महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-013
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कामस्य शक्तिकथनेन दुर्जयत्वकथनपूर्वकं तज्जयोपायकथनम्।। 1 ।।
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वासुदेव उवाच। | 14-13-1x |
न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत। शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्बवति वा न वा।। | 14-13-1a 14-13-1b |
बाह्यद्रव्यविमुक्तस्य शारीरेषु च गृह्यतः। यो धर्मो यत्सुखं चैव द्विषतामस्तु तत्तव।। | 14-13-2a 14-13-2b |
द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्। ममेति द्व्यक्षरो मृत्युर्नममेति च शाश्वतम्।। | 14-13-3a 14-13-3b |
ब्रह्ममृत्यू ततो राजन्नात्मन्येव व्यवस्थितौ। अदृश्यमानौ भूतानि योधयेतामसंशयम्।। | 14-13-4a 14-13-4b |
अविनाशोऽस्य तत्त्वस्य नियतो यदि भारत। भित्त्वा शरीरं भूतानामहिंसां प्रतिपद्यते।। | 14-13-5a 14-13-5b |
लब्ध्वा हि पृथिवीं कृत्स्नां सहस्थावरजङ्गमाम्। ममत्वं यस्य नैव स्यात्किं तया स करिष्यति।। | 14-13-6a 14-13-6b |
अथवा वसतः पार्थ वने वन्येन जीवतः। ममता यस्य वित्तेषु मृत्योरांस्ये स वर्तते।। | 14-13-7a 14-13-7b |
ब्राह्यान्तराणां शत्रूणां स्वभावं पश्य भारत। यन्न पश्यति तद्भूतं मुच्यते स महाभयात्।। | 14-13-8a 14-13-8b |
द्योगी योगं सारमार्गं विचिन्त्य।। | 14-13-9f |
नयो धर्मो नियमस्तस्य मूलम्।। | 14-13-10e |
अत्र गाथाः कामगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः। शृणु सङ्कीर्त्यमानास्ता अखिलेन युधिष्ठिर।। | 14-13-11a 14-13-11b |
काम उवाच। | 14-13-12x |
नाहं शक्योऽनुपायेन हन्तुं भूतेन केनचित्।। | 14-13-12a |
यो मां प्रयतते हन्तुं ज्ञात्वा प्रहरणे बलम्। तस्य तस्मिन्प्रहरणे पुनः प्रादुर्भवाम्यहम्।। | 14-13-13a 14-13-13b |
यो मां प्रयतते हन्तुं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः। जङ्गमेष्विव धर्मात्मा पुनः प्रादुर्भवाम्यहम्।। | 14-13-14a 14-13-14b |
यो मां प्रयतते हन्तुं वेदैर्वेदान्तसाधनैः। स्थावरेष्विव भूतात्मा तस्य प्रादुर्भवाम्यहम्।। | 14-13-15a 14-13-15b |
यो मां प्रयतते हन्तुं धृत्या सत्यपराक्रमः। भावो भवामि तस्याहं स च मां नावबुध्यते।। | 14-13-16a 14-13-16b |
यो मां प्रयतते हन्तुं तपसा संशितव्रतः। ततस्पपसि तस्यथ पुनः प्रादुर्भवाम्यहम्।। | 14-13-17a 14-13-17b |
यो मां प्रयतते हन्तुं मोक्षमास्थाय पण्डितः। तस्य मोक्षरतिस्थस्य नृत्यामि च हसामि च। अवध्यः सर्वभूतानामहमेकः सनातनः।। | 14-13-18a 14-13-18b 14-13-18c |
तस्मात्त्वमपि तं कामं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः। धर्मे कुरु महाराज तत्र ते स भविष्यति।। | 14-13-19a 14-13-19b |
मा ते व्यथाऽस्तु निहतान्बन्धून्वीक्ष्य पुनःपुनः। न शक्यास्ते पुनर्द्रष्ट्रं येऽहतास्मिन्रणाजिरे।। | 14-13-20a 14-13-20b |
स त्वमिष्ट्वा महायज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः। कीर्तिं लोके परां प्राप्य गतिमग्र्यां गमिष्यसि।। | 14-13-21a 14-13-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः।। 13 ।। |
14-13-1 न बाह्यस्य राज्यादेरर्थस्य त्यागात्त्यग्गी भवति किन्तु शरीरं कामादिकं त्यक्त्वैव सिद्धिर्मोक्षः नवेति शुष्कवैराग्यवतो विवेकशून्यस्य सिद्ध्यभावं सूचयति। उत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारतेतिक.ध.पाठः।। 14-13-2 गृद्ध्य सक्तस्य यो धर्मः सः अधर्मएव यत्सुखं तद्दुःखमेव।। 14-13-3 मम त्वं संसारहेतुः तदभावो ब्रह्मप्राप्तिहेतुरित्यर्थः।।
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