महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-061

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चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-061
वेदव्यासः
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कृष्णेन सभायां वसुदेवंप्रति अभिमन्युनिधनाकथने सुभद्रया तंप्रति तत्कथनचोदनापूर्वकं शोकान्मोहावेशेन भुवि निपतनम्।। 1 ।। ततः कृष्णेन वसुदेवपरिसान्त्वनम्।। 2 ।।

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वैशम्पायन उवाच। 7-61-1x
कथयन्नेव तु तदा वासुदेवः प्रतापवान्।
महाभारतयुद्धं तत्कथान्ते पितुरग्रतः।।
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अभिमन्योर्वधं वीरः सोत्यक्रामन्महामतिः।
अप्रियं वसुदेवस्य माभूदिति महामनाः।।
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7-61-2b
मा दौहित्रवधं श्रुत्वा वसुदेवो महात्ययम्।
दुःखशोकाभिसंतप्तो भवेदिति महामतिः।।
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सुभद्रा तु तमुत्क्रान्तमात्मजस्य वधं रणे।
आचक्ष्व कृष्ण सौभद्रवधमित्यपतद्भुवि।।
7-61-4a
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तामपश्यन्निपतितां वसुदेवः क्षितौ तदा।
दृष्ट्वैव च पपातोर्व्यां सोऽपि दुःखेन मूर्छितः।।
7-61-5a
7-61-5b
तषः स दौहित्रवदाद्दुःखशोकसमाहतः।
वसुदेवो महाराज कृष्णं वाक्यमथाब्रवीत्।।
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7-61-6b
ननु त्वं पुण्डरीकाक्ष सत्यवाग्भुवि विश्रुतः।
यद्दौहित्रवधं मेऽद्य न ख्यापयसि शत्रुहन्।।
7-61-7a
7-61-7b
तद्भागिनेयनिधनं तत्त्वेनाचक्ष्व मे प्रभो।
सदृशाक्षस्तव कथं शत्रुभिर्निहतो रणे।
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7-61-8b
दुर्भरं बत वार्ष्णेय कालेऽप्राप्ते नृभिः सह।
यत्र मे हृदयं दुःखाच्छतधा न विदीर्यते।।
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किमब्रवीत्त्वां सङ्ग्रामे सुभद्रां मातरं प्रति।
मां चापि पुण्डरीकाक्षि चपलाक्षः प्रियो मम।।
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7-61-10b
आहवं पृष्ठतः कृत्वा कच्चिन्न निहतः परैः।
कच्चिन्मुखं न गोविन्द तेनाजौ विकृतं कृतम्।।
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स हि कृष्ण महातेजाः श्लाघन्निव ममाग्रतः।
बालभावेन विजयमात्मनोऽकथयत्प्रभुः।
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कच्चिन्न निकृतो बालो द्रोणकर्णाकृपादिभिः।
धरण्यां निहतः शेते तन्ममाचक्ष्वि केशव।।
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स हि द्रोणं च भीष्मं च कर्णं च बलीनां वरम्।
स्पर्धते स्म रणे नित्यं दुहितुः पुत्रको मम।।
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7-61-14b
एवंविधं बहु तदा विलपन्तं सुदुःखितम्।
पितरं दुःखिततरं गोविन्दो वाक्यमब्रवीत्।।
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न तेनि विकृतं वक्त्रं कृतं सङ्ग्राममूर्धनि।
न पृष्ठतः कृतश्चापि सङ्ग्रामस्तेन दुस्तरः।।
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7-61-16b
निहत्य पृथिवीपालान्सहस्रशतसङ्घशः।
खेदितो द्रोणकर्णाभ्यां दौःशासनिवशं गतः।।
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7-61-17b
एको ह्येकेन सततं युध्यमानो यदि प्रभो।
न स शक्येत सङ्ग्रामे निहन्तुमपि वज्रिणा।।
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7-61-18b
समाहूते च सङ्ग्रामे पार्थे संशप्तकैस्तदा।
पर्यवार्यत संक्रुद्धैः स द्रोणादिभिराहवे।।
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7-61-19b
ततः शत्रुवधं कृत्वा सुमहान्तं रेणे पितः।
दौहित्रस्तव वार्ष्णेय दौःशासनिवशं गतः।।
