।
पूजयेथा महाप्राज्ञ मद्वाक्येन यथाऽर्हतः।।
14-52-45a
14-52-45b
स्मरेथाश्चापि मां नित्यं भीमं च बलिनां वरम्।
फाल्गुनं सहदेवं च नकुलं चैव मानद।।
14-52-46a
14-52-46b
आनर्तानवलोक्य त्वं पितरं च महाभुजः।
वृष्णींश्च पुनरागच्छेर्हयमेधे ममानघ।।
14-52-47a
14-52-47b
स गच्छ रत्नान्यादाय विविधानि वसूनि च।
यच्चप्यन्यन्मनोज्ञं ते तदप्यादत्स्व सात्वत।।
14-52-48a
14-52-48b
इयं च वसुधा कृत्स्ना प्रसादात्तव केशव।
अस्मानुपागता वीर निहताश्चापि शत्रवः।।
14-52-49a
14-52-49b
स्वर्गापवर्गविषयं त्वद्भक्तानां न दुर्लभम्।
संसारगहने चेद्धपापाग्निप्रशमाम्बुद।।'
14-52-50a
14-52-50b
एवं ब्रुवति कौरव्ये धर्मराजे युधिष्ठिरे।
वासुदेवो वरः पुंसामिदं वचनमब्रवीत्।।
14-52-51a
14-52-51b
तवैव रत्नानि धनं च केवलं
धरा तु कृत्स्ना तु महाभुजाद्य वै।
यदस्ति चान्यद्द्रविणं गृहे मम
त्वमेव तस्येश्वर नित्यमीश्वरः।।
14-52-52a
14-52-52b
14-52-52c
14-52-52b
तथेत्यथोक्तः प्रतिपूजितस्तदा
गदाग्रजो धर्मसुतेन वीर्यवान्।
पितृष्वसारं त्ववदद्यथाविधि
सम्पूजितश्चाप्यगमत्प्रदक्षिणम्।।
14-52-53a
14-52-53b
14-52-53c
14-52-53d
तया स सम्यक् प्रतिनन्दितस्तत-
स्तथैव सर्वैर्विदुरादिभिस्तथा।
विनिर्ययौ नागपुराद्गदाग्रजो
रथेन दिव्येन चतुर्भुजः स्वयम्।।
14-52-54a
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रथे सुभद्रामधिरोप्य भामिनीं
युधिष्ठिरस्यानुमते जनार्दनः।
पितृष्वसुश्चापि तथा महाभुजो
विनिर्ययौ पौरजनाभिसंवृतः।।
14-52-55a
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14-52-55d
तमन्वयाद्वानरवर्यकेतनः
ससात्यकिर्माद्रवतीसुतावपि।
अगाधबुद्धिर्विदुरश्च माधवं
स्वयं च भीमो गजराजविक्रमः।।
14-52-56a
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निवर्तयित्वा कुरुराष्ट्रवर्धनां-
स्ततः स सर्वान्विदुरं च वीर्यवान्।
जनार्दनो दारुकमाह सत्वरः
प्रचोदयाश्वानिति सात्यकिं तथा।।
14-52-57a
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14-52-57d
ततो ययौ शत्रुगणप्रमर्दनः
शिनिप्रवीरानुगतो जनार्दनः।
यथा निहत्यारिगणं शतकतु-
र्दिवं तथाऽऽनर्तपुरीं प्रतापवान्।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि द्विपञ्चसोऽध्यायः।। 52 ।।
आश्वमेधिकपर्व-051 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-053