महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-080

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चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-080
वेदव्यासः
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चित्राङ्गदया रणाङ्गणनिपतितपतिपुत्रदर्शनजशोकातिरेकेण मोहाधिगमः।। 1 ।। तथा संज्ञोपलम्भे उलूपींप्रत्युपालम्भ गर्भवचनम्।। 2 ।। ततश्चिराल्लुब्धसंज्ञेन बभ्रुवाहनेनात्मोपालम्भनपूर्वकं प्रायोपवेशनम्।। 3 ।।

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वैशम्पायन उवाच। 14-80-1x
ततो बहुतरं भीरर्विलप्य कमलेक्षणा।
मुमोह दुःखसंतप्ता पपात च महीतले।।
14-80-1a
14-80-1b
प्रतिलभ्य च सा संज्ञां देवी दिव्यवपुर्धरा।
उलूपीं पन्नगसुतां दृष्ट्वेदं वाक्यमब्रवीत्।।
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उलूपि पश्य भर्तारं शयानं नितं रणे।
त्वत्कृते मम पुत्रेण बाणेन समितिंजयम्।।
14-80-3a
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ननु त्वमार्यधर्मज्ञा ननु चासि पतिव्रता।
यत्त्वत्कृतेऽयं पतितः पतिस्ते निहतो रणे।।
14-80-4a
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किंनु मन्देऽपकराद्धोऽयं यदि तेऽद्य धनंजयः।
क्षमस्व याच्यमाना वै जीवयस्व धनंजयम्।।
14-80-5a
14-80-5b
ननु त्वमार्ये धर्मज्ञे त्रैलोक्यविदिता शुभे।
यद्धातयित्वा पुत्रेण भर्तारं नानुशोचसि।।
14-80-6a
14-80-6b
नाहं शोचामि तनयं हतं पन्नगनन्दिनि।
पतिमेव तु शोचामि यस्यातिथ्यमिदं कृतम्।।
14-80-7a
14-80-7b
इत्युक्त्वा सा तदा देवीमुलूपीं पन्नगात्मजाम्।
भर्तारमभिगम्येदमित्युवाच यशस्विनी।।
14-80-8a
14-80-8b
उत्तिष्ठ कुरुमुख्यस्य प्रियमुख्य मम प्रिय।
अयमश्वो महाबाहो मयो ते परिमोक्षितः।।
14-80-9a
14-80-9b
ननु त्वया नाम विभो धर्मराजस्य यज्ञियः।
अयमश्वोऽनुसर्तव्यः स शेषे किं महीतले।।
14-80-10a
14-80-10b
त्वयि प्राणा ममायत्ताः कुरूणां कुरुनन्दन।
स कस्मात्प्राणदोऽन्येषां प्राणान्संत्यक्तवानसि।।
14-80-11a
14-80-11b
उलूपि साधु पश्येमं पतिं निपतितं भुवि।
पुत्रं चेमं समुत्साद्य घातयित्वा न शोचसि।।
14-80-12a
14-80-12b
कामं स्वपितु बालोऽयं भूमौ मृत्युवशं गतः।
लोहिताक्षो गुडाकेशो विजयः साधु जीवतु।।
14-80-13a
14-80-13b
नापराधोऽस्ति सुभगे नराणां बहुभार्यता।
प्रमदानां भवत्येष मा ते भूद्बुद्धिरीदृशी।।
14-80-14a
14-80-14b
सख्यं चैतत्कृतं धात्रा शश्वदव्ययमेव तु।
सख्यं समभिजानीहि सत्यं सङ्गतमस्तु ते।।
14-80-15a
14-80-15b
पुत्रेम घातयित्वैनं पतिं यदि न मेऽद्य वै।
जीवन्तं दर्शयस्यद्य परित्यक्ष्यामि जीवितम्।।
14-80-16a
14-80-16b
साऽहं दुःखान्विता देवि पतिपुत्रविनाकृता।
इहैव प्रायमाशिष्ये प्रेक्षन्त्यास्ते न संशयः।।
14-80-17a
14-80-17b
इत्युक्त्वा पन्नगसुतां सपत्नी चैत्रवाहनी।
ततः प्रायमुपासीना तूष्णीमासीज्जनाधिप।।
14-80-18a
14-80-18b
ततो विलप्य विरता भर्तुः पादौ प्रगृह्य सा।
उपविष्टा भवद्दीना सोच्छ्वासं पुत्रमीक्षती।।
14-80-19a
14-80-19b
ततः संज्ञां पुनर्लब्ध्वा स राजा बभ्रुवाहनः।
मातरं तामथालोक्य रणभूमावथाब्रवीत्।।
14-80-20a
14-80-20b
इतो दुःखतरं किंनु यन्मे माता सुखैधिता।
भूमौ निपतितं वीरमनुशेते मृतं पतिम्।।
14-80-21a
