महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-033
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ब्राह्मणेन स्वभार्यांप्रति ममतावर्जनस्य पुरुषार्थसाधनतायां दृष्टान्ततया ब्राह्मणजनकसंवादानुवादः।। 1 ।।
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ब्राह्मणि उवाच। | 14-33-1x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ब्राह्मणस्य च संवादं जनकस्य च भामिनि।। | 14-33-1a 14-33-1b |
ब्राह्मणं जनको राजा सन्नं कस्मिंश्चिदागसि। विषये मे न वस्तव्यमिति शिष्ट्यर्थमब्रवीत्।। | 14-33-2a 14-33-2b |
इत्युक्तः प्रत्युवाचाथ ब्राह्मणो राजसत्तमम्। आचक्ष्व विषयं राजन्यावांस्तव वशे स्थितः।। | 14-33-3a 14-33-3b |
सोऽन्यस्य विषये राज्ञो वस्तुमिच्छाम्यहं विभो। वचस्ते कर्तुमिच्छामि यथाशास्त्रं महीपते।। | 14-33-4a 14-33-4b |
इत्युक्तस्तु तदा राजा ब्राह्मणेन यशस्विना। मुहुरुष्णं विनिःस्वस्य न किञ्चित्प्रत्यभाषत।। | 14-33-5a 14-33-5b |
तमासीनं ध्यायमानं राजानममितौजसम्। कश्मलं सहसाऽगच्छद्भानुमन्तमिव ग्रहः।। | 14-33-6a 14-33-6b |
समाश्वास्य ततो राजा विगते कश्यमे तदा। ततो मूहूर्तादिव तं ब्राह्मणं वाक्यमब्रवीत्।। | 14-33-7a 14-33-7b |
पितृपैतामहे राज्ये वश्ये जनपदे सति। विषयं नाधिगच्छामि विचिन्वन्पृथिवीमहम्।। | 14-33-8a 14-33-8b |
नाध्यगच्छं यदा पृथ्व्यां मिथिला मार्गिता मया। नाध्यगच्छं यदा तस्यां स्वप्रजा मार्गिता मया।। | 14-33-9a 14-33-9b |
नाध्यगच्छं यदा तस्यां तदा मे कश्मलोऽभवत्। ततो मे कश्मलस्यान्ते मतिः पुनरुपस्थिता।। | 14-33-10a 14-33-10b |
तदा न विषयं मन्ये सर्वो वा विषयो मम। आत्माऽपि चायं न मम सर्वा वा पृथिवी मम।। | 14-33-11a 14-33-11b |
यथा मम तथाऽन्येषामिति मन्ये द्विजोत्तम। उष्यतां यावदुत्साहो भुज्यतां यावदिष्यते।। | 14-33-12a 14-33-12b |
ब्राह्मण उवाच। | 14-33-13x |
पितृपैतामहे राज्ये वश्ये जनपदे सति। ब्रूहि कां मतिमास्थाय ममत्वं वर्जितं त्वया।। | 14-33-13a 14-33-13b |
कां वै बुद्धिं समाश्रित्य सर्वो वै विषयस्तव। नावैषि विषयं येन सर्वो वा विषयस्तव।। | 14-33-14a 14-33-14b |
जनक उवाच। | 14-33-15x |
अन्तवन्त इहारम्भा विदिताः सर्वकर्मसु। नाध्यगच्छमहं तस्मान्ममेदमिति यद्भवेत्।। | 14-33-15a 14-33-15b |
कस्येदमिति कस्य स्वमिति वेदवचस्तथा। नाध्यगच्छमहं बुद्ध्या ममेदमिति यद्भवेत्।। | 14-33-16a 14-33-16b |
एतां बुद्धिं समाश्रित्य ममत्वं वर्जितं मया। शृणु बुद्धिं च यां ज्ञात्वा सर्वत्र विषयो मम।। | 14-33-17a 14-33-17b |
नाहमात्मार्थमिच्छामि गन्धान्घ्राणगतानपि। तस्मान्मे निर्जिता भूमिर्वशे तिष्ठति नित्यदा।। | 14-33-18a 14-33-18b |
नाहमात्मार्थमिच्छामि रसानास्येऽपि वर्ततः। आपो मे निर्जितास्तस्माद्वशे तिष्ठन्ति नित्यदा।। | 14-33-19a 14-33-19b |
नाहमात्मार्थमिच्छामि रूपं ज्योतिश्च चक्षुषः। तस्मान्मे निर्जितं ज्योतिर्वशे तिष्ठति नित्यदा।। | 14-33-20a 14-33-20b |
नाहमात्मार्थमिच्छामि स्पर्शांस्त्वचि गताश्च ये। तस्मान्मे निर्जितो वायुर्वशे तिष्ठति नित्यदा।। | 14-33-21a 14-33-21b |
नाहमात्मार्थमिच्छामि शब्दाञ्श्रोत्रगतानपि। आकाशं मे जितं तस्माद्वशे तिष्ठति नित्यदा।। | 14-33-22a 14-33-22b |
नाहमात्मार्थमिच्छामि मनो नित्यं मनोन्तरे। मनो मे निर्जितं तस्माद्वशे तिष्ठति नित्यदा।। | 14-33-23a 14-33-23b |
देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च भूतेभ्योऽतिथिभिः सह। इत्यर्थं सर्व एवेति समारम्भा भवन्ति वै।। | 14-33-24a 14-33-24b |
ततः प्रहस्य जनकं ब्राह्मणः पुनरब्रवीत्। त्वज्जिज्ञासार्थमद्येह विद्धि मां धर्ममागतम्।। | 14-33-25a 14-33-25b |
त्वमस्य ब्रह्मिनाभस्य दुर्वारस्यानिवर्तिनः। सत्वनेमिनिरुद्धस्य चक्रस्यैकः प्रवर्तकः।। | 14-33-26a 14-33-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि त्र्यस्त्रिंशोऽध्यायः।। 33 ।। |
14-33-1 अत्र लोभे निकृन्तनीये।। 14-33-2 क्लान्तं कस्मिंश्चिदागमे इति द.पाठः।। क्षान्तं कस्मिंश्चिदागमे इति क.ठ.थ.पाठः। शिष्यार्थमब्रवीदिति पाठान्तरम्।।
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