महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-088
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युधिष्ठिरेणि पाण्डवेषु चतुर्भ्योऽर्जुनस्यैव विशेषतोऽध्वसंचारादिपरिक्लेशसूचकशारीरालक्षणप्रश्ने कृष्णेन तंप्रति तत्कथनम्।। 1 ।। मेध्याश्वस्य पृथ्वीसंचारणाय गतेनार्जुनेन सहाश्वेन पुनर्नगरं प्रत्यागमनम्।। 3 ।।
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युधिष्ठिर उवाच। | 14-88-1x |
श्रुतं प्रियमिदं कृष्ण यत्त्वमर्हसि भाषितुम्। तन्मेऽमृतरसं पुण्यं मनो ह्लादयति प्रभो।। | 14-88-1a 14-88-1b |
बहूनि किल युद्धानि विजयस्य नराधिपैः। पुनरासन्हृषीकेश तत्रतत्रेति न श्रुतम्।। | 14-88-2a 14-88-2b |
किंनिमित्तं स नित्यं हि पार्थः सुखविवर्जितः। अतीव विजयो धीमानिति मे दूयते मनः।। | 14-88-3a 14-88-3b |
संचिन्तयामि कौन्तेयं रहो जिष्णुं जनार्दन। अतीव दुःखभागी स सततं पाण्डुनन्दनः।। | 14-88-4a 14-88-4b |
किंनु तस्य शरीरेऽस्ति सर्वलक्षणपूजिते। अनिष्टं लक्षणं कृष्ण येन दुःखान्युपाश्नुते।। | 14-88-5a 14-88-5b |
अतीवासुखभोगी स सततं कुन्तिनन्दनः। न हि पश्यामि बीभत्सोर्निन्द्यं गात्रेषु किंचन। श्रोतव्यं चेन्मयैतद्वै तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 14-88-6a 14-88-6b 14-88-6c |
इत्युक्तः स हृषीकेशो ध्यात्वा सुमहदन्तरम्। राजानं भोजराजन्यवर्धनो विष्णुरब्रवीत्।। | 14-88-7a 14-88-7b |
न ह्यस्य नृपते किञ्चिदनिष्टमुपलक्षये। ऋते पुरुषसिंहस्य पिण्डिकेऽस्याधिके यतः।। | 14-88-8a 14-88-8b |
स ताभ्यां पुरुषव्याघ्रो नित्यमध्वसु वर्तते। न चान्यदनुपश्यामि येनासौ दुःखभाजनम्।। | 14-88-9a 14-88-9b |
इत्युक्तः पुरुषश्रेष्ठस्तदा कृष्णेन धीमता। प्रोवाच वृष्णिशार्दूलमेवमेतदिति प्रभो।। | 14-88-10a 14-88-10b |
कृष्णा तु द्रौप्दी कृष्णं तिर्यक्सासूयमैक्षत प्रतिजग्राह तस्यास्तं प्रणयं चापि केशिहा। प्रख्युः सखा हृषीकेशः साक्षादिव धनंजयः।। | 14-88-11a 14-88-11b 14-88-11c |
तत्र भीमादयस्ते तु करवो याजकाश्च ये। रेमुः श्रुत्वा विचित्रां तां धनंजयकथां शुभाम्।। | 14-88-12a 14-88-12b |
तेषां कथयतामेव पुरुषोऽर्जुनसंकथाः। उपायाद्वचनाद्दूतो विजयस्य महात्मनः।। | 14-88-13a 14-88-13b |
सोभिगम्य कुरुश्रेष्ठं नमस्कृत्य च बुद्धिमान्। उपायातं नरव्याघ्रं फल्गुनं प्रत्यवेदयत्।। | 14-88-14a 14-88-14b |
तच्छ्रुत्वा नृपतिस्तस्य हर्षबाष्पाकुलेक्षणः। प्रियाख्याननिमित्तं वै ददौ बहुधनं तदा।। | 14-88-15a 14-88-15b |
ततो द्वितीये दिवसे महाञ्शब्दो व्यवर्धत। आगच्छति नरव्याघ्रे कौरवाणां धुरंधरे।। | 14-88-16a 14-88-16b |
ततो रेणुः समुद्भुतो विबभौ तस्य वाजिनः। अभितो वर्तमानस्य यथोच्चैःश्रवसस्तथा।। | 14-88-17a 14-88-17b |
तत्र हर्षकरीर्वाचो नराणां शुश्रुवेऽर्जुनः। दिष्ट्याऽसि पार्थ कुशली धन्यो राजा युधिष्ठिरः।। | 14-88-18a 14-88-18b |
कोन्योहि पृथिवीं कृत्स्नां जित्वाहि युधि पार्थिवान् चारयित्वा हयश्रेष्ठमुपागच्छेदृतेऽर्जुनात्।। | 14-88-19a 14-88-19b |
ये व्यतीता महात्मानो राजानः सगरादयः। तेषामपीदृशं कर्म न कदाचन शुश्रुम।। | 14-88-20a 14-88-20b |
नैतदन्ये करिष्यन्ति भविष्या वसुधाधिपाः। यत्त्वं कुरुकुलश्रेष्ठ दुष्करं कृतवानसि।। | 14-88-21a 14-88-21b |
इत्येवं वदतां तेषां पुंसां कर्णसुखा गिरः। शृण्वन्विवेश धर्मात्मा फल्गुनो यज्ञसंस्तरम्।। | 14-88-22a 14-88-22b |
ततो राजा सहामात्यः कृष्णश्च यदुनन्दनः। धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य तं प्रत्युद्ययतुस्तदा।। | 14-88-23a 14-88-23b |
सोऽभिवाद्य पितुः पादौ धर्मराजस्य धीमतः। भीमादींश्चापि संपूज्य पर्यष्वजत केशवम्।। | 14-88-24a 14-88-24b |
तैः समेत्यार्चितस्तांश्च प्रत्यर्च्याथ यथाविधि। विशश्राम महाबाहुस्तीरं लब्ध्वेव पारगः।। | 14-88-25a 14-88-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि अष्टाशीतितमोऽध्यायः।। 88 ।। |
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