14-80-21b
निहन्तारं रणेऽरीणां सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
मया विनिहतं सङ्ख्ये प्रेक्षते दुर्मरं बत।।
14-80-22a
14-80-22b
अहोऽस्या हृदयं देव्या दृढं यन्न विदीर्यते।
व्यूढोरस्कं महाबाहुं प्रेक्षन्त्या निहतं पतिम्।।
14-80-23a
14-80-23b
दुर्मरं पुरुषेणेह मन्ये काले ह्यनागते।
यत्र नाहं न मे माता न वियुक्तौ स्वजीवितात्।।
14-80-24a
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हाहा धिक्कुरुवीरस्य किरीटं काञ्चनं भुवि।
अपविद्धं हतस्येह मया पुत्रेम पश्यत।।
14-80-25a
14-80-25b
भोभो पश्यत मे वीरं पितरं ब्राह्मणा भुवि।
शयानं वीरशयने मया पुत्रेण पातितम्।।
14-80-26a
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ब्राह्मणाः कुरुमुख्यस्य ये मुक्ता हयसारिणः।
कुर्वन्ति शान्तिं कामस्य रणे योऽयं मया हतः।।
14-80-27a
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व्यादिशन्तु च किं विप्राः प्रायश्चित्तमिहाद्य मे।
आनृशंसस्य पापस्य पितृहन्तू रणाजिरे।।
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दुश्चरा द्वादश समा हत्वा पितरमद्य वै।
ममेह सुनृशंसस्य संवीतस्यास्य चर्मणा।।
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14-80-29b
शिरःकपाले चास्यैव भुञ्जतः पितुरद्य मे।
प्रायश्चित्तं हि नास्त्यन्यद्धत्वाऽद्य पितरं मम।।
14-80-30a
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पश्य नागोत्तमसुते भर्तारं निहतं मया।
कृतं प्रियं मया तेऽद्य निहत्य समरेऽर्जुनम्।।
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सोऽहमद्य गमिष्यामि गतिं पितृनिषेविताम्।
न शक्नोम्यात्मनाऽऽत्मानमहं दारयितुं शुभे।।
14-80-32a
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सा त्वं मयि मृते मातस्तथा गाण्डीवधन्वनि।
भव प्रीतिमती देवि सत्येनात्मानमालभे।।
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इत्युक्त्वा स ततो राजा दुःखशोकसमाहतः।
उपस्पृश्य महाराज दुःखाद्वचनमब्रवीत्।।
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शृण्वन्तु सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च।
त्वं च मातर्यथा सत्यं ब्रवीमि भुजगोत्तमे।।
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यदि नोत्तिष्ठति जयः पिता मे नरसत्तमः।
अस्मिन्नेव रणोद्देशे शोषयिष्ये कलेवरम्।।
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नहि मे पितरं हत्वा निष्कृतिर्विद्यते क्वचित्।
नरकं प्रतिपत्स्यामि ध्रुवं गुरुवधार्दितः।।
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वीरं हि क्षत्रियं हत्वा गोशतेन प्रमुच्यते।
पितरं तु निहत्यैवं दुर्लभा निष्कृतिर्मम।।
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एत एको महातेजाः पाण्डुपुत्रो धनंजयः।
पिता च मम धर्मात्मा तस्य मे निष्कृतिः कुतः।।
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इत्येवमुक्त्वा नृपते धनंजयसुतो नृपः।
उपस्पृश्याभवत्तूष्णीं प्रायोपेतो महामतिः।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि अशीतितमोऽध्यायः।। 80 ।।

14-80-27 कामस्यति कां अस्येति च्छेदः।।

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