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नूनं च स गतः स्वर्गं जहि शोकं महामते।
न हि व्यसनमासाद्य सीदन्ति कृतबुद्धयः।।
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द्रोणकर्णप्रभृतयो येन प्रतिसमासिताः।
रणे महेन्द्रप्रतिमाः स कथं नाप्नुयाद्दिवम्।।
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स शोकं जहि जुर्धर्ष मा च मन्युवशं गमः।
शस्त्रपूतां हि स गतिं गतः परपुरंजयः।।
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तस्मिंस्तु निहते वीरे सुभद्रेयं स्वसा मम।
दुःखार्ताऽथो सुतं प्राप्य कुररीव ननाद ह।।
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द्रौपदीं च समासाद्य पर्यतप्यत दुःखिता।
आर्ये क्व दारकाः सर्वे द्रष्टुमिच्छामि तानहम्।।
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अस्यास्तु वचनं श्रुत्वा सर्वास्ताः कुरुयोषितः।
भुजाभ्यां परिगृह्यैनां चुक्रुशुः परमार्तवत्।।
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उत्तरां चाब्रवीद्भद्रे भर्ता स क्व नु ते गतः।
क्षिप्रमागमनं मह्यं तस्य त्वं वेदयस्व ह।।
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ननु नामाद्य वैराटि श्रुत्वा मम गिरं सदा।
भवनान्निष्पतत्याशु कस्मान्नाभ्येति ते पतिः।।
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अभिमन्योऽनुशयिनो मातुलास्ते महारथाः।
कुशलं चाब्रुवन्सर्वे त्वां युयुत्सुमिहागतम्।।
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आचक्ष्व मेऽद्य सङ्ग्रामं यथापूर्वमरिन्दम।
कस्मादेवं विलपतीं नाद्येह प्रतिभाषसे।
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एवमादि तु वार्ष्णेय्यास्तस्यास्तत्परिदेवितम्।
श्रुत्वा पृथा सुदुःखार्ता शनैर्वाक्यमथाब्रवीत्।।
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सुभद्रे वासुदेवेन तथा सात्यकिना रणे।
पित्रा च लालितो बालः स हतः कालधर्मणा।।
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ईदृशो मर्त्यधर्मोऽयं मा शुचो यदुनन्दिनि।
पुत्रो हि तव दुर्धर्षः सम्प्राप्तः परमां गतिम्।।
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कुले महति जातासि क्षत्रियाणां महात्मनाम्।
मा शुचश्चपलाक्षं त्वं पद्मपत्रनिभेक्षणे।।
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उत्तरां त्वमवेक्षस्व गुर्विणीं मा शुचः शुभे।
पुत्रमेषा हि तस्याशु जनयिष्यति भामिनी।।
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एवमाश्वासयित्वैनां कुन्ती यदुकुलोद्वह।
विहाय शोकं दुर्धर्षं श्राद्धमस्य ह्यकल्पयत्।।
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समनुज्ञाप्य धर्मज्ञं राजानं भीममेव च।
यमौ यमोपमौ चैव ददौ दानान्यनेकशः।।
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ततः प्रदाय बह्वीर्गा ब्राह्मणेभ्यो यदूद्वह।
समाहृष्य तु वार्ष्णेयी वैराटीमब्रवीदिदम्।।
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वैराटि नेह संतापस्त्वया कार्यो ह्यनिन्दिते।
भर्तारं प्रति सुश्रोणि गर्भस्थं रक्ष वै शिशुम्।।
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एवमुक्त्वा ततः कुन्ती विरराम महाद्युते।
तामनुज्ञाप्य चैवेमां सुभद्रां समुपानयम्।।
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एवं स निधनं प्राप्तो दौहित्रस्तव मानद।
संतापं त्यज दुर्धर्ष मा च शोके मनः कृथाः।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि एकषष्टितमोऽध्यायः।। 61 ।।

7-61-11 कच्चिद्दुःखेन गोविन्दि तत्राजौ विमुखीकृतः इति थ.पाठः।। 7-61-19 समाहृते च सङ्ग्रामादिति झ.पाठः। पर्यवार्यत सतुष्टैरिति थ.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-060 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-062